(आज सावरकर जी की जयंती पर)।
यह एक व्यक्ति मात्र नहीं, एक संस्था मात्र नहीं अपितु एक अक्षय विचारधारा का नाम है। वह विचारधारा जो गुलामी की स्याह कारा में रहकर भी आजादी का लौ जला सकती है। वह विचारधारा को गुरुगोविन्द सिंह की तरह अपने समस्त परिजनों को बलिवेदी के निमित्त न्यौछावर कर सकती है। वह विचारधारा जो उस भविष्य के चलचित्र को देख सकती है जिसे जनसाधारण की नंगी आँखें कभी देख नहीं पातीं। विश्वविद्यालयी डिग्रियों से निर्मित विवेक कभी समझ नहीं पाते।
वीर सावरकर का सबसे स्तुत्य कार्य रहा 1857 के संग्राम को प्रथम स्वातन्त्र्य समर नाम देना। यह दुनिया की वह पुस्तक है जो छपने से पहले ही प्रतिबंधित कर दी गई थी। यह जलवा रहा सावरकर जी की लेखनी का। आज यह पुस्तक विश्व की कई भाषाओं में उपलब्ध है जबकि प्रकाशन के समय समस्त ब्रितानी हुकूमत ने समस्त अंग्रेजी, हिंदी और मराठी प्रेसों को बंद करा दिया था। लाल लट्टुओं का मानना था कि सावरकर जी कि पुस्तक इन तीन भाषाओं में ही निकल सकती है। हकीकत यह है कि उस समय के तमाम क्रान्तिकारियों ने अलग अलग भाषाओं में अनुवाद करके प्रकाशन का बीड़ा उठा लिया था।
इस पुस्तक की महत्ता आज भी दो बिन्दुओं पर सर्वाधिक है। प्रथम यह कि 1857 के महान स्वतन्त्रता संग्राम को न केवल फिरंगी बल्कि हमारे देश के तथाकथित विद्वान भी सैनिक विद्रोह कहकर चैन की नींद सो गए। इतने बड़े संग्राम को बच्चों का खेल बनाकर रख दिया गया था। वीर सावरकर पहले व्यक्ति थे जिन्होंने इस आन्दोलन का समुचित नाम दिया था। दूसरा कारण है कि 1857 की लड़ाई को बहुत छोटे पैमाने पर रखकर ओछी नजरों से देखा गया था। मात्र मुट्ठी भर सैनिकों/जमींदारों का विद्रोह साबित कर दिया गया था। जबकि सच्चाई यह है कि कई अंग्रेज अफसर भारत छोड़कर भाग गए थे। लार्ड केनिंघ खुद भी भारत छोड़ने की तैयारी कर चुका था अगर वीर कुंवर सिंह शहीद न हो गए होते। सब मिलाकर 1857 का संग्राम अंग्रेजों के लिए बहुत भारी साबित हुआ था। अग्रेजों ने स्वयं के राजकीय दस्तावेजों में पूरी ईमानदारी से युद्ध का वर्णन किया है। दोनों पक्षों की पूरी भूमिका को दर्शाया है। वीर सावरकर ने इंग्लैंड में रहते हुए चोरी से उन समस्त दस्तावेजों का अध्ययन किया था और उस आधार पर ही पुस्तक का ताना बाना बुना था। जबकि हमारा देश आज भी “सैनिक विद्रोह” से ऊपर उठ नहीं पाया है।
सावरकर के बारे में कांग्रेस की “खिसियानी बिल्ली खम्भा नोचे” की अवधारणा इसी संदर्भ में विचारणीय है। कांग्रेस चाहती है कि भारत की आजादी की लड़ाई का आदि और अंत सिर्फ कांग्रेस के ही नाम से जुड़ा हो, आगे-पीछे कहीं और नहीं। कांग्रेस काफी हद तक इसमें सफल भी है। सावरकर जी ने 1857 को जब प्रथम स्वातन्त्र्य समर नाम दे दिया जबकि इस कालखंड के 28 वर्षों बाद अंग्रेजों ने कांग्रेस की स्थापना कराई थी। अर्थात् कांग्रेस के पैदा होने के 28 वर्ष पहले ही भारत स्वतन्त्रता संग्राम लड़ लिया था। यह बात कांग्रेसियों के गले में फंसी हड्डी बन गई है। कांग्रेस का छल छद्म सावरकर और उनकी पुस्तक तक जाते जाते बिखर जाता है। यही कारण है कि कांग्रेस अपने लिए सबसे बड़ी चुनौती वीर सावरकर को मानती रही है और आज भी मानती है।
तथाकथित कुछ देशद्रोहियों ने सावरकर की राष्ट्रनिष्ठा पर सवाल उठाने का कुत्सित प्रयास किया है। गिरगिट की तरह रंग बदलने वाले ये पाखंडी फूल जाते हैं कि अपने भाई के साथ दोहरा कालापानी की सजा भोगने वाला महान क्रांतिकारी अंग्रेजों के दलालों को अपनी भविष्य की योजना नहीं बता सकता। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस और भगत सिंह भी कई बार नाम और भेष बदलकर अपनी योजना को पूर्ण कर चुके थे। गोपनीयता एवं छद्म खबरें फैलाकर भ्रमित करना क्रान्तिकारियों का शुरु से ही हथियार रहा है और आज भी कायम है। एक अग्रेज अधिकारी ने एक पुस्तक लिखते हुए वीर सावरकर के माफीनामे का जिक्र किया था। उस लेखक से सबूत माँगा गया तो उसने सबूत के अभाव में उस पुस्तक से उस प्रसंग को हटा दिया था जबकि कुछ छुटभैये अभी भी इस लकीर को लगातार पीट रहे हैं। अगर मान भी लिया जाय कि सावरकर जी ने माफी माँगकर रिहाई ली थी तो इसमें भी कोई बुराई नजर नहीं आती। जिस महान क्रान्तिकारी का उद्देश्य राष्ट्रनिर्माण करना हो, वह जेल में रहकर अपने समय को खोने के बजाय बाहर रहकर अपना लक्ष्य साधेगा ही।
अन्त में आज इतना ही कहना चाहूँगा कि-
सावरकर की दिव्य प्रभा के सम्मुख विनत जगत है।
रोम – रोम जिसका भारत माँ के चरणों में रत है।।
डॉ अवधेश कुमार अवध 8787573644