देवीपाटन ( पाटेश्वरी ) सिद्धपीठ: माता सीता ने यहीं भू – प्रवेश किया था

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deveepaatan ( paateshvaree ) siddhapeeth: maata seeta ne yaheen bhoo – pravesh kiya thaदेवीपाटन ( पाटेश्वरी ) सिद्धपीठ : देवीपाटन भगवती महामाया स्वरूप सबकी आश्रयभूता हैं। समस्त जगत् उनका ही अंशभूत है। वह सबकी आदि भूता हैं। देवीपाटन की परमाराध्या महामाया पाटेश्वरी परमेश्वरी हैं। कुछ स्थानीय विद्वानों  की मान्यता है कि सती के शव का पट वस्त्र उनके वामस्कंध सहित यहीं गिरा था, लेकिन 51 शक्तिपीठों में शामिल नहीं हैं, इस पावन धाम की सिद्धपीठ के रूप में देश में मान्यता है । इस स्थान को पातालेश्वरी सिद्धपीठ भी कहते हैं। ऐसी मान्यता है कि सीता ने यहीं भू – प्रवेश किया था।  कहते हैं कि कर्ण ने यहीं परशुराम से ब्रह्मास्त्र प्राप्त किया था। मंदिर का जीर्णोद्धार सम्राट विक्रमादित्य ने करवाया था। मंदिर के अंदर कोई प्रतिमा नहीं है, वरन चांदी जड़ित गोल चबूतरा है, जिस पर कपड़ा बिछा रहता है। उसी के ऊपर ताम्र छत्र है, जिस पर पूरी दुर्गा सप्तशती के श्लोक अंकित हैं। उसके नीचे अनेक रजत छत्र हैं। वहां घी की अखंड दीपज्योति जलती रहती है। मंदिर के उत्तर में सूर्यकुंड है। इसी के पास काली मंदिर भी है। यहां भैरव बटुकनाथ की आराधना भी होती है।

सिरिया नदी

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एक बार महाराजा कर्ण से स्थानीय जनता ने प्रार्थना की कि महाराज मन्दिर के निकट एक नदी भी होनी चाहिए, इससे मन्दिर की अपूर्व शोभा होगी, मेले में आये हुए जन समुदाय को नहाने धोने का कार्य सुचारु रूप से सम्पन्न होगा, पशु-पक्षियों को पेयजल सुगमता से प्राप्त होगा। जन समुदाय के इस प्रकार की प्रार्थना को सुनकर उन्होंने जन कल्याण के लिए धनुश पर एक तीर रखकर पृथ्वी पर छोड़ा तीर ज्यों ही धरती में प्रविष्ट हुआ त्यों ही नदी प्रगट हो गयी। चूंकि तीर के द्वारा इस नदी की उत्पत्ति हुई इसलिए नदी का नाम तिरिजा नदी रखा गया जिसका कालान्तर में सिरिया नाम हो गया और कुछ दिनों बाद यह पहाड़ी नाला के रूप में परिवर्तित हो गयी।

सूर्यकुण्ड

पुराणों के कथा के अनुसार महाभारत काल के सूर्य पुत्र महाराजा कर्ण भी देवी पाटन भगवती के भक्त थे। जब उनको अवसर मिलता था तो यहां आकर रूककर माँ भगवती जी की आराधना करते थे। चैत्र नवरात्रि और अश्विन नवरात्रों में अवश्य आते थे। नवरात्रि व्रत करते थे तथा पंडितों के माध्यम से शत चण्डी तो कभी सहस्त्र चण्डी महायज्ञ का आयोजन करते थे। उन्होंने अपने पिता सूर्य भगवान की पुण्य स्मृति में मन्दिर के ऊपरी भाग में एक पोखरा बनवाया जो सूर्यकुण्ड के नाम से विख्यात है। पूर्व काल में यह बहुत सुन्दर और विशाल रूप में था पर समय के प्रभाव से अब इसका रूप वह नहीं रहा। वर्तमान में यह साधारण कुण्ड के रूप में परिवर्तित हो गया है लेकिन माँ भगवती के कृपा से इसका अस्तित्व अभी भी बरकरार है।

यात्रा मार्ग

यह पीठ उत्तर प्रदेश के बलरामपुर जनपद में पूर्वोत्तर रेलवे के तुलसीपुर स्टेशन से मात्र 700 मीटर की दूरी पर सूर्या नदी के तट पर स्थित है। नेपाल राज्य की सीमा को यह पुण्य – पीठ स्पर्श करता है।

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