भक्ति क्या है? यह बहुत ही गूढ़ विषय है। इससे समझना और इसकी व्याख्या करना सहज नहीं है, बल्कि बहुत ही कठिन है, लेकिन हम इसे संक्ष्ोप में समझाने व समझने का प्रयास करेंगे। वह भी गोस्वामी तुलसी दास कृत राम चरित मानस के अरण्यकांड के प्रसंग को लेकर इसे समझने का प्रयास करेंगे। अरण्यकांड में प्रमु श्री राम और उनकी परमभक्त शबरी के बीच का संवाद है, भगवान श्रीराम जो जगत के पालनहाल है, भगवान विष्णु के अवतार हैं। इसमें भगवान श्री राम व भक्त शबरी के संवाद में श्री राम ने नवधा भक्ति के प्रसंग को कहा है। इसके अनुसार भक्ति के स्वरूप कहे गए हैं। आइये जानते हैं, कि क्या है नवधा भक्ति।
भक्ति के स्वरूप
पहली भक्ति है- संतों का सत्संग अर्थात उनके वचनों को श्रवण व उनके वचनों का अनुपालन।
दूसरी भक्ति है- मेरे यानी श्री राम कथा प्रसंग में प्रेम।
तीसरी भक्ति है- अभिमानरहित होकर गुरु के चरण कमलों की सेवा करना।
चौथी भक्ति है- कपट छोड़कर मेरे गुणों का समूह गान।
पांचवीं भक्ति है- मेरे यानी श्री राम मंत्र का जप और मुझमें दृढ़ विश्वास।
छठवीं भक्ति है- इन्द्रियों का निग्रह, शील, बहुत कार्यों से वैराग्य और निरन्तर संत-पुरुषों के धर्म-आचरण में लगे रहना।
सातवीं भक्ति है- जगत भर को समभाव से मुझमें ओत-प्रोत होकर यानी राम मय होकर देखना और संतों को मुझमसे भी अधिक करके मानना। कहने के आशय यह भी हुआ कि राममय होकर उनमें लीन होना और भ्ोंद दृष्टि को समाप्त करना।
आठवीं भक्ति है- जो कुछ मिल जाए, उसी को प्राप्त कर संतोष करना और स्वप्न में भी पराये दोषों न देखना।
नौवी भक्ति है- सरलता और सबके साथ कपटरहित व्यवहार करना, हृदय में मेरा भरोसा रखना और किसी भी अवस्था में हर्ष और दॅन्य यानि विषाद का न होना।