ओ३म् “मनुष्य को सृष्टि के कर्ता और पालक ईश्वर के उपकारों के प्रति कृतज्ञ होना चाहिये”

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मनुष्य मननशील प्राणी है। इसका शरीर उसने स्वयं उत्पन्न किया नहीं है। माता पिता से इसे जन्म मिलता है। माता पिता भी अल्पज्ञ एवं अल्प शक्ति वाले मनुष्य होते हैं। सभी मनुष्य व महापुरुष अल्पज्ञ ही होते हैं। कोई भी मनुष्य व इतर प्राणियों के शरीर को बनाना नहीं जानता। मनुष्य से भिन्न संसार में एक ही चेतन सत्ता है। यह चेतन सत्ता सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वज्ञ, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनादि, नित्य, अनन्त तथा सृष्टिकर्ता है। ईश्वर और जीवात्मा से एक अन्य अनादि, नित्य व अनन्त जड़ सत्ता प्रकृति भी इस ब्रह्माण्ड में है। यह ईश्वर के अधीन है। प्रकृति के गुणों का वर्णन वेद वा वैदिक साहित्य में मिलता है जिसे ऋषियों ने अपने ज्ञान व योग के आधार पर साक्षात किया था। प्रकृति तीनों गुणो सत्व, रज व तम गुणों की साम्यावस्था होती है। इस प्रकृति में ही सर्वव्यापक और सर्वान्तर्यामी ईश्वर विकार उत्पन्न कर इसमें महत्तत्व तथा अहंकार आदि विकृतियों को उत्पन्न करते हैं। इन्हीं विकारों के अन्य विकार पंचतन्मात्रायें, ज्ञान व कर्मेन्द्रियां, पृथिवी, अग्नि, जल, वायु एवं आकाश आदि होते हैं। इन्हीं से सर्वव्यापक तथा सृष्टिकर्ता परमेश्वर हमारी इस कार्य सृष्टि व संसार को बनाते हैं जो सूर्य, चन्द्र, पृथिवी, ग्रह, उपग्रह तथा नक्षत्रों सहित भूमि, वन, पर्वत, नदी, समुद्र तथा जड़-चेतन जगत आदि से युक्त है।

हमारा यह जगत किसी चेतन सत्ता की रचना व कृति है जो केवल सर्वज्ञ एवं सर्वशक्तिमान ईश्वर द्वारा ही बनाई जा सकती है और वस्तुतः उसी ने बनाई भी है। वेद तथा वैदिक साहित्य सहित सत्यार्थप्रकाश एवं ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आदि ग्रन्थों का अध्ययन कर मनुष्य इस विषय को भलीभांति जान सकता है। ऐसा करने से ही मनुष्य को इस संसार के अनेक रहस्यों के ज्ञान सहित ईश्वर तथा जीवात्मा के स्वरूप तथा गुण, कर्म व स्वभाव, अपने कर्तव्यों व अकर्तव्यों आदि का भी ज्ञान होता है। हमारे प्राचीन पूर्वज अपना जीवन ज्ञानार्जन एवं सत्य के आचरण में ही व्यतीत करते थे। सभी वेदों के अनुसार ईश्वर व आत्मा के सत्यस्वरूप को जानकर ज्ञानयुक्त वैदिक विधि से ही ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना उपासना करते हुए तथा वायु व जल आदि की शुद्धि पर ध्यान देने के साथ अग्निहोत्र यज्ञ आदि कर अपने जीवन को सार्थक एवं सफल करते थे। ईश्वर के सत्यस्वरूप को जानना तथा अपने सत्यकर्तव्यों को जानकर उनका पालन व आचरण करना ही मनुष्य का कर्तव्य एवं धर्म होता है। इस कार्य में ऋषि दयानन्द का ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश सभी मनुष्यों का मार्गदर्शन करता है। इसका अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि परमात्मा ने यह सृष्टि अपनी शाश्वत व सनातन प्रजा जीवों के सुख दुःख रूपी भोग तथा अपवर्ग रूपी मोक्षानन्द वा आवागमन से मुक्ति के लिए बनाई है। मनुष्य जीवन को प्राप्त होकर अपने भोगों को प्राप्त कर ईश्वर की उपासना व सत्कर्मों से अपनी ज्ञानोन्नति व मुक्ति के कर्मों आदि को करके जीवन को सफल करना चाहिये। मनुष्य के जन्म जन्मान्तर के सभी दुःखों की निवृत्ति वेदाध्ययन तथा वेदाचरण के द्वारा ही सम्भव होती है। स्थाई रूपी से जीवन उन्नति व दुःख निवृत्ति का अन्य कोई उपाय संसार में नहीं है। इसका निश्चय सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ को पढ़कर होता है। अतः सभी मनुष्यों को अपने हित व कल्याण के लिए सत्यार्थप्रकाश का अध्ययन कर इसकी शिक्षाओं का मनन कर इसकी वेदानुकूल सभी शिक्षाओं को अपने जीवन में अपनाना चाहिये।

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संसार में इस सृष्टि को बनाने व चलाने वाली सत्ता सहित सब प्राणियों को जन्म देने, वन, उपवन व वनस्पतियों, अन्न, ओषधि एवं मनुष्य आदि प्राणियों के भोजन आदि के सभी पदार्थों को उत्पन्न करने वाली सर्वज्ञता व सर्व-शक्तियों से युक्त एक ही चेतन सत्ता ईश्वर है। हमें उस ईश्वर के अपने प्रति किये गये उपकारों को जानने का प्रयत्न करना चाहिये। जो मनुष्य ऐसा करते हैं वह अपना ही हित करते और जो नहीं करते वह अपनी ही हानि करते हैं। ऋषि दयानन्द ने ईश्वर के सत्यस्वरूप का प्रकाश अपने सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, आर्याभिविनय एवं वेदभाष्य आदि ग्रन्थों में किया है। उपनषिद, दर्शन ग्रन्थों में भी ईश्वर के सत्यस्वरूप की चर्चा एवं उसका प्रकाश है। ईश्वर का सत्यस्वरूप कैसा है, इसका उल्लेख कर ऋषि दयानन्द ने आर्योद्देश्यरत्नमाला में लिखा है ‘जिसके गुण-कर्म-स्वभाव और स्वरूप सत्य ही हैं, जो केवल चेतनमात्र वस्तु है तथा जो एक, अद्वितीय, सर्वशक्तिमान, निराकार, सर्वत्र व्यापक, अनादि और अनन्त, सत्य गुणवाला है, और जिसका स्वभाव, अनादि और अनन्त, आनन्दी, शुद्ध, न्यायकारी, दयालु और अजन्मादि है, जिसका कर्म जगत् की उत्पत्ति, पालन और विनाश करना तथा सब जीवों को पाप-पुण्य के फल ठीक-ठीक पहुंचाना है, उसको ‘ईश्वर’ कहते हैं।‘ ऋषि दयानन्द द्वारा संक्षेप में प्रस्तुत किया गया ईश्वर का यह सत्यस्वरूप सत्य एवं वेदादि स्वतःप्रमाण शास्त्रों से पुष्ट होने सहित तर्क एवं युक्तिसगत भी है। सभी मनुष्यों को ईश्वर के इस स्वरूप पर विचार कर इसी स्वरूप के अनुसार ईश्वर को जानना व मानना चाहिये।

जब हम ईश्वर के उपकारों पर दृष्टि डालते हैं तो हमें ज्ञात होता है कि ईश्वर ने सब जीवों को सुख देने के लिए ही इर्स सृष्टि की रचना की है और वही इसका पालन व संचालन कर रहा है। वही सृष्टि की अवधि पूर्ण होने पर इसकी प्रलय भी करता है और प्रलय अवधि समाप्त होने पर पुनः सृष्टि की रचना व पालन के कार्य करता है। ईश्वर ने यह सृष्टि अपने किसी निजी प्रयोजन के लिए नहीं अपितु हम जीवात्माओं के लिए की है। अतः हमें ईश्वर के इस उपकार को जानना चाहिये और इसके लिए नित्य प्रति उसकी कृतज्ञता व्यक्त करते हुए अनुचित कर्मों का त्याग तथा सत्य व वेदविहित कर्मों यथा ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना तथा उपासना, सत्कर्म, परोपकार, अग्निहोत्र यज्ञ तथा दान आदि को करने का प्रयत्न करना चाहिये। ईश्वर का दूसरा मुख्य उपकार जीवों को पाप-पुण्य के फल ठीक-ठीक पहुंचाना है। हमें जो सुख मिलते हैं वह ईश्वर हमारे पुण्य कर्मों के अनुसार हमें देते हैं और हमें जो दुःख प्राप्त होते हैं वह प्रायः हमारे पाप कर्मों के कारण मिलते हैं। ईश्वर की न्याय व्यवस्था तथा हमारे हित के कार्यों के लिए भी हमें ईश्वर का कृतज्ञ होकर उसकी स्तुति, भक्ति, वन्दना, प्रार्थना तथा उपासना आदि करनी चाहिये। ईश्वर की उपासना का फल भी हम सब मनुष्यों को ज्ञात होना चाहिये।

ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश में ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना के फल पर प्रकाश डाला है। उन्होंने लिखा है कि ‘जैसे शीतसे आतुर पुरुष का अग्नि के पास जाने से शीत निवृत हो जाता है वैसे परमेश्वर के समीप प्राप्त होने से सब दोष दुःख छूट कर परमेश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव के सदृश जीवात्मा के गुण, कर्म, स्वभाव पवित्र हो जाते हैं, इसलिये परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना अवश्य करनी चाहिये। इस (ईश्वर की उपासना) से इस का फल पृथक् होगा परन्तु आत्मा का बल इतना बढ़ेगा, कि पर्वत के समान दुःख प्राप्त होने पर भी (मनुष्य व जीवात्मा) न घबरायेगा और सब (दुःखों) को सहन कर सकेगा। क्या यह छोटी बात है? और जो परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना नहीं करता वह कृतघ्न और महामूर्ख भी होता है। क्योंकि जिस परमात्मा ने इस जगत् के सब पदार्थ जीवों को सुख के लिये दे रक्खे हैं, उसका गुण भूल जाना, ईश्वर ही को न मानना, कृतघ्नता और मूर्खता है।’ पहाड़ के समान दुःख सहन करने की शक्ति ईश्वर की उपासना से ही प्राप्त होती है। इसका अन्य कोई उपाय नहीं है। अतः इस लाभ के लिये हमें वेदाध्ययन करने सहित ईश्वर की उपासना अवश्य करनी चाहिये।

ईश्वर व जीवात्मा दोनों अनादि तथा नित्य पदार्थ व सत्तायें हैं। दोनों के अनादि होने से इस सृष्टि की अनन्त बार रचना एवं प्रलय हुई है, यह सिद्ध होता है। सृष्टि के प्रत्येक समय में परमात्मा ने हमें हमारे कर्मानुसार मनुष्य आदि योनियों में जन्म व सुख प्रदान किये हैं। हम एक दो नहीं, अनेकों बार मोक्ष व मुक्ति को भी प्राप्त हो चुके हैं। संसार में अगणित प्राणी योनियां हैं। इन सभी योनियों में अनादि काल से अब तक हमारे अगणित बार जन्म हुए हैं तथा हर जन्म में मृत्यु भी हुई है। सभी जन्मों व मोक्ष मे प्राणियों को सुख का लाभ होता है। यह सब परमात्मा की कृपा, न्याय व दया से ही सब जीवों को प्राप्त होता है। अतः परमात्मा के मनुष्य आदि सभी प्राणियों व जीवात्माओं पर अनादि काल से अनन्त उपकार हैं। परमात्मा इन उपकारों के बदले हमसे कुछ मांगता नहीं है। यह हमारे अपने ऊपर होता है कि हम उसको जाने व उसकी उपासना करें जिसके भी अनेक अतिरिक्त लाभ हमें मिलते हैं। अतः सभी मनुष्यों को अपना जीवन वेदों के सिद्धान्तों व मान्यताओं के अध्ययन सहित सत्साहित्य के अध्ययन व सत्याचरण में व्यतीत करना चाहिये। ईश्वर के उपकारों को जानकर उसके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने सहित अपने आचरण व कार्यों को शुद्ध रखना चाहिये। किसी प्राणी को कदापि कष्ट नहीं देना चाहिये। दूसरे प्राणियों के प्रति जितना उपकार कर सके, करने चाहियें। यही निश्चय ईश्वर को जानकर व वेदों का अध्ययन करने पर होता है। यदि हम ऐसा करेंगे तो हमारा जीवन सफल होगा और हम लोक परलोक व जन्म-जन्मान्तर में सुख व उन्नति को प्राप्त होंगे और मनुष्य जीवन के लक्ष्य व चार पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष को भी प्राप्त होंगे। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

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