आदि शक्ति दुर्गा अनादि हैं, अनंत हैं, वही माया हैं, जिनके प्रभाव में सम्पूर्ण चराचर जगत है। उन आदि शक्ति भगवती दुर्गा की दस महाविद्याओं की उपासना कैसे की जाए? शास्त्रों में उनकी जिस महिमा का गान किया गया है, उसे संक्षिप्त में हम आपको बताने का प्रयास करेंगे। दस महाविद्याओं का संबंध परम्परात: सती, शिवा और पार्वती से है।
ये ही अन्यत्र नवदुर्गा, शक्ति, चामुण्डा, विष्णुप्रिया आदि नामों से पूजित और अर्चित होती हैं। दस महाविद्याएँ हैं, जिनके नाम हैं-काली,तारा, छिन्नमस्ता, धूमावती, बगलामुखी, कमला, त्रिपुरभैरवी, भुवनेश्वरी, त्रिपुरसुन्दरी और मातंगी। वैसे तो आदि शक्ति भगवती की अराधना के विविध मार्ग हैं, जिन पर चल कर भगवती की कृपा प्राप्त होती है। देवी, अप्सरा, डाकिनी, शाकिनी, पिशाचनी व यक्षिणी में से देवी का पूजन ही सर्वश्रेष्ठ है। देवी पूजन ही सर्वोपरि माना जाता है, क्योंकि यह सबसे सात्विक व धर्म का मार्ग है।
भगवान भोले शंकर शिव की अर्धांगिनी माता सती का दूसरा जन्म हिमालय राज की पुत्री पार्वती के रूप में हुआ था। इनके दो पुत्र हुए, गण्ोश व कार्तिकेय। धर्म शास्त्रों में नव दुर्गा को भी माता पार्वती का ही रूप माना जाता है। माता सती व पार्वती की पूजा को सनातन धर्म में सर्वोपति मानते हुए बहुत महत्ता दी गई है। उनके पूजन से जीव का कल्याण होता है। वह जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त होकर देवी की कृपा से मुक्ति को प्राप्त करता है। उसकी वह गति होती है, जो देवताओं के लिए दुर्लभ है। शास्त्रों में बताया गया है कि भगवती की दस महाविद्याओं में से किसी एक पूजन नित्य करने से जीव को उत्तम गति प्राप्त होती है। अकारण ही मानहानि, बीमारी, भूत-प्रेत, बुरी घटनाएं, गृह कलेश, बेरोजगारी आदि-आदि तमाम संकट भगवती की अराधना से दूर हो जाते हैं। भगवती की पूजा कल्प वृक्ष के समान फलदायी है और जीव का तत्काल की कल्याण करती है। जीव की मनोकामनाएं पूर्ण करती हैं और उसे उत्तम गति प्रदान करती है।
महाविद्याओं की उपसना
1-काली की उपासना-
काली देवी प्रमुख देवी मानी जाती हैं। उनका प्राकट्य आसुरी शक्तियों के सर्वनाश के लिए हुआ था। काली की व्यूत्पत्ति काल से हुई है। सुंदर व अचिंत्य रूप वाली दुर्गा भगवती का यह काली रूप भय प्रदान करने वाला है, लेकिन यह रूप दानवी प्रवृत्ति के जीवों को ही अपना ग्रास बनाता है। सात्विक प्रवृत्ति से भगवती काली का चिंतन व पूजन करने वालों को यह मोक्ष व सदगति प्रदान करती है। उनका कल्याण करती है। दस महाविद्याओं के काली प्रथम हैं। महादैत्यों का वध करने के लिए देवी ने यह भयप्रद रूप धरा है। सिद्धि प्राप्त करने के लिए माता की वीरभाव में पूजा की जाती है। वीर भाव पर हम आगे लेख में प्रकाश डालेंगे। तांत्रिक विद्या-साधना में काली को विशेष प्रधानता प्राप्त है। भव-बंधन-मोचन में काली की उपासना सर्वोत्कृष्ट कही जा सकती है। शक्ति-साधना के दो पीठों में काली की उपासना श्यामापीठ पर करने योग्य है। भक्तिमार्ग में तो सर्वथा किसी भी रूप में, किसी भी तरह उन महामाया की उपासना फलप्रदा हैं, पर साधना या सिद्घि के लिये इनकी उपासना वीरभाव से की जाती है। वीर साधक दुर्लभ होता है। जिनके मन से अहंता, माया, ममता और भेद-बुद्घि का नाश नहीं हुआ है, वे इनकी उपासना को करने में पूर्ण सफल नहीं हो सकते। साधना के द्वारा जब पूर्ण शिशुत्व का उदय हो जाता है, तब भगवती श्रीविग्रह साधक के सामने प्रकट हो जाता है, उस समय उनकी छवि अवर्णनीय होती है। कज्जल के पहाड़ के समान, दिग्वसना, मुक्तकुन्तका, शव पर आरूढ़, मुण्डमालाधारिणी भगवती का प्रत्यक्ष दर्शन साधक को कृतार्थ कर देता है। साधक के लिए कुछ भी शेष नहीं रह जाता। महाकाली की उपासना की पद्घतियां, तत्सम्बन्धी मंत्र और यंत्र, साधना, विधान, अधिकारी भेद और अन्य उपचारसंबंधी सामग्री महाकालसंहिता, कालीकुलक्रमार्चन, व्योमकेशसंहित, कालीतंत्र, कालिकार्णव, विश्वसारतंत्र, कालीयामल, कामेश्वरीतंत्र, शक्तिसंगम, शाक्तप्रमोद, दक्षिणकालीकल्प, श्यामारहस्य-जैसे ग्रन्थों में प्राप्त है। गुरुकृपा और जगदम्बा की कृपा अथवा पूर्वजन्मकृत साधनाओं के फलस्वरूप काली की उपासना में सफलता प्राप्त होती है।
काली की साधना यद्यपि दीक्षागम्य है, तथापि अनन्यशरणागति के द्वारा उनकी कृपा किसी को भी प्राप्त हो सकती है। मूर्ति, यंत्र अथवा गुरुद्वारा उपदिष्ट किसी आधार पर भक्ति भाव से मंत्र-जप, पूजा, होम और पुरश्चरण करने से काली प्रसन्न हो जाती हैं। काली की प्रसन्नता सम्पूर्ण अभीष्टïों की प्राप्ति है।
ध्यान
शवारूढां महाभीमां घोरदंष्टï्रां हसन्मुखीम।
चतुर्भुजां खड्गमुण्डवराभयकरां शिवाम।।
मुण्डमालाधरां देवीं ललज्जिह्वïां दिगम्बराम।
एवं संचिन्तयेत कालीं श्मशानालयवासिनीम॥
(शाक्त-प्रमोद कालीतंत्र)
काली की उपासना में भी सम्प्रदायगत भेद हैं। प्राय: दो रूपों में इनकी उपासना का प्रचलन है। श्मशानकाली की उपासना दीक्षागम्य है और इनकी साधना प्राय: किसी अनुभवी से पूछकर ही करनी चाहिए। काली के अनेक नाम-दक्षिणकाली, भद्रकाली, कामकलाकाली, श्मशानकाली, गुह्वकाली आदि तंत्रों में वर्णित हैं, पर इनमें सम्प्रदायगत भेद के रहते हुए भी तत्वत: एकता है। काली की उपासना का रहस्य भी विरले है और यह साधना भी प्राय: दुर्लभ साधना है। काली देवी ने देव- दानव युद्ध में देवताओ को विजय दिलायी थी, इनका क्रोध तभी शांत हुआ था, जब शिव इनके चरणों में लेट गए थे, माता का नाम : माता कालिका,शस्त्र : त्रिशूल और तलवार, वार : शुक्रवार, दिन : अमावस्या, ग्रंथ : कालिका पुराण, मंत्र : ॐ ह्रीं श्रीं क्रीं परमेश्वरि कालिके स्वाहा। दुर्गा का एक रूप : माता कालिका 10 महाविद्याओं में से एक हैं। मां काली के 4 रूप हैं: दक्षिणा काली, शमशान काली, मातृ काली और महाकाली।
राक्षस वध : रक्तबीज।
काली माता का मंत्र-
हकीक की माला से नौ माला ‘क्रीं ह्नीं ह्नुं दक्षिणे कालिके स्वाहा:।’ यह मंत्र का जाप कर सकते हैं। जाप के नियम किसी जानकार से पूछकर ही करना चाहिए।
2-तारा की उपासना-
भगवती का यह स्वरूप तारा भक्तों को भव सागर से तारने वाला है, इसलिए इन्हें तारा देवी कहते हैं। तांत्रिक इस भगवती की अराधना में लीन रहते है,इसलिए इन्हें तांत्रिकों की देवी भी माना जाता है। सर्व प्रथम वशिष्ठ मुनि से तारा देवी की अराधना की थी। भगवती तारा के तीन स्वरूप है। तारा, एकजटा और नील सरस्वती। तारा पीठ में देवी के नेत्र गिरे थ्ो, इन्हें नयन तारा भी कहा जाता है। यह पीठ पश्चिम बंगला के वीरभूम जिले में स्थित है। यह स्थान तारा पीठ के नाम से भी विख्यात है। पूर्व समय में महर्षि वशिष्ठ ने यहां सिद्धियां हासिल की थीं। तारा माता के बारे में एक अन्य प्रसंग भी है कि वे राजा दक्ष की दूसरी पुत्री थीं। तारा देवी का एक दूसरा मंदिर हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला से 13 किलोमीटर दूर स्थित शोघी में है। देवी तारा को समर्पित यह मंदिर तारा पर्वत पर बना हुआ है। चैत्र मास की नवमी तिथि व शुक्ल पक्ष के दिन तारा देवी की साधना करने सर्व सिद्धिकारक व दायक माना गया है। शत्रुनाश, वाक-शक्ति की प्राप्ति तथा भोग-मोक्ष की प्राप्ति के लिये तारा अथवा उग्रतारा की साधना की जाती है। कुछ विद्वानों ने तारा और काली में एकता भी प्रमाणित की है। रात्रि देवी स्वरूपा शक्ति तारा महाविद्याओं में अदभुत प्रभाव और सिद्घि की अधिष्ठïात्री देवी कही गयी हैं।
ध्यान
प्रत्यालीढपदर्पिताङ्घ्रिशवह्दघोराट्टïहासापरा
खड्गेन्दीवरकत्र्रिखर्परभुजाहुंकारबीजोद्भवा।
खर्वानीलविशालपिङ्गलजटाजूटैकनागैर्युता
जाड्यं न्यस्य कपालकर्तृजगतां हन्त्युग्रतारा स्वयम।।
तारा माता का मंत्र : नीले कांच की माला से बारह माला प्रतिदिन ‘ऊँ ह्नीं स्त्रीं हुम फट’ मंत्र का जाप कर सकते हैं। जाप के नियम किसी जानकार से पूछकर ही करें।
3-छिन्नमस्ता की उपासना-
छिन्नमस्ता या छिन्नमस्तिका या फिर प्रचंड चंडिका दस महाविद्याओं में से एक मानी गई हैं। छिन्नमस्तिका देवी के एक हाथ में कटा हुआ सिर है तो दूसरे हाथ में कटार है। आदि शक्ति अपने स्वरूप का वर्णन करते हुए स्वयं कहती है कि मैं छिन्न शीश आवश्य हूं, पर अन्न के आगमन के रूप सिर के सन्धान यानी सिर लगे रहने से यज्ञ के रूप में प्रतिष्ठित हूं। जब सिर सन्धान रूप अन्न का आगमन बंद हो जाएगा, तो उस समय छिन्नमस्ता ही रह जाऊंगी। इस महाविद्या का सम्बन्ध महाप्रलय से होता है, महा प्रलय का ज्ञान कराने वाली यह महाविद्या त्रिपुर सुंदरी का ही रौद्र रूप हैं। इस परिवर्तनशील जगत का अधिपति कबंध हैं। उसकी शक्ति छिन्नमस्ता मानी जाती हैं। शिव- शक्ति के विपरीत रति आलिंगन पर आप स्थित हैं। आपके कटे हुए स्कन्ध से रक्त की जो धाराएं निकलती हैं, उनमें से एक धारा को आप स्वयं पीती हैं, जबकि अन्य दो धाराओं से अपनी वर्णिनी व शाकिनी नाम की दो सहेलियों को तृप्त कर रही हैं।
भगवती का यह स्वरूप इडा, पिंगला और सुषमा इन तीन नाड़ियों का संधान कर योग मार्ग में सिद्धि को प्रशस्त करता हैं। विद्यात्रयी में यह दूसरी विद्या गिनी जाती हैं। पौराणिक हयग्रीवोपाख्यान में इन शक्ति का उल्लेख है। जिसमें गणपति वाहन मूषक की कृपा से धनुष प्रत्यंचा भंग हो जाने के कारण सोये हुए विष्णु के सिर के कट जाने का निरुपण है, इसी छिन्नमस्ता से सम्बद्ध है। छिन्नमस्ता देवी के गले में हड्डियों की माला और कंध्ो पर यज्ञोपवीत है। शांत भाव से भगवती छिन्नमस्ता की उपासना की जाए तो यह अपने शांत भाव को प्रकट करती हैं। उग्र रूप में उपासना करने पर यह उग्र रूप में दर्शन देती हैं। जिससे साधक के उच्चाटन का भय रहता है। दिशाएं ही इनके वस्त्र हैं। इनकी नाभि में योनि चक्र है।
भगवती छिन्नमस्ता का स्वरूप अत्यन्त गोपनीय और साधकों का प्रिय है। इसे अधिकारी ही प्राप्त कर सकता है। ऐसा विधान है कि आधी रात अर्थात चतुर्थ संध्याकाल में छिन्नमस्ता के मंत्र की साधना से साधक को सरस्वती सिद्घ हो जाती हैं। शत्रुविजय, समूह-स्तम्भन, राज्य-प्राप्ति और दुर्लभ मोक्ष-प्राप्ति के निमित्त छिन्नमस्ता की उपासना अमोघ है। छिन्नमस्ताका आध्यात्मिक स्वरूप अत्यन्त महत्वपूर्ण है। यों तो सभी शक्तियां विशिष्ट आध्यात्मिक तत्व-चिंतनों की संकेत हैं, पर छिन्नमस्ता नितान्त गुह्र तत्वबोध की प्रतीक हैं। छिन्न यज्ञशीर्ष की प्रतीक ये देवी श्वेतकमलपीठ पर खड़ी हैं। इनकी नाभि में योनिचक्र है। दिशाएँ ही इनके वस्त्र हैं। कृष्ण (तम) और रक्त (रज) गुणों की देवियाँ इनकी सहचरियाँ हैं। ये अपना शीश स्वयं काटकर भी जीवित हैं। जिससे इनमें अपने में पूर्ण अन्तर्मुखी साधना का संकेत मिलता है।
ध्यान
प्रत्यालीढपदां सदैव दधतीं छिन्नं शिर: कर्तिकां
दिग्वस्त्रां स्वकबन्धशोणितसुधाधारां पिबन्तीं मुद्रा।
नागबद्घशिरोमणिं त्रिनयनां ह्द्युत्पलालंकृतां
रत्यासक्तमनोभवोपरिदृढां ध्यायेज्जवासंनिभाम।।
देवी छिन्न मस्ता की साधना दीपावली से शुरू करनी चाहिए। चूंकि माता का यह स्वरूप अत्यन्त ही गोपनीय है, इसलिए चतुर्थ संध्याकाल में माता छिन्नमस्ता की उपासना से साधक को भगवती देवी सरस्वती की सिद्धि प्राप्त होती है। कृष्ण व रक्त गुणों की देवियां इनकी सहचरी हैं। पलास व बेलपत्रों से देवी छिन्नमस्ता महाविद्या की सिद्धि की जाती है।
छिन्नमस्ता का मंत्र-
रूद्राक्ष माला से दस माला प्रतिदिन ‘श्रीं ह्नीं ऎं वज्र वैरोचानियै ह्नीं फट स्वाहा’ मंत्र का जाप कर सकते हैं। जाप के नियम किसी जानकार से पूछकर ही कीजिये।
झारखंड की राजधानी रांची से लगभग अस्सी किलोमीटर की दूरी पर रजरप्पा के भ्ौरवी भ्ोड़ा व दामोदर नदी के संगम पर स्थित छिन्नमस्तिका का मंदिर है। रजरप्पा की छिन्नमस्ता को 52 शक्तिपीठों में शुमार किया जाता है।
4- षोडशी देवी की उपासना-
षोडशी माहेश्वरी शक्ति की विग्रह वाली शक्ति है। इन्हें ललिता, राज राजेश्वरी व त्रिपुर सुंदरी में कहा जाता है। इनमें षोडस कलाएं पूर्ण हैं। इन्हें षोडशी के नाम से भी जाना जाता है। भारत के त्रिपुरा राज्य में त्रिपुर सुंदरी की शक्तिपीठ है। मान्यता है कि यहां शक्ति के वस्त्र गिरे थ्ो। महाविद्या समुदाय में त्रिपुरा नाम की अनेक देवियां है, जिनमें त्रिपुर भ्ौरवी, त्रिपुरा और त्रिपुर सुंदरी विश्ोष तौर पर उल्लेखित हैं। षोडशी माहेश्वरी शक्ति की सबसे मनोहर श्रीविग्रहवाली सिद्घ विद्या देवी हैं। १६ अक्षरों के मंत्रवाली उन देवी की अंगकान्ति उदीयमान सूर्य मण्डल की आभा की भांति है। उनके चार भुजाएँ एवं तीन नेत्र हैं। शान्त मुद्रा में लेटे हुए सदाशिव पर स्थित कमल के आसन पर विराजिता षोडशी देवी के चारों हाथों में पाश, अंकुश, धनुष और बाण सुशोभित हैं। वर देने के लिए सदा-सर्वदा उद्यत उन भगवती का श्रीविग्रह सौम्य और ह्दय दया से आपूरित है। जो उनका आश्रय ग्रहण कर लेते हैं, उनमें और ईश्वर में कोई भेद नहीं रह जाता। वस्तुत: उनकी महिमा अवर्णनीय है। संसार के समस्त मंत्र-तंत्र उनकी आराधना करते हैं। वेद भी उनका वर्णन नहीं कर पाते। भक्तों को वे प्रसन्न होकर क्या नहीं दे देतीं। अभीष्ट तो सीमित अर्थवाच्य शब्द हैं, वस्तुत: उनकी कृपा का एक कण भी अभीष्ट से अधिक प्रदान करने में समर्थ है।
ध्यान
बालार्कमण्डलाभासां चतुर्बाहुं त्रिलोचनाम।
पाशङ्कशशरांश्चापं धारयंतीं शिवां भजे।।
त्रिपुर सुंदरी माता का मंत्र-
रूद्राक्ष माला से दस माला ‘ऐ ह्नीं श्रीं त्रिपुर सुंदरीयै नम:’ मंत्र का जाप कर सकते हैं। जाप के नियम किसी जानकार से पूछकर ही करना चाहिये।
5-भुवनेश्वरी देवी की उपासना-
पुत्र प्राप्ति के लिए भक्त भगवती भुवनेश्वरी की शरण में जाते हैं। भुवनेश्वरी को आदि शक्ति और मूल प्रकृति कहा जाता है। भुवनेश्वरी ही शताक्षी व शाकम्भरी के नाम से भी प्रसिद्ध हैं। संसार में ऐश्वर्य की स्वामिनी हैं भुवनेश्वरी देवी । वास्तव में ऐश्वर्य-ईश्वरीय गुण है, जोकि आंतरिक आनंद के रूप में उपलब्ध होता है। देवी भागवत में वर्णित मणिद्वीप की अधिष्ठïात्री देवी हल्लेखा (ह्रïीं) मंत्र की स्वरूपा शक्ति और सृष्टिïक्रम में महालक्ष्मी स्वरूपा-आदिशक्ति भगवती भुवनेश्वरी शिव के समस्त लीला-विलास की सहचरी और निखिल प्रपञ्चों की आदि-कारण, सबकी शक्ति और सबको नाना प्रकार से पोषण प्रदान करने वाली हैं। जगदम्बा भुवनेश्वरी का स्वरूप सौम्य और अङ्गकान्ति अरुण है। भक्तों को अभय एवं समस्त सिद्घियाँ प्रदान करना उनका स्वाभाविक गुण है। शास्त्रों में इनकी अपार महिमा बतायी गयी है।
देवी का स्वरूप (ह्रïीं) इस बीज मंत्र में सर्वदा विद्यमान है, जिसे देवी भागवत में देवी का (प्रणव) कहा गया है। शास्त्रों में कहा गया कि इस बीजमंत्र के जप का पुरश्चरण कराने वाला और यथाविधि होम, ब्राह्मण-भोजन कराने वाला भक्तिमान साधक साक्षात प्रभु के समान हो जाता है।
ध्यान
उद्यद्दिनद्युतिमिन्दुकिरीटां तुन्गकुचां नयनत्रययुक्ताम।
स्मेरमुखीं वरदान्कुशपाशाभीतिकरां प्रभजे भुवनेशीम।।
भुवनेश्वरी माता का मंत्र
स्फटिक की माला से ग्यारह माला प्रतिदिन ‘ह्नीं भुवनेश्वरीयै ह्नीं नम:’ मंत्र का जाप कर सकते हैं। जाप के नियम किसी जानकार से पूछें।
6-त्रिपुरभैरवी की उपासना-
त्रिपुर भैरवी की उपासना जीव को मनोवांछित फल प्राप्त होता है। इनकी अराधना से जीव सभी बंधनों से मुक्त हो जाता है। यह बंदीछोड़ माता है। भैरवी के नाना तरह के भेद बताए हैं , त्रिपुरा भैरवी, चैतन्य भैरवी, सिद्ध भैरवी, भुवनेश्वर भैरवी, संपदाप्रद भैरवी, कमलेश्वरी भैरवी, कौलेश्वर भैरवी, कामेश्वरी भैरवी, नित्याभैरवी, रुद्रभैरवी, भद्र भैरवी और षटकुटा भैरवी आदि हैं। त्रिपुरा भैरवी ऊर्ध्वान्वय की देवता हैं।
नारद-पान्चरात्र में बताया गया है कि एक बार जब देवी काली के मन में आया कि वह पुन: अपना गौर वर्ण प्राप्त कर लें तो यह सोचकर देवी अन्तर्धान हो जाती हैं। भगवान शिव जब देवी को को अपने समक्ष नहीं पाते तो व्याकुल हो जाते हैं और उन्हें ढूंढने का प्रयास करते हैं। शिवजी, महर्षि नारदजी से देवी के विषय में पूछते हैं तब नारदजी उन्हें देवी का बोध कराते हैं, वह कहते हैं कि शक्ति के दर्शन आपको सुमेरु के उत्तर में हो सकते हैं। वहीं देवी की प्रत्यक्ष उपस्थित होने की बात संभव हो सकेगी। तब भोले शिवजी की आज्ञानुसार नारदजी देवी को खोजने के लिए वहां जाते हैं। महर्षि नारदजी जब वहां पहुंचते हैं तो देवी से शिवजी के साथ विवाह का प्रस्ताव रखते हैं यह प्रस्ताव सुनकर देवी क्रुद्ध हो जाती हैं और उनकी देह से एक अन्य षोडशी विग्रह प्रकट होता है और इस प्रकार उससे छाया विग्रह ‘त्रिपुर-भैरवी’ का प्राकट्य होता है। इन्द्रियों पर विजय और सर्वत: उत्कर्ष की प्राप्ति-हेतु त्रिपुरभैरवी की उपासना का विधान शास्त्रों में कहा गया है। त्रिपुरभैरवी की महिमा का वर्णन करते हुए शास्त्र कहते हैं-
वारमेकं पठन्मर्त्यो मुच्यते सर्वसन्कटात।
किमन्यद बहुना देवि सर्वाभीष्टफलं लभेत।
ध्यान
उद्यद्भानुसहस्त्रकान्तिमरुणक्षौमां शिरोमालिकां
रक्तालिप्तपयोधरां जपवटीं विषमभीतिं वरम।
हस्ताब्जैर्दधतीं त्रिनेत्रविलसद्वक्त्रारविन्दश्रियं
देवीं बद्घहिमाशुरत्रमुकुटां वन्देरविन्दस्थिताम।।
त्रिपुर भैरवी का मंत्र-
मुंगे की माला से पंद्रह माला ‘ह्नीं भैरवी क्लौं ह्नीं स्वाहा:’ मंत्र का जाप कर सकते हैं। जप के नियम किसी जानकार से पूछिये।
7-धूमावती की उपासना-
पुत्र-लाभ, धन-रक्षा और शत्रु-विजय के लिये धूमावती की साधना-उपासना का विधान है। विरूपा और भयानक आकृतिवाली होती हुई भी धूमावती शक्ति अपने भक्तों के कल्याण हेतु सदा तत्पर रहती हैं। कल्याण स्वरूपा हैं।
ध्यान
विवर्णा चञ्चला दुष्टïा दीर्घा च मलिनाम्बरा।
विमुक्तकुन्तला रुद्रा विधवा विरलद्विजा।।
काकध्वजरथारूढा विलम्बितपयोधरा।
शूर्पहस्तातिरुक्षा च धूतहस्ता वरानना।।
प्रवृद्घषोषणा सा तु भृकुटिकुटिलेक्षणा।
क्षुप्तिपासार्दिता नित्यं भयदा कलहास्पदा।।
धूमावती देवी को कोई स्वामी नहीं है। यह विधवा स्वरूप मानी गई हैं। मां धूमावती महादेवी स्वयं नियंत्रिका हैं। ऋग्वेद के रात्रिसूक्त में इन्हें सुतरा कहा गया है। आशय यह है कि यह सुख से तारने योग्य हैं। इन्हें अभाव और संकट दूर करने वाली मां कहा गया है। माना जाता है कि धूमावती माता पार्वती का ही एक रूप है। एक समय में उन्हें भूख लगी तो उन्होंने भगवान शंकर से कुछ खाने के लिए मांगा। इस पर महादेव जी ने उन्हें कुछ ठहरने के लिए कहा, लेकिन माता पार्वती क्षुधा से आतुर होकर महादेव जी को ही निगल गईं। महादेव जी को निगलने पर माता पार्वती को बहुत कष्ट हुआ। इस महाविद्या की सिद्धि के लिए तिल मिश्रित घी से होम किया जाता है। धूमावती महाविद्या के लिए यह आवश्यक है, कि साधक सात्विक होते हुए धर्मनिष्ट हो और शराब- मांस के व्यसनों से दूर रहे।
धूमावती का मंत्र-
मोती की माला से नौ माला ‘ऊँ धूं धूं धूमावती देव्यै स्वाहा:’ मंत्र का जाप कर सकते हैं। जप के नियम किसी जानकार से पूछना चाहिये, श्रेयस्कर होगा।
8-बगलामुखी की उपासना-
बगलामुखी माता दस महाविद्याओं मंे आठवीं महाविद्या हैं। ये स्तम्भन की देवी हैं। इन्हें माता पीताम्बरा भी कहते हैं। शत्रुनाश, वॉक सिद्धि व वाद-विवाद में विजय के लिए इनकी अराधना की जाती है। इनकी उपासना से शत्रुओं का स्तम्भन होता है। साधारण कार्य की सिद्धि के बगलामुखी के मंत्र का दस हजार और असधारण कार्य की सिद्धि के लिए बगलामुखी मंत्र का एक लाख की संख्या में जप करना चाहिए। बगलामुखी मंत्र से पूर्व बगलामुखी कवच का पाठ आवश्य करना चाहिए। समस्त ब्रह्मांड की शक्तियां भी मिलकर इनका मुकाबला नहीं कर सकती है। बगलामुखी माता का स्वरूप नवयौवना का है। यह पीत रंग की साड़ी धारण करती हैं। सोने के सिंघासन पर विराजमान होती है। इनके तीन नेत्र और चार भुजाएं हैं। सिर पर स्वर्ण मुकुट शोभा पाता हैं। स्वर्ण के आभूषणों से वह अंलकृत होकर सिंघासन पर विराजमान हैं। स्वर्ण के समान उनकी कांति है और रंग गोरा है। चेहरे पर अनुपम मुस्कान हमेशा ही छायी रहती है। महाभारत के युद्ध से पूर्व भगवान श्री कृष्ण व अर्जुन ने माता बगलामुखी का अर्चन किया था। वैदिक काल में सप्तऋषियों ने इनकी समय-समय पर अराधना की है।
पीताम्बरा विद्या के नाम से विख्यात बगलामुखी की साधना प्राय: शत्रुभय से मुक्त होने और वाकसिद्घि के लिये की जाती है। बगला का प्रयोग सावधानी की अपेक्षा रखता है। स्तम्भन-शक्ति के रूप में इनका विनियोग शास्त्रों में वर्णित है। बगला स्त्रोत्र, बगलाह्दय, मंत्र, यंत्र आदि अनेक रूपों में इन महादेवी की साधना लोकविश्रुत है। बगला की उपासना में पीत वस्त्र, हरिद्रा-माला, पीत आसन और पीत पुष्पों का विधान है।
ध्यान
जिह्वïाग्रमादाय करेण देवीं
वामेन शत्रून परिपीडयन्तीम।
गदाभिघातेन च दक्षिणेन
पीताम्बराढ्यां द्विभुजां नमामि॥
बगलामुखी का मंत्र-
हल्दी या पीले कांच की माला से आठ माला ‘ऊँ ह्नीं बगुलामुखी देव्यै ह्नीं ओम नम:’ दूसरा मंत्र- ‘ह्मीं बगलामुखी सर्व दुष्टानां वाचं मुखं पदं स्तम्भय जिह्वां कीलम बुद्धिं विनाशय ह्मीं ॐ स्वाहा।’ मंत्र का जप कर सकते हैं। जप के नियम किसी जानकार से पूछना चाहिये, श्रेयस्कर होगा।
9-मातंगी-
मातंगी मातंग मुनि की कन्या कही गयी हैं। वस्तुत: वाणी-विलास की सिद्घि प्रदान करने में इनका कोई विकल्प नहीं। चाण्डाल रूप को प्राप्त शिव की प्रिया होने के कारण इन्हें चाण्डाली या उच्छिष्ट चाण्डाली भी कहा गया है। गृहस्थ-जीवन को सुखी बनाने, पुरुषार्थ-सिद्घि और वाग्विलास में पारङ्गत होने के लिए मातंगी-साधना श्रेयस्करी है। इनका ध्यान इस प्रकार है-
ध्यान
माणिक्यवीणामुपलालयन्तीं
मदालसां मञ्चुलवाग्विलासाम।
महेन्द्रनीलाद्युतिकोमालाङ्गïीं
मतङ्गकन्यां मनसा स्मरामि॥
अक्षय तृतीया यानी बैशाख शुक्ल की तृतीया को इनकी जयंती है। यह श्याम वर्ण है और चंद्रमा को सिर पर धारण करती हैं। यह पूर्णतय वाग्देवी की पूर्ति हैं। चार भुजाएं और चार वेद हैं। माता मातंकी वैदिकों की सरस्वती हैं। पलास व मल्लिका पुष्पों से युक्त बेलपत्रों की पूजा करने से व्यक्ति के अंदर आकर्षण और स्तम्भव शक्ति का विकास होता है। वशीकरण में यह विद्या अति कारगर है। जो व्यक्ति मातंकी महाविद्या की सिद्धि करता है, वह ख्ोल और संगीत में प्रवीण हो जाता है।
मातंगी माता का मंत्र-
स्फटिक की माला से बारह माला ‘ऊँ ह्नीं ऐ भगवती मतंगेश्वरी श्रीं स्वाहा:’ मंत्र का जाप कर सकते हैं। जप के नियम किसी जानकार से पूछना चाहिये, श्रेयस्कर होगा।
10- कमला-
कमला वैष्णवी शक्ति हैं। महाविष्णु की लीला-विलास-सहचरी कमला की उपासना वास्तव में जगदाधार शक्ति की उपासना है। इनकी कृपा के अभाव में जीव में सम्पत-शक्ति का अभाव हो जाता है। मानव, दानव और दैव-सभी इनकी कृपा के बिना पंगु हैं। विश्वम्भर की इन आदिशक्ति की उपासना आगम-निगम दोनों में समान रूप से प्रचलित है। भगवती कमला दस महाविद्याओं में एक हैं। जो क्रम-परम्परा मिलती है, उसमें इनका ध्यान दसवाँ है। (अर्थात इनमें-इनकी महिमा में प्रवेश कर जीव पूर्ण और कृतार्थ हो जाता है) सभी देवता, राक्षस, मनुष्य, सिद्घ, गन्धर्व इनकी कृपा के प्रसाद के लिये लालयित रहते हैं। ये परमवैष्णवी, सात्विक और शुद्घाचारा, विचार-धर्मचेतना और भक्त्यैकगम्या हैं। इनका आसन कमल पर है। इनका ध्यान इस प्रकार है-
ध्यान
कान्त्या काञ्चनसंनिभां हिमगिरिप्रख्यैश्चतुर्भिगजै-
र्हस्तोत्क्षिप्तहिरण्मयामृतघटैरासिच्यामानां श्रियम।
विभ्राणां वरमब्जयुग्ममभयं हस्तै: किरीटोज्जवलां
क्षौमाबद्घनितम्बबिम्बललितां वन्देरविन्दस्थिताम॥
महाविद्याओं का स्वरूप वास्तव में एक ही आद्याशक्ति के विभिन्न स्वरूपों का विस्तार है। भगवती अपने सम्पूर्ण ऐश्वर्य और माधुर्य में विष और अविद्या दोनों हैं-विद्याहमविद्याहम (देव्यथर्वशीर्ष)। पर विद्याओं के रूप में उनकी उपासना का तात्पर्य शुद्घ विद्या की उपासना है। विद्या मुक्ति की हेतु है। अत: पारमार्थिक स्तर पर विद्याओं की उपासना का आशय अन्तत: मोक्ष की साधना है। इससे विजय, ऐश्वर्य, धन-धान्य, पुत्र और अन्यान्य कीर्ति आदि अवाप्त होती है। सन्दर्भ में आये शत्रुनाश आदि का तात्पर्य आध्यात्मिक स्तर पर काम, क्रोधादिक शत्रुओं से है और आत्मोत्कर्ष चाहने वाले को यही अर्थ ग्रहण करना चाहिए।
दस महाविद्याओं का अंकगणित वेद-शास्त्रों की संख्या दस के अंक की प्रधानता की ही ओर संकेत करता है। यजुर्वेद (16।64-66)-में ‘तेभ्यो दश प्राचीर्दश दक्षिणा दश प्रतीचीर्दशोदीचीर्दशोध्र्वा:।’ आदि प्रयोग मिलते हैं। यों भी अंक 9 हैं, दसवाँ तो पूर्णता अर्थात सबके बाद शून्य का पर्याय है। शून्य का एक होना पुन: उनका शून्य हो जाना पूर्ण से पूर्ण और पुन: पूर्ण होने की अध्यात्मिक यात्रा है। इस विषय में गुरू की कृपा ही रहस्य को स्पष्ट कर सकती है। आदिगुरु भगवान शंकर के चरणों का आश्रय ग्रहणकर इन विद्याओं की साधना में अग्रसर होना चाहिए।
लक्ष्मी देवी जगत के पालनहार भगवान विष्णु की पत्नी हैं। धन, सम्पदा और समृद्धि प्रदान करने वाली देवी हैं। दिवाली के पावन पर्व पर उनके साथ ही गण्ोश जी की अराधना का विधान है। गायत्री देवी के कृपा से मिलने वाले वरदानों में से एक लक्ष्मी कृपा भी है। माता महालक्ष्मी के अनेकों रूप हैं, जिन्हें अष्टलक्ष्मी कहते हैं। लक्ष्मी जी का अभिष्ोक दो हाथी करते हैं। वह कमल के आसन पर विराजमान है और कमल कोमलता का प्रतीक है। माता लक्ष्मी के चार भुजाएं हैं। उनका एक मुंह है। वे एक लक्ष्य और चार प्रकृतियों के प्रतीक है। चार प्रकृति का आशय है कि दूरदर्शिता, दृढ़संकल्प, श्रमशीलता व व्यवस्था शक्ति। दो हाथों में कमल सौदर्य व प्रमाणिकता का प्रतीक है। दान मुद्रा से उदारता और आर्शीवाद मुद्रा से अभय का अनुग्रह का बोध होता है। वाहन उल्लू है, जो कि निर्भीकता और रात्रि में देखने की क्षमता का प्रतीक है। कोमलता और सुंदरता सुव्यवस्था में ही सन्निहित होती है। कला भी इसी सत्प्रवृत्ति को ही कहते हैं। लक्ष्मी का एक नाम कमल भी है, संक्ष्ोप में इन्हें कला भी कहते हैं।
जगत के पालनहार भगवान विष्णु की पत्नी भगवती लक्ष्मी का जल-अभिषेक करने वाले दो गजराजों को परिश्रम और मनोयोग कहते हैं। उनका लक्ष्मी के साथ अविच्छिन्न संबंध है। यह युग्म जहां भी रहेगा, वहां वैभव की, श्रेय-सहयोग की कमी रहेगी ही नहीं,यह अक्षरत: सत्य और प्रमाणिक है। प्रतिभा के धनी पर सम्पन्नता और सफलता की वर्षा होती है और उन्हें उत्कर्ष के अवसर पग-पग पर उपलब्ध होते हैं।
गायत्री के तत्त्वदशर्न और साधन क्रम की एक धारा लक्ष्मी है। इसका शिक्षण यह है कि अपने में उस कुशलता की, क्षमता की वृद्धि की जाए, तो कहीं भी रहो, लक्ष्मी के अनुग्रह और अनुदान की कमी नहीं रहेगी। उसके अतिरिक्त गायत्री उपासना की एक धारा ‘श्री’ साधना है। उसके विधान अपनाने पर चेतना-केन्द्र में प्रसुप्त पड़ी हुई वे क्षमताएँ जागृत होती हैं, जिनके चुम्बकत्व से खिचता हुआ धन-वैभव उपयुक्त मात्रा में सहज ही एकत्रित होता रहता है। एकत्रित होने पर बुद्धि की देवी सरस्वती उसे संचित नहीं रहने देती, अपितु परमार्थ प्रयोजनों में उसके सदुपयोग की प्रेरणा देती है।
कमला माता का मंत्र-
कमलगट्टे की माला से रोजाना दस माला ‘हसौ: जगत प्रसुत्तयै स्वाहा:।’ मंत्र का जाप कर सकते हैं। जाप के नियम किसी जानकार से पूछना चाहिये, श्रेयस्कर होगा।