ओ३म्
“ईश्वर का त्रिकालदर्शी स्वरूप हमें सद्कर्मों की प्रेरणा करता हैं”
हम और ईश्वर दो अलग अलग सत्तायें हैं। दोनों की सामर्थ्य भी अलग अलग हैं। मनुष्य अल्प शक्तिवाला है तो ईश्वर सर्वशक्तिमान है। मनुष्य अल्पज्ञ वा अल्पज्ञान वाला है तो ईश्वर सर्वज्ञ वा सभी प्रकार का पूर्ण ज्ञान रखने वाली सत्ता है। दोनों की सत्ता में कुछ समानतायें हैं और कुछ असमानतायें हैं। इसी कारण से दोनों का पृथक पृथक अस्तित्व सिद्ध है। ईश्वर को त्रिकालदर्शी कहते हैं। इसका क्या तात्पर्य है, यही इस लेख का विषय है। त्रिकाल भूत, वर्तमान व भविष्य काल को कहते हैं। ईश्वर इन तीनों कालों की बातों को यथार्थ रूप में जानता है या नहीं? महर्षि दयानन्द जी महाराज ने सत्यार्थप्रकाश में इस प्रश्न का उत्तर देते हुए बताया है कि ईश्वर त्रिकालदर्शी है परन्तु जीवात्माओं के भविष्य काल के कर्मों की अपेक्षा से। इसका अर्थ यह हुआ कि ईश्वर जीवों के भविष्य काल में किये जाने वाले कर्मों को छोड़कर ब्रह्माण्ड व विश्व की तीनों कालों की सभी बातों को यथार्थ रूप में जानता है। प्रश्न उठता है कि सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान व सर्वान्तर्यामी ईश्वर जीवों के भविष्य के कर्मों को क्यों नहीं जानता?
इस प्रश्न का उत्तर है कि जीव कर्म करने में स्वतन्त्र और उनके फल भोगने में ईश्वर की व्यवस्था में परतन्त्र है। जीव जो कर्म करता है उन कर्मों का निर्धारण वह स्वयं करता है। वह कर्म शुभ हों या अशुभ, यह जीवात्मा का अपना निर्णय होता है। ईश्वर जीवात्मा की इस स्वतन्त्रता में बाधक नहीं बनता। इसी कारण जीवात्मा अपने शुभ व अशुभ कर्मों का यथोचित फल पाने का अधिकारी है। यदि जीवात्मा के भविष्य के सभी कर्म ईश्वर के ज्ञान में हों तो इसका अर्थ है कि उसके कर्मों का निर्धारण ईश्वर द्वारा किया गया है। ऐसी स्थिति में जीवात्मा उन कर्मों के लिए जिसका निर्धारण उसके द्वारा नहीं हुआ, कम से कम दुःख रूपी फल प्राप्त करने का अधिकारी तो नहीं होगा। जब उसने भविष्य के वह कर्म अपने विवेक व निर्णय से न करके ईश्वर की व्यवस्था, प्रेरणा वा उसके द्वारा निर्धारण किये जाने के कारण किये हों तो वह उसका भोक्ता नहीं हो सकता। ऐसा होना न्यायसंगत नहीं होगा। उदाहरण से भी इसको समझा जा सकता है।
किसी व्यक्ति ने किसी को अपनी किसी योजना की पूर्ति के लिए कोई काम सौंपा और बदले में उसे कुछ धन दिया। वह कार्य अशुभ था जिस कारण पुलिस द्वारा वह पकड़े जाने पर न्यायाधीश के सामने पहुंचता है। न्यायाधीश महोदय को वह सत्य स्थिति का वर्णन कर बताता है कि वह काम तो उसने धन के लिए किया, उससे वह कार्य करवाने वाला अमुक व्यक्ति है। अब वह अमुक व्यक्ति भी न्याय की प्रक्रिया में सम्मिलित होता है और उसको उसकी अनुचित योजना के लिए सजा मिलती है, यह सजा काम करने वाले व्यक्ति से कुछ अधिक ही होती है। इसका कारण अनुचित काम करने की प्रेरणा किया जाना है। उस योजना को अंजाम देने वाले को उससे कम दण्ड अर्थात् उस गलत काम को करने व धन लेने की सजा मात्र ही दी जाती है। परमात्मा को जीवात्मा के कर्मों का ज्ञान उस काम को करने से पूर्व तभी हो सकता है जब कि जीव के कर्मों का निर्धारण स्वयं ईश्वर करे या उसके द्वारा हो। ऐसी स्थिति में कर्मों का फल जीवात्मा को नहीं मिलेगा क्योंकि इसके लिए उत्तरादायी ईश्वर होगा। उसी ने वह कार्य जीवात्मा से कराया है। ईश्वर ऐसा कदापि नहीं करता। ईश्वर तो सच्चिदानन्दस्वरूप, शुद्ध और पवित्र है। वह तो जीवात्माओं को सदैव अच्छे शुभ कर्म करने की ही प्रेरणा देता है, अशुभ बुरे कामों की नहीं। निर्णय जीवात्मा का अपना होता है, वह चाहें तो करे या चाहे न करे। इसके अतिरिक्त जो बुरे काम होते हैं, ईश्वर उनकी सलाह व प्रेरणा नहीं देता। वह जीवात्मा द्वारा अपनी अज्ञानता, काम, क्रोध, लोभ व मोह वश किये जाते हैं। भारत में रिश्वतखोरी होती है। यह मनुष्य अपने विवेक से करता है जिसकी उसको सजा मिलती है। इस कारण से ईश्वर को जीव के किसी भी शुभ व अशुभ कर्मों का ज्ञान जीवात्मा द्वारा किये जाने से पूर्व कदापि नहीं होता।
ईश्वर जीव के कर्मों की अपेक्षा से त्रिकाल में किये जाने वाले अन्य सभी कार्यों को भलीभांति जानता है। वह जीवात्मा के भूतकाल व वर्तमान काल के सभी कार्यों वा कर्मों को भी जानता है। ईश्वर को संसार के सभी जीवों व उनके अतीत के कर्मों का सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी तथा सबका सदा साक्षी होने के कारण से यथावत् ज्ञान है। जीवों के मनुष्य योनि में किये गये पुण्य व पाप कर्मों के अनुसार उन्हें ईश्वर द्वारा अनेकानेक योनियों में जन्म मिलता आ रहा है। जीवों से इतर सृष्टि विषयक अतीत, वर्तमान व भविष्य का ज्ञान भी ईश्वर को होता है। ईश्वर को इस ज्ञान होने का कारण उसका सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, सब जीवों के सब कर्मों का साक्षी, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सर्वेश्वर, जीवात्मा और प्रकृति का स्वामी वा नियंत्रक होना है। ईश्वर की महानता के कार्यों का जब चिन्तन करते हैं, तो हमारी बुद्धि उसकी महिमा को जानकर ऐसा अनुभव करती है कि ईश्वर की महानता व विशेषताओं को हम समग्र रूप में नहीं जान सकते हैं। संसार में अनन्त लोक-लोकान्तर हैं जिनका धारण व व्यवस्था वह करता है। अनन्त जीव हैं जिनके भूत व वर्तमान के सभी कर्मों का वह साक्षी और ज्ञाता है। उसका ज्ञान कभी लेशमात्र भी न्यून व त्रुटियुक्त नहीं होता। सब जीवों के जन्म-मरण व उन्हें कर्मानुसार भोग प्राप्त कराना आदि ऐसे कार्य हैं कि इन विषयों का चिन्तन करते हुए बुद्धि एक सीमा तक ही चिन्तन कर पाती है। उसके बाद तो यही कहना पड़ता है कि हे ईश्वर तेरी महिमा अपरम्पार है। तेरा पार किसी ने भी पाया नहीं, दृष्टि किसी की भी आया नहीं। हे प्रभु तुम अणु से भी सूक्ष्म और गगन से विशाल हो, मैं मिसाल दूं तुम्हें कौन सी, दुनियां में तुम बेमिसाल हो, आदि आदि।
त्रिकालदर्शी होने में ईश्वर को सृष्टि सहित जीवों के भूतकाल के सभी कर्मों का ज्ञान होना भी है। यदि ईश्वर में जीवात्मा के किसी कर्म को भूलने का लेशमात्र भी अवगुण हो तो वह जीवों का ठीक ठीक न्याय नहीं कर सकता। हम जानते हैं कि ईश्वर में अवगुण होने का प्रश्न ही नहीं है। वह जीवात्मा के किसी कर्म को कभी नही भूलता है। अनन्त संख्या वाली सभी जीवात्माओं के जो कर्म अभी भोगे नहीं गये हैं, ईश्वर को जीवों के उन कर्मों का भलीभांति यथोचित पूर्ण ज्ञान है। गुप अन्धकार में अकेले भी जो विचार, चिन्तन व अशुभ कर्म जीवात्मा करता है वह भी पूरा का पूरा, वैसा का वैसा ईश्वर को विदित होता है। समय आने पर बीज से वृक्ष की भांति उसका वह कर्म जो सबसे छुप कर जीवात्मा ने किया होता है, फलीभूत होता है। अतीत के अशुभ कर्मों के कारण ईश्वरीय फल मिलने पर जीवात्मा को दुःख व पीड़ा होती है। वह चिल्लाता है कि यह मेरे किस कर्म का फल है। चिल्ला चिल्ला कर व रो-रोकर वह चुप हो जाता है। उसे स्वीकार करना ही पड़ता है कि यह अवश्य ही उसके किसी पूर्व कर्म का फल है।
हम यह भी अनुभव करते हैं कि जब जीव को पीड़ा हो रही होती है तो सर्वान्तर्यामी व सर्वव्यापक रूप से ईश्वर जीव के भीतर प्रविष्ट रहने के कारण उस पीड़ा का अनुभव अवश्य ही करता है/होगा। तभी तो उसे यह ज्ञात होता है कि जीवात्मा ने अपने पूर्व कर्म का ठीक ठीक फल भोग लिया है। उसके बाद उसे शेष कर्मों का फल ही भोगना होता है। अतः पुस्तकें पढ़कर व दूसरे रोगी, दुःखी लोगों को देखकर मनुष्य को दुष्कर्म व अशुभ कर्म करना छोड़कर किसी भी स्थिति में बुरे कर्म नहीं करने चाहिये। जीवात्मा सजगता के साथ पुण्य कर्मों को करे और उन्हें फल भोग व सुख की इच्छा से न कर ईश्वर को समर्पित कर दे तो उसका कल्याण होना निश्चित जान पड़ता है। हमारे एक मित्र ने एक उदाहरण देते हुए कुछ दिन पूर्व हमें बताया कि एक राजा को एक गांव में सहायता की जरूरत पड़ी तो एक साधारण व्यक्ति ने वह कार्य कर दिया। राजा ने उससे दाम पूछे तो वह कुछ भी मांगने में अनिच्छा प्रकट करता रहा। जब वह नहीं बोला तो राजा ने उसे दो गांव की जागीर दे दी। अब यह साधारण व्यक्ति दो गांवों का स्वामी हो गया। हमारे मित्र ने कहा कि यह उस साधारण व्यक्ति का अपने कर्म को राजा को समर्पित करने के कारण से हुआ। यदि हम भी अच्छे कर्म करें और उसके फल की इच्छा न रखकर उसे ईश्वर को समर्पित कर दें और अच्छे कर्म करते रहें तो ईश्वर की व्यवस्था से हमें सुख व आनन्द सहित हमारा सौभाग्य उन्नति को प्राप्त होगा। इसका कारण यह है कि ईश्वर जीवात्माओं से सद्कर्मों की अपेक्षा करता है। जो ऐसा करते हंै वह उसकी व्यवस्था में सुखी रहकर स्वर्ग अर्थात् सुख विशेष को प्राप्त होता है।
ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान और न्यायकारी है। वह जीवों के भविष्य के कर्मों की अपेक्षा से त्रिकालदर्शी है। सारा ब्रह्माण्ड उसके नियंत्रण में है। उसने इस ब्रह्माण्ड को सहज रूप में ब्राह्म दिन के आरम्भ में बनाकर धारण कर रखा है। 4.32 अरब वर्षों की अवधि पूर्ण होने पर ईश्वर इस संसार की प्रलय करेगा। उस त्रिकालदर्शी ईश्वर की उपासना हमें उसके वेद ज्ञान के अनुरूप स्तुति व प्रार्थना सहित यज्ञ, परोपकार, दान व दुखियों की सेवा द्वारा करनी चाहिये। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य