श्री कृष्ण काल में समूची पृथ्वी पर यदुवंशियों का साम्राज्य स्थापित हो गया था। उनकी संख्या समूची पृथ्वी में बढ़ गई थी, वे उन्मत्त हो गए थ्ो, भगवान श्री कृष्ण ने विचार किया कि इन यदुवंशियों का विनाश अत्यन्त आवश्यक है, क्योंकि अगर सारी सृष्टि में मात्र यदुवंशियों का सामाज्य हो जाएगा तो सृष्टि का संतुलन बिगड़ने लगेगा।
उसी समय पिंडारक क्ष्ोत्र में महर्षि दुर्वासा अपने शिष्यों के साथ पधारे थ्ो। वहां पर उसी समय यादव बालकों की मंडली भी पहुंच गई। वे सभी यदुकुमार अपने पौरुष के अभिमान में उन्मत्त हो रहे थ्ो। उन सभी ऋषियों ने ठिठौली करने का विचार किया, श्री कृष्ण और जामवंती के पुत्र साम्ब को स्त्री वेश बनाकर उसे ऋषियों के सम्मुख लाए और बोले कि यह क्या जनेगी? यानी इसे क्या पैदा होगा? उन यदुवंशी कुमारों की ठिठौली पर ऋषि दुर्वासा क्रोधित हो गए। वे आम तौर पर वैसे भी जल्द क्रोधित हो जाते हैं। ऋषि दुर्वासा क्रोध में भर बोले- य मूसल जनेगी, जो यादवों के नाश का कारण होगा। ऋषि के श्राप को सुनकर सभी यदुवंशी बालक भयभीत हो गए और उन्होंने पूरा किस्सा राजा उग्रसेन को कह सुनाया। इसके बाद साम्ब के पेट से एक मूसल का जन्म हुआ, तब राजा उग्रसेन ने श्री कृष्ण को बुलाकर सारा वृतांत बताया। भगवान श्री कृष्ण ने मूसल का चूर्ण बनाकर समुद्र में डलवा दिया। मूसल का एक खंड जो भाले के नोक के समान था, जो चूर्ण होने से श्ोष रह गया था। उसे भी समुद्र में फेंकवा दिया। उस लौह खंड को मछली ने निगल लिया। उस मछली को पकड़कर मछुवारों ने पकड़ा तो उसके पेट से लौह खंड निकला। उस लोेहे के टुकड़े को मछुवारे वहीं छोड़कर चले गए। जिसे वहां पहुंचे एक बहलियें ने ले लिया और अपने वाण की नोक पर लगा दिया। उधर ऋषियों के श्राप के कारण लोहे का चूर्ण समुद्र में सरकंडे के रूप में उत्पन्न हुए।
एक समय सभी यादवगण कृष्ण आदि सहित रथ पर चढ़कर प्रभास क्ष्ोत्र में आए, जहां पर मूसल चूर्ण करके समुद्र में डाला गया था। भगवान श्री कृष्ण की प्रेरणा से वे मदिरापान करके आपस में वार्ता करने लगे। बातों-बातों में उनमें विवाद हो गया और हाथा-पायी होने लगी। फिर देवलीला से प्रभावित होकर आपस में युद्ध करने लगे। जब सारे अस्त्र-शस्त्र समाप्त हो गए तो वे एक-दूसरे पर सरकंडों से प्रहार करने लगे। उन सरकंडों का प्रहार वज्र के समान था। उस एरा रूपी वज्र से यदुवंशियों की विनाशलीला शुरु हुुई। इस तरह वे सभी मारे गए।
भक्त वत्सल लीलाधर श्री कृष्ण ने दुर्वासा के श्राप का रखा था मान
कालांतर में ऋषि दुर्वासा का श्राप सत्य सिद्ध करने के लिए भगवान श्री कृष्ण अपना एक पैर दूसरे पैर पर चढ़ाकर लेट गए। उसी समय जरा नामक वहीं बहेलियां वहां पहुंचा और भगवान के चमकते तालुओं को मृग की आंख समझ कर वाण चला दिया। भगवान श्री कृष्ण श्री विष्णु के अवतार थ्ो और जिस उद्देश्य को लेकर अवतरित हुए थ्ो। वे सभी पूर्ण हो चुके थ्ो। वे भक्त वत्सल है और उन्हें ऋषि दुर्वासा के श्राप का मान भी रखना था, इसलिए बहेलिये के तीर को माध्यम बनाकर अपने धाम को चले गए।