“सृष्टिकर्ता ईश्वर का निज व मुख्य नाम तथा उसका प्राप्ति स्थान”

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ओ३म्
“सृष्टिकर्ता ईश्वर का निज व मुख्य नाम तथा उसका प्राप्ति स्थान”
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हमारा यह संसार लाखों व करोड़ो वर्ष पूर्व बना है। यह अपने आप नहीं बना और न ही स्वमेव बिना किसी कर्ता के बन ही सकता है। इसका बनाने वाला अवश्य कोई है। जो भी चीज बनती है उसका बनने से पहले अस्तित्व नहीं होता। इस संसार का भी बनने से पहले इस दृश्यरूप में अस्तित्व नहीं था। यह जगत इस सृष्टि के अविभाज्य कण परमाणु वा प्रकृति के रूप में वृहद ब्रह्माण्ड के आकाश में सर्वत्र विस्तीर्ण था। इस सूक्ष्म कारण प्रकृति जो कि त्रिगुणात्मक है, उससे यह संसार बना है। प्रकृति और सृष्टि की रचना का वर्णन हमें सांख्य तथा वैशेषिक दर्शन में उपलब्ध होता है। उस वर्णन को पढ़कर यह निश्चित हो जाता है कि समस्त ब्रह्माण्ड एक सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वशक्तिमान, निराकार, सर्वव्यापक एवं सर्वज्ञ आदि गुणों वाली सत्ता से बना है। उसे ही ईश्वर कहते हैं। वही ईश्वर इस सृष्टि की उत्पत्ति, पालन तथा प्रलय कर सकता है। उससे भिन्न संसार में ऐसी कोई सत्ता व शक्ति नहीं है जो सृष्टि की उत्पत्ति व इसके संचालन का कार्य कर सके। वह सत्ता सृष्टि की रचना क्यों करती है, इसका कारण है कि संसार में ईश्वर सहित असंख्य वा अनन्त संख्या से युक्त चेतन अल्पज्ञ एकदेशी जन्म-मरण धर्मा जीवों का अस्तित्व हैं। यह जीव सत्य, चित्त, अनादि, अनुत्पन्न, नित्य व अविनाशी गुणों वाले हैं। यह भाव तत्व सत्व, रज व तम गुणों वाली प्रकृति अर्थात् अभाव व शून्य के विपरीत सत्ता होने के कारण न तो कभी उत्पन्न ई है और न ही यह कभी अभाव को प्राप्त होती है। ईश्वर से इतर चेतन सत्ता जीवों को अपने पूर्वजन्म वा उससे भी पहले के पूर्वजन्मों के अवशिष्ट कर्मों का फल प्रदान करने के लिये ईश्वर इन्हें इनके कर्मों का सुख व दुःख रूपी भोग प्रदान करने के लिये इस सृष्टि को बनाते व इसका संचालन करते हंै। ईश्वर सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी एवं सर्वातिसूक्ष्म सत्ता है। वह सर्वत्र एक रस है। वह सच्चिदानन्द व अजन्मा होने से सुख व दुःख तथा कर्मफल भोग से रहित है। ईश्वर कर्मफल भोग से रहित इसलिये है कि उसमें इच्छा व द्वेष नहीं है। उसको कर्मफल का भोग कराने वाला उससे बड़ा दूसरा कोई ईश्वर भी नहीं है। देव उसे कहते हैं जो दूसरों को कुछ देता है। ईश्वर सभी जीवों को देता ही देता है, किसी से कुछ मांगता व लेता नहीं और न अपेक्षा रखता है। अतः ईश्वर देवों का भी देव महादेव है। जो किसी को बिना मांगे कुछ दे वह महान व सबका सम्माननीय होता है। ऐसा करना शुभ व पुण्य कर्म होता है। अतः ईश्वर को दुःख रूपी भोग मिलने का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता। उसको इन अहैतुक कर्मों अर्थात् निष्काम कर्मों के लिए सुख की अपेक्षा इसलिये नहीं है क्योंकि वह सदा आनन्दस्वरूप वा आनन्द रस से भरपूर सत्ता है। वह हर पल व हर क्षण सर्वत्र आनन्द से परिपूर्ण वा युक्त रहता है। ऐसा है हमारा सृष्टिकर्ता व हमें कर्म-फल भोग कराने वाला सच्चिदानन्दस्वरूप एवं सबका कल्याण चाहने वाला ईश्वर। इसके द्वारा सृष्टि बनाने का एक कारण यह है कि वह बिना किसी की सहायता से सृष्टि बनाने, इसका पालन करने तथा इसकी प्रलय करने में समर्थ व दक्ष है।

ईश्वर का न तो कोई पिता है न माता। वह अनादि एवं नित्य सत्ता है। वह आदि एवं अन्त से रहित है। ईश्वर सदा से है इसलिये उसे सनातन कहते हैं। उसका अपना कोई ऐसा परिवार जैसा मनुष्यों का होता है, चाचा-चाची, ताऊ-तायी, मामा-मामी, मौसी-मौसा तथा बुआ-फूफा आदि संबंधी भी नहीं है। अतः उसे पुकारने वाले कोई हैं तो वह उसकी चेतन, अल्पज्ञ, ससीम, अनादि, नित्य व शाश्वत जीव रूपी प्रजायें है। यह सभी जीव उसके पुत्र व पुत्रियों के समान हैं। सन्तान यद्यपि भारतीय परम्परा में अपने माता-पिता को, अपने आचार्यों को उनका निज नाम लेकर नहीं पुकारते, संबंधसूचक शब्दों में जी जोड़कर पुकारते हैं परन्तु ईश्वर हमारा मित्र, बन्धु व सखा भी है। इस सम्बन्ध से हम उसको उसके निज नाम से पुकार सकते हैं। परमात्मा ने वेदों में स्वयं ही अपने निज एवं मुख्य नाम का प्रकाश किया है। ईश्वर का निज व मुख्य नाम ‘ओ३म्’ है। तीन अक्षरों के इस नाम में ईश्वर के अधिकांश व प्रायः पूर्ण सत्यस्वरूप का दिग्दर्शन हो जाता है। ऋषि दयानन्द ने अपने अतुलनीय पौरुष एवं तप से वेद शास्त्रों सहित समस्त वैदिक वांग्मय का अध्ययन किया था और ईश्वर का साक्षात्कार करने सहित वेदों के प्रायः सभी रहस्यों का ज्ञान भी प्राप्त किया था। उन्होंने सत्यार्थप्रकाश नामक ग्रन्थ की रचना की है। इस ग्रन्थ में उन्होंने प्रथम समुल्लास में ही ईश्वर के निज व मुख्य नाम सहित उसके गुण वाचक तथा सम्बन्धसूचक नामों की चर्चा व उल्लेख किया है। ऋषि दयानन्द के लेख से ईश्वर के मुख्य एवं निज नाम पर प्रकाश पड़ता है। हम सत्यार्थप्रकाश से ही इसे प्रस्तुत कर रहे हैं।

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ऋषि दयानन्द महाभारत के बाद वेदों के प्रमुख, महान एवं शीर्ष मर्मज्ञ विद्वान थे। उन्होंने ईश्वर के मुख्य एवं निज नाम पर प्रकाश डालते हुए लिखा है कि ‘ओ३म्’, यह ओंकार शब्द, परमेश्वर का सर्वोत्तम नाम है। परमेश्वर के इस नाम ओ३म् शब्द में अ, उ और म् यह तीन अक्षर मिलकर एक ओ३म् समुदाय हुआ है। इस एक ओ३म् नाम से परमेश्वर के बहुत नाम आते हैं। जैसे अकार से विराट्, अग्नि और विश्वादि। उकार से हिरण्यगर्भ, वायु और तैजसादि। मकार से ईश्वर, आदित्य और प्राज्ञादि नामों का वाचक और ग्राहक है। वेदादि सत्यशास्त्रों में ईश्वर का ऐसा ही स्पष्ट व्याख्यान किया है कि प्रकरणानुकूल यह सब नाम परमेश्वर ही के हैं।

संसार में अनेक मत-मतान्तर प्रचलित हैं। कुछ मत आस्तिक हैं और बौद्ध, जैन, चारवाक एवं माक्र्स मत आदि नास्तिक मत हैं। नास्तिक मतों से तो ईश्वर के मुख्य व निज नाम की चर्चा करना बनता ही नहीं है। आस्तिक मतों में ईश्वर के अनेक नाम हैं। इन सब नामों को या तो ऐतिहासिक पुरुषों के नामों से या रूढ़ नामों से स्मरण व कहा जा सकता है। कोई व्यक्ति यह दावा नहीं करता कि उनके मत में जो नाम हैं वही नाम ईश्वर के निज व मुख्य नाम हैं। अतः वैदिक धर्म ही इसकी चर्चा करता है। हमें लगता है कि महर्षि दयानन्द ने ही महाभारत के बाद प्रथम ईश्वर के निज व मुख्य नाम की चर्चा की और उस पर प्रकाश डाला है। इससे पूर्व व महाभारत के पश्चात कभी यह प्रश्न उत्पन्न ही नहीं हुआ। अतः यह सिद्ध है कि इस सृष्टि के रचयिता तथा पालक ईश्वर का मुख्य व निज नाम ओ३म् ही हैं। ईश्वर के अन्य सहस्रों नाम हैं जो उसके जीवात्माओं से सम्बन्धों एवं निज-गुणों व कर्मों आदि के आधार पर हैं।

ईश्वर का पता क्या है? इसका उत्तर है कि ईश्वर मनुष्यों की भांति एकदेशी नहीं है। जीवात्मा जब किसी मनुष्य आदि योनि में जन्म लेता है तो वह इस विश्व ब्रह्माण्ड में किसी एक स्थान पर होता है। अतः उसका उस स्थान का पता तथा लोकेशन होती है। हमारे प्रायः सभी आस्तिक मत-मतान्तरों ने ईश्वर को मनुष्य के समान मानकर उसको एकदेशी रूप में ही ग्रहण किया है। यदि उन्हें वेद ज्ञान यथार्थरूप में सुलभ होता तो वह नये मतों का प्रादुर्भाव न करते। तब यह न कहा जाता कि ईश्वर क्षीरसागर, पांचवे या सातवें आसमान अथवा किसी स्वर्ग विशेष आदि स्थान पर है। आज तक मतमतान्तरों में वर्णित ईश्वर के निवास के स्थानों की भौगोलिक स्थिति क्या है, इन मतों के मानने वाले बता नहीं पाये। इसके विपरीत वेद ईश्वर को सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, सर्व़त्र व सर्वज्ञ तथा कण-कण में व्याप्त मानता है। इसका अर्थ है कि ईश्वर इस समस्त ब्रह्माण्ड, आकाश एवं पाताल, सभी स्थानों पर समान रूप से व्यापक वा विद्यमान है। यही उसका पता है। उसका पता बताना हो तो उसे सर्वव्यापक कहकर सर्वत्र उपस्थित व उपलब्ध तथा प्राप्तव्य बताया जा सकता है। ईश्वर न केवल हमारे बाहर व भीतर विद्यमान है अपितु हमारी आत्माओं के भीतर भी व्यापक है। इसे ईश्वर का आत्मा में अन्तर्यामी होना कहते हैं। वह हमारे सभी कर्मो का साक्षी होता है। हम दिन में या अमावस्या की रात्रि के घोर अन्धकार में कोई भी पाप या पुण्य कर्म करें, प्रकाशस्वरूप ईश्वर हमारे उन सब कर्मों को साक्षी रूप में देखता व जानता है और उनका यथासमय हमें फल देता है। वेद हमें वेदविहित कर्मों को करने की प्रेरणा करते हैं और बताते हैं कि ऐसा करते हुए हमें सौ वर्ष जीने की इच्छा करनी चाहिये। ऐसा करने से मनुष्य कर्म में लिप्त नहीं होता। सद्कर्म करने व उनमें लिप्त न होने से वह कर्म हमें दुःखों से छुड़ा कर मुक्ति वा मोक्ष को प्राप्त कराते हैं। वेदों में ‘विद्याऽमृतश्नुते’ कहकर विद्या से अमृत तथा मोक्ष की प्राप्ति बतायी गयी है। अतः ईश्वर का पता यही है कि वह सर्वव्यापक है और घट-घट का वासी है। लेख समाप्ती से पूर्व यह भी बता दें कि ईश्वर के ओ३म् नाम का एक अर्थ ईश्वर का हमारा रक्षक होना है। इस नाम का जप करने से ईश्वर हमारी रक्षा करते हैं। संसार में ऐसे अनेक उदाहरण हैं जहां मनुष्य का बचना कठिन था परन्तु ईश्वर ने मनुष्य की रक्षा की वा जान बचाई। इसी भावना से युक्त आर्यसमाज के शीर्ष विद्वान एवं गीतकार पं. सत्यपाल पथिक जी ने एक भजन बनाया है। भजन है ‘डूबतो को बचा लेने वाले मेरी नैया है तेरे हवाले, लाख अपनो को मैंने पुकारा, सब के सब कर गये हैं किनारा, कोई और देता नहीं है दिखाई, अब तो बस तेरा ही है इक सहारा, कौन भंवरों से हमको निकाले, मेरी नैया है तेरे हवाले। डूबतों को बचा लेने वाले मेरी नैया है तेरे हवाले।‘ हम परमात्मा को अपने हृदय में स्थित आत्मा में उसके गुण, कर्म, स्वभावों सहित उसके अनन्त उपकारों का ध्यान करते हुए प्राप्त कर सकते हैं अर्थात् उसका साक्षात्कार कर सकते हैं। इसके लिए हमें उपासना विषयक ऋषि दयानन्द के वचनों सहित महर्षि पतंजलि जी के योग दर्शन का अध्ययन करना चाहिये। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

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