केदारनाथ द्वादश ज्योतिर्लिंग: स्वप्न में भी दुख दुर्लभ, है मुक्तिदाता
जो भी व्यक्ति भक्ति – भाव से केदारेश्वर का पूजन करता है, उसके लिए स्वप्न में भी दुख दुर्लभ है। जो भगवान शिव का प्रिय भक्त शिवलिंग के निकट शिव के रूप से अंकित कड़ा चढ़ाता है, वह भगवत दर्शन कर समस्त पापों से मुक्त हो जाता है। केदार तीर्थ में पहुंचकर, पूजा कर वहां का जल पी लेने के बाद मनुष्य का फिर जन्म नहीं होता। श्री केदारनाथजी द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक हैं। इनको केदारेश्वर भी कहा जाता है। यह केदार नामक पहाड़ पर स्थित है। सत्ययुग में उपमन्यु ने यहीं भगवान शंकर की आराधना की थी। द्वापर में पांडवों ने यहां तपस्या की। यह केदारनाथ क्षेत्र अनादि है। इस चोटी की पश्चिम दिशा में मंदाकिनी नदी इस मंदिर के पास बहती है। यह मंदिर समुद्र तट से लगभग 3585 मीटर ऊंचाई पर स्थित है। यहां बर्फ युक्त पर्वत अति सुंदर दिखलाई पड़ते हैं। यह हिंदुओं हेतु एक पवित्र तीर्थस्थल है और द्वादश ज्योतिर्लिंगों में पांचवा है।केदारनाथ द्बादश ज्योतिîलगों में से एक है। महिषरूप धारी शंकर के विभिन्न अंग पांच स्थानों पर प्रतिष्ठित हुए – जो पंचकेदार माने जाते हैं । प्रथम केदार केदारनाथ में पृष्ठ भाग , द्बितीय केदार मद्महेश्वर में नाभि , तृतीय केदार तुंगनाथ में बाहु , चतुर्थ केदार रुद्रनाथ में मुख , पंचम केदार कल्पेश्वर में जटा तथा पशुपति नाथ ( नेपाल ) में सिर माना जाता है ।
केदारनाथ मंदिर की कथा
पुराणों के अनुसार शिवजी, पांडवों से बहुत क्रोधित थे क्योंकि उन्होंने अपने ही कुल के प्राणियों का कुरुक्षेत्र युद्ध में संहार किया था। पांडवों को यह ज्ञात होते ही , वे शिवजी से आशीर्वाद लेने तथा पापमुक्त होने हेतु आतुर हो उठे। वे भगवान शिव का पीछा करने लगे, क्योंकि शिव उनसे मिलना नहीं चाहते थे, अतः भेष बदलकर हिमालय पलायन कर गए थे। भीम ने उनको पहचान लिया और उनको पकड़ने दौड़े, पर भगवान शिव उस स्थान पर जमीन में धंसने लगे। फिर भी भीम ने उनका कूबड़ पकड़ लिया था, जो शिव नहीं छुड़ा पाए। अतः वह उसी स्थान पर रह गया जो वर्तमान का ज्योतिर्लिंग बना। उनकी भक्ति देखकर शिवजी प्रसन्न हुए और उन्हें पाप से मुक्ति दिलवाई और वहीं पूजा – अर्चना करने का आदेश दिया। इस प्रकार केदारनाथ ज्योतिर्लिंग की उत्पत्ति हुई।
ओंकारेश्वर के तीर्थस्थल
मंदाकिनी के घाट पर पहाड़ी शैली का बना हुआ केदारनाथ मंदिर मुकुट जैसा प्रतीत होता है। शिवलिंग अनगढ़ टीले जैसा है। भीतर अंधकार है। दीपक से इसके दर्शन होते हैं। दर्शनार्थी दीपकों में घी डालते हैं। शिवलिंग के सम्मुख जल – पुष्प आदि चढ़ाए जाते हैं तथा दूसरी ओर भगवान के शरीर में घी लगाया जाता है। वहां मूर्ति चार हाथ लंबी तथा डेढ़ हाथ मोटी है। इस मंदिर का निर्माण पांडवों ने कराया था। इसकी ऊंचाई लगभग अस्सी फीट है, जो एक विशाल चौतरे पर निर्मित है। इसके निर्माण में भूरे रंग के पत्थरों का उपयोग किया गया है। सबसे बड़ी आश्चर्य की बात है कि प्राचीन काल में यांत्रिक साधनों के अभाव में ऐसे दुर्गम स्थल पर उन विशाल पत्थरों को लाकर कैसे स्थापित किया गया होगा।
यह भव्य मंदिर पांडवों की शिवभक्ति, उनकी दृढ़ इच्छाशक्ति तथा उनके बाहुबल का जीता जागता प्रमाण है। इस मंदिर में उत्तम प्रकार की कारीगरी की गई है। मंदिर के ऊपर स्तंभों के सहारे लकड़ी की छतरी निर्मित है, जिसके ऊपर तांबा मढ़ा गया है। मंदिर का शिखर भी तांबे का है, पर उस पर सोने की पालिश की गई है। इस प्रकार के अति सुंदर एवं भव्य मंदिर को देखकर तीर्थयात्री असीम आनंद की अनुभूति प्राप्त करते हैं और उन्हें ऐसा लगता है कि वे वास्तव में किसी देवभूमि में विचर रहे हैं। अब यहां कुछ निवास स्थान बन गए हैं, पर लगभग तीस – पैंतीस वर्ष पहले पंडों के यहां ही ठहरना पड़ता था और वे ही आपके खाने – पीने, बिस्तर आदि का प्रबंध करते थे और विधिपूर्वक मंदिर में पूजा करा कर आपको विदा करते थे। मंदिर के बाईं ओर कुछ दूर जाकर एक बड़ा मैदान दिखलाई पड़ता है, जिसके मध्य में अनेक छोटी – छोटी जल धाराएं बहती रहती हैं। पूरे मैदान में विभिन्न प्रकार के फूलों के छोटे – छोटे पौधे लगे हैं, जो पूरे मैदान को बहुरंगी कालीन की आकृति प्रदान करते हैं। इसके चारों ओर हरे – भरे पहाड़ों पर ट्रेकिंग का आनंद लिया जा सकता है।
आस – पास के अन्य तीर्थस्थल
मंदिर के आस – पास के दर्शनीय स्थल हैं……………….
1 अमृत कुंड: मुख्य मंदिर के पीछे एक छोटा कुंड है, जिसका जल रोगनाशक व अमृत गुणों से भरपूर माना जाता है।
2 ईशानेश्वर महादेव : मुख्य मंदिर के बाएं किनारे पर पीछे की ओर एक छोटा महादेव का दर्शनीय मंदिर है।
- भैरोनाथ मंदिर: मुख्य मंदिर से लगभग आधा किलोमीटर दूर पहाड़ी के मध्य एक भैरोंजी का छोटा मंदिर है। ऐसा माना जाता है कि जब मंदिर के कपाट बंद रहते हैं तो भैरों जी इसकी रक्षा करते हैं।
- वासुकी ताल: मंदिर के पीछे के पहाड़ पर चढाई करने पर एक विशाल झील दिखलाई पड़ती है जो वासुकी ताल है। इसी पहाड़ी पर ब्रह्म कमल नाम के पुष्प अगस्त – सितंबर में खिलते हैं।
- शंकराचार्य समाधि: मंदिर के ठीक पीछे एक छोटा मंदिर है, जो शंकराचार्य की समाधि है। ऐसा कहा जाता है कि चार धामों की स्थापना करने के पश्चात् बत्तीस वर्ष की आयु में ही यहां पर उन्होंने शरीर त्याग दिया था।
- गौरीकुंड : यह तीर्थस्थल, बस द्वारा पहुंचने का अंतिम पड़ाव है। यहां पर शिव – पावर्ती का मंदिर है, जिसमें दोनों की धातुओं की मूर्तियां हैं। इसी के पास गर्म जल का कुंड है, जो पवित्र तथा औषधीय गुणों से भरपूर है।
- सोन प्रयाग : गौरीकुंड से पहले इस स्थान पर भी बसों का पड़ाव है और यात्री यहां पर भी ठहरते हैं। यहां सोन गंगा और मंदाकिनी का संगम होता है।
8.त्रियुगी नारायण मंदिर : सोन प्रयाग से लगभग 14 किलोमीटर पैदल जाकर इस मंदिर पर पहुंचा जा सकता है। ऐसी मान्यता है कि यहां शिव व पार्वती का विवाह हुआ था।
आस – पास के तीर्थस्थल
1 गुप्त काशी : यह स्थान शिवजी के छिपने हेतु प्रसिद्ध है। यहीं पर काली गंगा के तट पर प्रसिद्ध कालीमत स्थित है। केदार के रास्ते में यह रुद्र प्रयाग के पश्चात पड़ता है।
- उखीमठ : गुप्त काशी से 14 किलोमीटर दूर एक प्राचीन मठ है, जिसमें भगवान केदार शीतऋतु में वास करते हैं। इस प्राचीन मंदिर में अनेक अन्य देवी – देवताओं की मूर्तियां स्थापित हैं।
- चोपता : उखीमठ से आगे 25 किलोमीटर पर एक सुंदर दर्शनीय स्थल है, जहां पर बर्फ से ढकी अनेक शृंखलाएं देखी जा सकती हैं। बर्फीली चोटियो के अतिरिक्त पहाड़ो पर सुंदर वन भी दर्शनीय है। यहाँ कोई मंदिर नही है।
पंचकेदार
- तुगनाथ मंदिर : चोपता से कुछ दूरी पर ही एक स्थान है, जहां से 5 किलोमीटर की खड़ी चढ़ाई चढ़ने पर पंचकेदार का तुंगनाथ मंदिर स्थित है, जहां शिव के नादिया रूप के बाहु व हृदय का आवास है। यह पातालगंगा नामक एक शीतल जलधारा है। तुंगनाथ शिखर पर पूर्व की ओर नंदा देवी, पंचचूली तथा द्रोणाचल शिखर दिखाई देते हैं। उत्तर की ओर गंगोत्री, यमुनोत्री केदारनाथ, चतुःस्तंभ, बदरीनाथ तथा रुद्रनाथ के शिखर दिखाई पड़ते हैं।
- मध्य महेश्वर : यहां पर शिव का मध्य भाग पूजा की दूर यानी नाभि की पूजा की जाती है। यह उखीमठ से 21 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है और गुप्त काशी के पास है। यहां टैक्सी व बसों से जाया जा सकता है।
3.रुद्रनाथ : यहां पर शिव के मुख की पूजा की जाती है। यह गोपेश्वर से 23 किलोमीटर दूर है और ऊंचाई अधिक ना होने पर भी चढ़ाई अत्यधिक कठिन है यहां पत्थरों द्वारा निर्मित एक कुटी ही है। जो रूद्रनाथ मंदिर कहलाती है।
इस मंदिर के पास अनेक कुंड हैं, जैसे सूर्य कुंड चंद्र कुंड, तारा कुंड, मनसा कुंड आदि। इसी मंदिर के ऊपर तीन किलोमीटर की चढ़ाई चढ़कर अनुसूया देवी का मंदिर स्थित है। इसी के पास से वैतरणी नदी का उद्गम हुआ है, जहां मृत्यु के पश्चात् पिंडदान आदि के कार्य किए जाते हैं।
- कल्पेश्वर : यहां पर बैल का सिर या जटाओं की पूजा की जाती है। इसके दूसरी ओर अलकनंदा नदी बहती है। यह उरगाम घाटी में स्थित है, जो संतों की तपस्या व साधना हेतु उत्तम स्थल है। यह भी कथा है कि संत दुर्वासा ने इसी स्थल पर ध्यान किया था और कल्पवृक्ष के नीचे अन्य संतों ने भी यहां तपस्या की थी।
- केदारनाथ : यह मुख्य स्थल जहां बैल के कूबड़ की पूजा होती है, पंच केदार का प्रथम स्थल है, जिसका वर्णन पहले ही किया जा चुका है।
यात्रा- ठहरने के स्थान
सोन प्रयाग व गौरीकुंड में ठहरने के अच्छे स्थान हैं। इसके अतिरिक्त यात्री रास्ते में रुकना चाहें तो हर जगह ठहरने हेतु पर्याप्त व्यवस्था है। वर्तमान में यात्री केदारनाथ मंदिर के पास यात्रीगृहों या होटलों में भी रुक सकते हैं। जाली ग्रांट हवाई अड्डा सबसे पास है, जहां से इसकी दूरी 250 किलोमीटर है। वहां से टैक्सी द्वारा अगस्तमुनि या फाटा पहुंचकर वहां से हेलीकॉप्टर द्वारा मंदिर तक जाया जा सकता है। अगस्तमुनि श्रीनगर व रुद्रप्रयाग के मध्य है, जबकि फाटा मुख्यमंदिर के काफी पास है। रेल सेवा हरिद्वार व ऋषिकेश तक जाती है। दिल्ली तथा उत्तर भारत के सभी मुख्य नगरों से हरिद्वार सीधा जुड़ा है। अन्य प्रांतों से भी हरिद्वार सीधा जुड़ा है। हरिद्वार से बस व टैक्सी द्वारा केदारनाथ जाया जाता है। केदारनाथ पहुंचने हेतु दो सड़क मार्ग हैं- एक कोटद्वार से बसें श्रीनगर, रुद्रप्रयाग होती हुई पहुंचती है, पर मार्ग अधिक लंबा है, अत : यात्री हरिद्वार से ही जाएं। दूसरा मार्ग हरिद्वार व ऋषिकेश होकर है, जहां से दूरी क्रमश : 254 व 230 किलोमीटर है। यहां से यात्री बस या टैक्सी द्वारा सोन प्रयाग या गौरीकुंड पहुंचते हैं। दोनों स्थानों पर यात्रियों के ठहरने की उत्तम व्यवस्था है। गौरीकुंड से यात्री पैदल, घोड़ों से, पालकी से या पिट्ठू से 14 किलोमीटर की यात्रा करके मुख्य मंदिर पहुंचते हैं। यात्री प्रात : चलकर 5 घंटे में पहुंच जाते हैं और दोपहर में दर्शन करके शाम तक गौरीकुंड या सोन प्रयाग वापस आ जाते हैं।
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