वस्तुओं से ममत्व का परित्याग आकिंचन्य धर्म है

0
665

वस्तुओं से ममत्व का परित्याग आकिंचन्य धर्म है
 -डॉ. महेन्द्रकुमार जैन ‘मनुज’, इन्दौर,

यह मेरा है, इस प्रकार के अभिप्राय की निवृति, इस ममत्व से बाहर निकलने का नाम आकिंचन्य धर्म है। यह मेरा है इस प्रकार की ममत्व बुद्धि परिग्रह है। मूर्च्छा परिग्रह है और यह मूर्च्छा ममत्व का परिणाम है। आकिंचन्य यानि ममत्व का परित्याग करना है। मैं और मेरा का त्याग करना ही आकिंचन्य धर्म है। परिग्रह का परित्याग कर परिणामों को आत्मकेंद्रित करना ही आकिंचन धर्म माना गया है। आकिंचन्य का अर्थ होता है कि मेरा कुछ भी नहीं है। अपने उपकरणों एवं शरीर से भी निर्ममत्व होना ही उत्तम आकिंचन्य धर्म है। बाह्य और अंतरंग परिग्रह का पूर्ण त्याग होने पर आत्मा का अकिंचन होना आकिंचन्य धर्म है। आकिंचन्य का अर्थ अकेला होना है। किंचित् मात्र भी मेरा नहीं ऐसी धारणा बन जाने पर यथार्थ त्याग और आकिंचन्य धर्म होता है।

Advertisment

परिग्रह ग्रहस्थ और त्यागियों दोनों को छोड़ने को कहा गया है। परिग्रह भी दो प्रकार का है। बाह्य परिग्रह और अंतरंग परिग्रह। बाह्य परिग्रह दस प्रकार हा है-खेत। मकान। धन- हाथी घोडे़, गाय आदि। धान्य- अनाज आदि। दासी। दास। वस्त्र। और वर्तन आदि इस सब का परिमाण अर्थात् इतना रखूंगा इससे अधिक नहीं रखूंगा यह नियम लेकर रखना, ये ग्रहस्थ के लिए अणुव्रत के रूप में कहा गया है।

त्यागी-साधु के तो उपरोक्त सभी पहले से ही छूटे हुए हैं, उनके तो तन पर कपड़े तक नहीं हैं तो उनके लिए अन्तरंग परिग्रह कहे गये हैं। वे 14 प्रकार के हैं- 1. मिथ्यात्व, 2. वेद, 3. राग, 4. द्वेष, 5. क्रोध, 6. मान, 7. माया, 8. लोभ, 9. हास्य, 10. रति, 11 अरति, 12. शोक, 13. भय और 14. जुगुप्सा। इनसे त्यागी-मुनि दूर रहते हैं।
त्यागी में यदि थोड़ी सी भी परिग्रह के प्रति आसक्ति आ जाती है तो विकराल रूप ले लेती है। एक उदाहरण आता है। एक नागा साधु बाहर कुटिया में साधु रहते थे। भक्तों को उनके नग्न रहने पर सर्मिन्दगी महसूस होती थी सो उन्होंने बहुत अनुनय विनय करके दो लंगोट लाकर दे दिये। एक पहना दी दूसरी धोकर सुखा दी। दूसरे दिन देखा सूखने टंगी लंगोटी को चूहों ने काट दिया, चूहा भगाने के लिए भक्त ने बिल्ली पाल दी, बिल्ली को दूध पिलाने कि लिए गाय खरीद दी, गाय को भूसा आदि के लिए खेती करनी पड़ी, खेती के लिए बैल और हल लाये बाबाजी खेती करते हल चलाते। एक बार सूखा पड़ गया, खेतों में कुछ नहीं हुआ, लगान नहीं भर पाने के कारण उन्हें जेल जाना पड़ा। उन्होंने कहा में नागा ही भला था। केवल एक लंगोटी की चाह के कारण इतने बड़े जंजाल में फंस गया।

यह मेरा है ये ममत्व बुद्धि ही मूर्छा का कारण है। हृदयाघात के दो ही कारण होते हैं- राग या द्वेष, हर्ष या विषाद। बहुत ज्यादा खुसी मिलती है तो व्यक्ति वह सहन नहीं कर पाता और उसको हृदयाघात हो जाता है। बहुत पहले एक घटना घटी थी। एक बैंक का कैशियर जिसके हाथों से प्रतिदिन करोड़ों रूपये निकलते थे, उसे खबर मिली उसकी पाँच लाख की लाटरी खुल गई। अभी उसे केवल सूचना मिली थी, वह इतना खुश हो गया कि उसे हृदयाघात हो गया और उसका देहान्त हो गया। क्योंकि उन रुपयों में उसकी ममत्वबुद्धि आ गई थी। बैंक के पैसो से उसे कोई ममत्व नहीं था।

बहुत अधिक विषाद दुख का प्रकरण सामने आ जाने पर भीे हृदयाधात होता है। अचानक किसी अत्यन्त प्रिय का देहान्त हो जाना, व्यवसाय में बहुत ज्यादा घाटा आ जाना आदि के कारण हृदयाघात हो जाता है। यह सब ममत्वबुद्धि मूर्च्छा के ही दुष्परिणाम हैं। इसी तरह का एक उदाहरण मुनि श्री प्रमाणसागर जी ने बताया था। एक व्यक्ति के एक करोड़ रुपए की लॉटरी खुल गई, वो रिक्शा चालक था। उसकी धर्मपत्नी ने सोचा कि अचानक इतनी बड़ी खुशी बर्दाश्त कर पाए या ना कर पाए, कोई पता नहीं और  कहीं ऐसा ना हो कि एक करोड़ की लॉटरी का समाचार सुनकर के इनको कुछ हो जाए, कोई तकलीफ हो जाए तो वो अपने एक गुरु के पास गई। एक पंडित थे, जिसे वह अपना गुरु मानती थी तो उसके पास गई, बोले, आप हमारे पति को समझाइए, एक करोड़ की लॉटरी निकली हैं ताकि इनको कुछ रास्ता मिले। वो गये सत्संग में और एकांत में बुलाया, बताओ, तुम्हारे अगर 10000 की लॉटरी खुल जाए तो क्या करोगे, वो आदमी बोला, 5000 आपको दे दूंगा और 100000 की खुले तो वो आदमी बोला, 50000 आपके और 1000000 की खुले तो वो आदमी बोला, 500000 आपके और 10000000 की खुले तो वो आदमी बोला, 5000000 आपके।

और गुरु ने जैसे ही सुना उसका हार्ट फ़ैल हो गया। उसे लगा, 500000 मुझे मिल गये। वो कल्पना में खो रहा था और उसे पता था की इसके एक करोड़ की लॉटरी खुली हैं तो 5000000 उसका और वो खुशी को बर्दाश्त नहीं कर पाया और वही ढेर हो गया। यही हैं मेरापन, यह हैं ममता। जो रुलाती हैं, हिलाती हैं, व्यग्र और बैचेन बनाती हैं। हम सब यथाशक्ति इस धर्म का अनुपालन करें।

-डॉ. महेन्द्रकुमार जैन ‘मनुज’,
22/2, रामगंज, जिंसी, इन्दौर 9826091247

सनातन धर्म, जिसका न कोई आदि है और न ही अंत है, ऐसे मे वैदिक ज्ञान के अतुल्य भंडार को जन-जन पहुंचाने के लिए धन बल व जन बल की आवश्यकता होती है, चूंकि हम किसी प्रकार के कॉरपोरेट व सरकार के दबाव या सहयोग से मुक्त हैं, ऐसे में आवश्यक है कि आप सब के छोटे-छोटे सहयोग के जरिये हम इस साहसी व पुनीत कार्य को मूर्त रूप दे सकें। सनातन जन डॉट कॉम में आर्थिक सहयोग करके सनातन धर्म के प्रसार में सहयोग करें।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here