वट वृक्ष को देखा है कभी,
कितना गहरा ,कितना घना ,
चहुंओर बेल से लिपटा हुआ सा,
दूर-दूर नवांकुर फूटे,
वह स्थिर खड़ा सा ,
पूजते सर्वत्र उसे ,
है अनमोल गुणों सा ,
किंतु जब गिरता है तो ,
एक आवाज होती, मानो हृदय चीरता वसुंधरा का,
हां! वह बेल लिपटी हुई थी
वट वृक्ष से,
थी हरी-भरी वजूद से उसके ……
अब कहीं दबी पड़ी सी……..
आह ! निकलती उसके मूक हृदय से ,
अपने ही जीवन से जो विलग पड़ी,
बढ़ती उन नवांकुर को छाया देने,
पर है जगह-जगह कटी हुई सी,
बढ़ते नवांकुर जब वृक्ष बने,
तब पुनः सजीव हो, खिल सी पड़ी ,
है वृक्ष और बेल का अनूठा बंधन, जीवनदायिनी….. प्रेरणामयी………
डॉ. ऋतु नागर
(स्वरचित)
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