पृथ्वीतत्त्वलिंग – कांचीपुरम् : यहाँ माता पार्वती ने कठोर तप किया था, यहाँ देवगर्भा शक्तिपीठ भी { दक्षिण भारत के पंचतत्त्वलिंग}

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पृथ्वीतत्त्वलिंग – कांचीपुरम्  व  देवगर्भा शक्तिपीठ की महत्ता : कांचीपुरम को कांची भी कहा गया है। कांचीपुरम तीर्थ दक्षिण भारत की काशी माना जाता है, जो मद्रास से 45 मील की दूरी पर दक्षिण-पश्चिम में स्थित नगरी है। यह आधुनिक काल में कांचीवरम के नाम से भी प्रसिद्ध है।
कांचीपुरम को लेकर ऐसी अनुश्रुति है कि इस क्षेत्र में प्राचीन काल में ब्रह्मा जी ने देवी के दर्शन के लिए कठोर तप किया था। कांची हरिहरात्मक पुरी कहलाती है। इसके दो भाग शिवकांची और विष्णुकांची हैं।  कांची तमिलनाडु में वेगवथी नदी के तट पर बसा हुआ एक शहर एक पवित्र तीर्थस्थल है। यहाँ बहुत से मंदिर हैं। जैसे कामाक्षी अम्मान मंदिर, कौलासनाथर मंदिर, एकम्बरेश्वर मंदिर, और वैकुण्ठ पेरूमल मंदिर स्थापित हैं।

कांचीपुरम की महत्ता का वर्णन तो महाकवि कालिदास ने भी किया है। कांचीपुरम् की गिनती सप्तपुरियों में भी होती है। इसे हरिहरात्मक पुरी कहा जाता है। ‘ ब्रह्मांडपुराण ‘ में कांची का माहात्म्य वर्णित है। इसमें बताया गया है कि यहां प्राचीनकाल में ब्रह्माजी ने श्री देवी के दर्शन हेतु दुष्कर तपस्या की थी।

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देवी हाथ में कमल धारण कर प्रकट हुईं। उत्तर भारत में जो स्थान काशी को प्राप्त है, वही स्थान दक्षिण भारत में कांचीपुरम् का है। इसे दक्षिण की काशी कहा जाता है। यह नगर पल्लव राजाओं की राजधानी रहा है। यहां सती का कंकाल ( अस्थिपंजर ) गिरा था। तमिलनाडु में कांजीवरम् स्टेशन के पास शिवकांची नाम का एक बड़ा हिस्सा है। वहां भगवान एकाम्रेश्वर शिव का मंदिर है। यहां से स्टेशन की ओर करीब दो फर्लांग की दूरी पर कामाक्षी देवी का विशाल मंदिर है। मुख्य मंदिर में भगवती त्रिपुर सुंदरी की प्रतिमूर्ति कमाक्षी देवी की प्रतिमा है। यहां अन्नपूर्णा, शारदामाता और आदि शंकराचार्य की भी मूर्तियां हैं। इस मंदिर को भारत के दक्षिण भूभाग का सर्वप्रधान शक्तिपीठ माना जाता है।

यहां देवी के शरीर का कंकाल अर्थात अस्थिपंंजर गिरा था। यहां की शक्ति हैं देवगर्भा और भैरव हैं रुरु। दक्षिण के पंचतत्त्व लिंगों में से भूतलिंग के संबंध में कुछ मतभेद हैं। कुछ लोग कांची के एकामेश्वरलिंग को भूतलिंग मानते हैं और कुछ लोग तिरुवारूर के त्यागराज लिंगमूर्ति को भूतलिंग मानते हैं। पंचतत्वलिगों में इस लिंग को पार्थिवलिंग या पृथ्वीलिंगम कहा जाता है।

‘काशी कांची चमायाख्यातवयोध्याद्वारवतयपि, मथुराऽवन्तिका चैताः सप्तपुर्योऽत्र मोक्षदाः’

‘अयोध्या-मथुरामायाकाशीकांचीत्वन्तिका, पुरी द्वारावतीचैव सप्तैते मोक्षदायिकाः।’

यहाँ कैसे पहुचें

चेंगलपेट जंक्शन से अरकोनम लाइन पर 35 किलोमीटर दूर कांचीपुरम स्टेशन है। चेन्नई, चेंगलपेट, तिरुपति, तिरुवण्मलै आदि से बसें भी यहां आती हैं। चेन्नई से यह 80 किलोमीटर पर स्थित है। चेन्नई हवाई अड्डे से इसकी दूरी 70 किलोमीटर है।

पृथ्वीतत्त्वलिंग – कांचीपुरम्( prithvitatvling kanchipuram ) की कथा

एक बार पार्वती जी ने खेल – खेल में भगवान शंकर के तीनों नेत्र अपनी हथेलियों से बंद कर दिए। इससे समस्त संसार में अंधकार छा गया। क्योंकि ये नेत्र ही सूर्य, चंद्र, अग्नि को प्रकाशित करते थे। अंधकार से ब्रह्मांड के लुप्त होने की स्थिति आ गई। इस कार्य से क्रोधित होकर प्रायश्चित्त हेतु पार्वतीजी को तपस्या करने का आदेश दिया। माता पार्वती तपस्विनी का वेश धारण करके कंपा नदी के किनारे तप करने में जुट गईं। उन्होंने बालुका रेत लेकर लिंग बनाया और उसकी आराधना व वंदना में लीन हो गई और इस प्रकार तपस्या करते कई काल व्यतीत हो गए। परीक्षा लेने हेतु भगवान शिव ने कंपा नदी में बाढ़ ला दी, पर पार्वतीजी ने बालुकालिंग को क्षति से बचाने हेतु छाती से लगा लिया व आंख मूंदकर ध्यानमग्न हो गईं। उनकी तपस्या से भगवान शिव प्रसन्न हुए और कहा कि इस लिंग को यहीं छोड़ दो।

इस प्रकार उस स्थान पर स्थिर होकर पार्थिवलिंग सिद्ध तथा वरदाता बन गया। माता पार्वती ने तट पर स्थित आम के वृक्ष के नीचे तपस्या की थी, अत : इसका नाम एकाम्रनाथ क्षितिलिंग पड़ा। मंदिर में एक पुराना आम का पेड़ अभी भी है। तीर्थयात्री मकान बनाने हेतु इससे प्रार्थना करके एक धागा बांध देते हैं, तो उनकी इच्छा अवश्य पूर्ण होती है। यह लिंग सभी प्रकार के पापों को नष्ट करने वाला है तथा सब प्रकार से सौभाग्यशाली बनाता है।

कांचीपुरम् के दो भाग माने जाते हैं। शिवकांची और विष्णुकांची।

  1. शिवकांची : स्टेशन से लगभग दो किलोमीटर दूर नगर के इस भाग में सर्वतीर्थ सरोवर है। यही स्नान का मुख्य स्थान है। सरोवर के मध्य एक छोटा मंदिर है। सरोवर पर लोग मुंडन तथा श्राद्ध भी करते हैं। सरोवर के चारों ओर कई मंदिर हैं। उनमें काशी विश्वनाथ मंदिर मुख्य है।
  2. विष्णुकांची : स्टेशन से लगभग पांच किलोमीटर दूर है। यहां 18 विष्णुमंदिर कहे जाते हैं, किंतु मुख्य मंदिर श्रीवरदराज मंदिर ही है।

तीर्थस्थल का विवरण

एकामेश्वर : शिवकांची का यही मुख्य मंदिर है। सर्वतीर्थ सरोवर से यह पास ही ( लगभग एक फलांग दूर ) पड़ता है। यह मंदिर बहुत विशाल है। मंदिर के दक्षिण द्वार वाले गोपुर के सामने एक मंडप है। इसके स्तंभों में सुंदर मूर्तियां बनी हैं। मंदिर के दो बड़े – बड़े घेरे हैं। पूर्व के घेरे में दो कक्षाएं हैं, जिनमें पहली कक्षा में प्रधान गोपुर, जो दस मंजिल ऊंचा है, मिलता है। यहां द्वार के दोनों ओर क्रमश : सुब्रह्मण्यम तथा गणेशजी के मंदिर हैं। दूसरी कक्षा में शिवगंगा सरोवर है। इसमें ज्येष्ठ मास के महोत्सव के समय उत्सव मूर्तियों का जल – विहार होता है। उस समय वहां बड़ा मेला लगता है। इस सरोवर के दक्षिण में एक मंडप में श्मशानेश्वर शिवलिंग है। इस घेरे से मिला मुख्य मंदिर का द्वार है।

मुख्य मंदिर में तीन द्वारों के भीतर श्री एकामेश्वर शिवलिंग स्थित है लिंगमूर्ति श्याम है। कहा जाता है, यह बालुका निर्मित है। लिंगमूर्ति के पीछे श्रीगौरीशंकर की युगलमूर्ति है। यहां एकामेश्वर पर जल नहीं चढ़ता। चमेली के सुगंधित तेल से अभिषेक किया जाता है। प्रति सोमवार को भगवान की सवारी निकलती है। मुख्य मंदिर को दो परिक्रमाएं हैं। पहली परिक्रमा में क्रमशः शिवभक्तगण, गणेशजी, 108 शिवलिंग, नंदीश्वरलिंग, चंडिकेश्वरलिंग तथा चंद्रकंठ बालाजी की मूर्तियां हैं। दूसरी परिक्रमा में कालिकादेवी, कोटिलिंग तथा कैलास मंदिर हैं। कैलास मंदिर एक छोटा – सा मंदिर विराजमान है।एकामेश्वर मंदिर के प्रांगण में एक बहुत पुराना आम का वृक्ष है। यात्री इसकी परिक्रमा करते हैं। इसके नीचे चबूतरे पर एक छोटे मंदिर में तपस्या में लगी कामाक्षी पार्वती की मूर्ति है।

अन्य तीर्थस्थल

  • कामाक्षी : एकामेश्वर मंदिर से लगभग दो फलाँग पर ( स्टेशन की ओर ) कामाक्षी देवी का मंदिर है। यह दक्षिण का देवगर्भा सर्वप्रधान शक्तिपीठ है। कामाक्षी देवी आद्याशक्ति भगवती त्रिपुर सुंदरी की प्रतिमूर्ति हैं। इन्हें कामकोटि भी कहते हैं।
  • कामाक्षी मंदिर भी विशाल है। इसके मुख्य मंदिर में कामाक्षी देवी की सुंदर प्रतिमा है। इस मंदिर में अन्नपूर्णा तथा शारदा के भी मंदिर है। एक स्थान पर आद्य शंकराचार्य की मूर्ति है। कामाक्षी मंदिर के निजद्वार पर कामकोटि यंत्र में आद्यालक्ष्मी, विद्यालक्ष्मी, संतानलक्ष्मी, सौभाग्यलक्ष्मी, धनलक्ष्मी, धान्यलक्ष्मी, वीर्यलक्ष्मी तथा विजयलक्ष्मी का न्यास किया हुआ है। इस मंदिर के घेरे में सरोवर भी है। कामाक्षी देवी का मंदिर श्री आदिशंकराचार्य का बनवाया हुआ कहा जाता है। मंदिर की दीवार पर श्रीरूपलक्ष्मी सहित श्रीचोरमहाविष्णु ( जिसकी 109 वैष्णव दिव्य देशों में गणना है ) तथा मंदिर के अधिदेवता श्रीमहाशास्ता के विग्रह हैं, जिनकी संख्या एक सौ के लगभग होगी। शिवकांची के समस्त शैव एवं वैष्णव मंदिर इस ढंग से बने हैं कि उन सबका मुख कामकोटि पीठ की ओर ही है और उन देवविग्रहों की शोभायात्रा जब – जब होती है, वे सभी इस पीठ की प्रदक्षिणा करते हुए ही घुमाए जाते हैं। इस प्रकार इस क्षेत्र में कामकोटि पीठ की प्रधानता सिद्ध होती है।
  • वदराज : मंदिर विशाल है। भीतर कोटितीर्थ की सरोवर है। यह पक्का है तथा इसके पश्चिम तट पर वराह कोटिलिंग सुदर्शन मंदिर है, जिसमे योग नरसिंह की मूर्ति सुदर्शन के पीछे के है।
  • वामन मंदिरः कामाक्षी मंदिर से दक्षिण – पूर्व थोड़ी ही दूरी पर भगवान वामन का मंदिर है। इसमें वामन भगवान की विशाल त्रिविक्रम मूर्ति है। यह मूर्ति लगभग दस हाथ ऊंची है। भगवान का एक चरण लोकों को नापने के लिए ऊपर उठा हुआ है। चरण के नीचे राजा बलि का मस्तक है। इस मूर्ति के दर्शन एक लंबे बांस में मशाल लगाकर पुजारी कराता है। मशाल के बिना भगवान के श्रीमुख का दर्शन नहीं हो पाता।
  • सुब्रह्मण्य मंदिर : वामन भगवान के मंदिर के सामने ही थोड़ी दूर पर सुब्रह्मण्य स्वामी का मंदिर है। इसमें स्वामी कार्तिकेय की भव्य मूर्ति है। इस मंदिर को यहां बहुत मान्यता प्राप्त है। कहा जाता है, शिवकांची में 108 से भी अधिक शिव मंदिर हैं। अप्रैल मास में यहां का प्रधान वार्षिकोत्सव होता है। यह धार्मिक समारोह पंद्रह दिन तक रहता है। यहां ज्वरहरेश्वर, कैलासनाथ आदि के मंदिर भी अपनी भव्यता के कारण दर्शनीय हैं। यहां के मुख्य मंदिर के गोपुरम् ‘ पर हैदर अली की तोपों के गोलों के चिह्न अब तक मौजूद हैं।
  • अन्य मंदिर:  जगमोहन में 64 योगिनियों की मूर्तियां हैं। एक अलग मंदिर में श्रीपार्वतीजी का विग्रह है। उसके पश्चात् एक मंदिर में स्वर्ण कामाक्षी देवी हैं। दूसरे मंदिर में अपनी दोनों पत्नियों सहित सुब्रह्मण्य स्वामी की मूर्ति है। दूसरी परिक्रमा के पूर्व वाले गोपुर के पास श्रीनटराज तथा नंदी की सुनहरी मूर्तियां हैं। उस घेरे में नवग्रहादि अन्य अनेक देव – विग्रह भी हैं।

जंबुकेश्वर आपोलिंगम् ( जलतत्त्वलिंग ): यहाँ आदिशंकराचार्य ने जंबुकेश्वर का पूजन – आराधन किया था { दक्षिण भारत के पंचतत्त्वलिंग}

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