अष्ट विनायक: मनुष्य को आयु व अर्थ की प्राप्ति के लिए भक्ति के निधान गौरी पुत्र विनायक का स्मरण करना चाहिए। उनके ध्यान पूजन से भगवान गणेश की कृपा से मिलती हैं। पुणे के विभिन्न इलाकों में श्री गणेश के आठ मंदिर हैं, इन्हें अष्टविनायक कहा जाता है। इन मंदिरों को स्वयंभू मंदिर भी कहा जाता है। स्वयंभू का अर्थ है कि यहां भगवान स्वयं प्रकट हुए थे ,किसी ने उनकी प्रतिमा बना कर स्थापित नहीं की थी। इन मंदिरों का जिक्र विभिन्न पुराणों जैसे गणेश और मुद्गल पुराण में भी किया गया है। ये मंदिर अत्यंत प्राचीन हैं। इन मंदिरों की दर्शन यात्रा को अष्टविनायक तीर्थ यात्रा भी कहा जाता है। इन गजानन के आठ गणेश रूप महाराष्ट्र के पुणे नगर के आसपास ही स्थित हैं। ये सभी आकृतिओं में एक दूसरे से भिन्न हैं और उनकी उत्पत्ति और स्थापना हेतु भी पृथक् – पृथक् कथाएं हैं। ऐसी मान्यता है कि सर्वप्रथम मयूरेश्वर के दर्शन करने चाहिए और उसके पश्चात् सिद्धटेक, पाली, महद, थिरूर, लेयाण्ड्री ओझर तथा महागनपति के दर्शन करते हुए पुनः मोरगांव वापस आना चाहिए। गणेशों की ये मूर्तियां स्वंभू हैं। आइये जानते हैं, गणेश जी के स्वरूपों के बारे में………
- मयूरेश्वर – मोरगांव ये काले पत्थर का बना सुंदर मंदिर है, जो ग्राम के मध्य में अवस्थित है। इसके चारों ओर लगभग 50 फीट ऊंची चहार – दीवारी है और चारों कोने पर मीनारनुमा आकृतियां हैं, जो इसे मस्जिद की आकृति प्रदान करती हैं। ऐसा जानबूझकर किया गया, क्योंकि इसे मुगलों के आक्रमण से बचाना था। मंदिर के द्वार पर एक नंदी की प्रतिमा है, जो अपने आप में आश्चर्यचकित करने वाली है, क्योंकि नंदी हमेशा शिव मंदिर के समक्ष ही विराजमान होते हैं। ऐसी कथा है कि कुछ लोग इस मूर्ति को शिव मंदिर ले जा रहे थे, पर रास्ते में वाहन टूटने से नंदी यहीं विराजमान हो गए और बाद में यहां से हटाने पर भी नहीं हटाए जा सके। गणेश की मूर्ति एक मोर पर बैठी है और उनकी सूंड बाईं ओर इस प्रकार मुड़ी है कि वह एक कोबरा के फन के समान दिखलाई पड़ती है। उसके पास ही सिद्धि व बुद्धि की मूर्तियां भी स्थापित हैं। गणेश के चरणों पर मूषक भी विराजमान है। यह मूर्ति वास्तव में मूल मूर्ति नहीं है। ऐसा माना जाता है कि इसे ब्रह्माजी ने दो बार बनाया, क्योंकि असुर सिंदूरासन इसे नष्ट कर देता था। मूल मूर्ति जो छोटी है, वह रेत, लोहा व हीरों से निर्मित थी, उसे एक तांवे की पर्त द्वारा ढक कर वर्तमान मूर्ति के नीचे दबा दिया गया है। यह मंदिर पुणे से 55 किलोमीटर दूर करहा नदी के किनारे ग्राम मोरगांव में स्थित है। इस ग्राम की आकृति मोर के समान ही है। अत : इसे मोरगांव नाम दिया गया।
- सिद्धि विनायक – सिद्धटेक श्री गोंडा भगवान विष्णु ने असुर मधु व कैटभ का संहार करके यह मूर्ति स्थापित की। केवल इस मूर्ति का सूंड ही दाईं ओर है। अन्य सभी गणेशों के सूंड बाईं ओर हैं। ऐसा माना जाता है कि दो संत, मौर्य गोसावी और श्री नारायण महाराज, जो खेड़ – गांव के थे, ने भी यहां आत्मज्ञान प्राप्त किया। मंदिर उत्तर की ओर एक छोटी पहाड़ी पर स्थित है। उसके अंदर का मंडप 15 फीट ऊंचा व 10 फीट चौड़ा है। इसकी मूर्ति 3 फीट ऊंची व 2.5 फीट चौड़ी है, परंतु इनका पेट कम चौड़ा है। रिद्धि व सिद्धि की मूर्तियां इनकी एक जांघ पर स्थापित हैं। इनकी परिक्रमा का बड़ा महत्त्व है, जो मात्र 30 मिनट में पूर्ण हो जाती है। मंदिर पुणे शोलापुर मार्ग पर 48 किलोमीटर दूर श्री गोंडा नगर में भीमा नदी के किनारे स्थित है। यह दौंड स्टेशन से मात्र 18 किलोमीटर दूर है।
- बाल्लेश्वर – पाली: ऐसा माना जाता है कि गणेशजी ने बालक भक्त बाल्ला को ग्रामवासियों से बचाया था, जो केवल उसकी गणेश की ही भक्ति करने से रुष्ट थे। मूल मूर्ति लकड़ी की थी, जिसे बाद में पत्थर के रूप में बनवाया गया। मंदिर का मुख पूर्व की ओर है और इसमें दो मंडप हैं। अंदर वाले मंडप में मूर्ति स्थापित है और साथ ही रिद्धि, सिद्धि व मूषकराज भी विराजमान हैं। दूसरा मंडप आठ स्तंभों का बना है, जिस पर आकर्षक कलाकारी की गई है तथा उसे एक सुंदर वृक्ष का रूप दिया गया है। यह मंडप 12 फीट लंबा है, जबकि अंदर वाला 15 फीट लंबा है। मंडप में मूर्ति इस प्रकार अवस्थित है कि शरद ऋतु के बाद सूरज की प्रथम किरण सीधी मूर्ति पर ही पड़ती है। मंदिर पत्थरों व लोहे के जोड़ों से मिलकर मजबूत बनाया गया है। मूर्ति की आंखों और नाभि पर हीरे लगे हुए हैं और सूंड बाई ओर है। मूर्ति पर्वत रूप में बनी है और यहां का प्रसाद बेसन के मोदक ही होते हैं। मंदिर के बाहर दो सरोवर भी हैं, जिसमें एक गणेश पूजा हेतु आरक्षित है। इसी मंदिर के निकट एक डुंडी विनायक का मंदिर भी है, जिसमें मूर्ति का मुख पश्चिम की ओर है, जो एक विशेष रूप है। ऐसा माना जाता है कि बालक भक्त बाल्ला के पिताश्री ने इस मूर्ति को बाहर फेंक दिया था। ऐसा भी माना जाता है कि डुंडी जो बाल्ला का बड़ा भाई था, के नाम पर इसे डुंडी विनायक कहा जाता है। मंदिर पाली नगर में स्थित है, जो पुणे – मुंबई मार्ग के मध्य स्थित है। कारजात रेलवे स्टेशन से इसकी दूरी मात्र 30 किलोमीटर है।
- वरद विनायक – महड भक्त गुंतसमद जब माता के द्वारा श्रापित हुए तो उन्होंने गणेश की घोर तपस्या की और इस मंदिर का निर्माण कवाया, जिसे वरद विनायक मंदिर कहा जाता है। ऐसा माना जाता है कि गणेशजी स्वयं यहां निवास करते हैं, जो मानव के सफलता दायक प्रभु हैं। यह मूर्ति पास की एक झील में डूबी हुई थी, अत : इसकी आकृति थोड़ी जीर्ण है। कुछ समय पश्चात् भक्तों ने इस मंदिर का विस्तार करवाया। मूर्ति की दिशा पूर्व की है तथा सूंड बाईं ओर घूमी है। इसके पास एक दीपक हमेशा जलता रहता है और आज भी जल रहा है। मंदिर के चारों ओर चार हाथियों की भव्य मूर्तियां स्थापित हैं। अंदर का मंडप 8 फीट का है, जबकि इसका शिखर 25 फीट ऊंचा है और इसके ऊपर का भाग सोने का बना है। यह अकेला ऐसा मंदिर है, जिसमें भक्त गणेशजी को स्वयं प्रसाद, पुष्प आदि समर्पित कर सकते हैं। पुणे – मुंबई हाइवे पर खापोली स्टेशन से 3 किलोमीटर दूर है और खापोली पुणे से 80 किलोमीटर दूर है। यह मुंबई के पास तथा करजात रेलवे स्टेशन से यह 24 किलोमीटर दूर है।
- चिंतामणि – थेरूर ऐसी कथा है कि गुना नाम के एक लालची व्यक्ति ने संत कपिल हेतु चिंतामणि रत्न इसी स्थान पर प्राप्त किया था। हालांकि बाद में संत कपिलजी ने वह रत्न माला के रूप में गणेशजी को पहना दिया, इसी कारण इसका नाम चिंतामणि पड़ा। इस स्थान पर एक कदंब या कदम का वृक्ष था, अत : थेरूर को पुराने समय में कदंब नगर भी कहा जाता है। मंदिर के पीछे एक झील है, उसे कदंबा तीर्थ भी कहा जाता है। मंदिर का द्वार उत्तर की ओर है। इसका बाहरी मंडप लकड़ी का बना है, जो लगभग 100 वर्ष पुराना होगा। इसके पश्चात् एक राजा ने लकड़ी का एक दूसरा बाही मंडप निर्मित कराया। मूर्ति की सूंड बाईं और है और गणेशजी की आंखों में हीरे लगे हैं। मूर्ति का मुख पूर्व दिशा की ओर है। यह पुणे से 22 किलोमीटर दूर है, अतः यह पुणे के पास है। ग्राम थेरूर में तीन नदियां मुला, मूथा तथा भीमा प्रवाहित होती हैं।
- गिरिजात्मज – लेयाण्ड्री ऐसी कथा है कि पार्वतीजी ने गणेश के जन्म हेतु यह स्थान चुना था। पार्वती गिरिजा हैं तो उनका पुत्र गणेश आत्मज कहलाया। अतः मंदिर का नाम गिरिजात्मज पड़ा। यह एक गुफा में स्थित है और मूर्ति एक पत्थर की बनी है इस पहाड़ी पर चढ़ने हेतु 307 सीढ़ियां हैं। मंदिर का मंडप 53 फीट लंबा और 51 फीट चौड़ा तथा 7 फीट ऊंचा है। इसमें एक भी स्तंभ नहीं है। मूर्ति का मुख उत्तर की ओर है और सूंड बाईं ओर है। मंदिर दक्षिणमुखी है। यह मूर्ति अधिक सुंदर आकृति की नहीं है। मंदिर में दिनभर भरपूर सूर्य का उजाला रहता है। पुणे से नारायण गांव 94 किलोमीटर है और यहां से 12 किलोमीटर पर मंदिर स्थित है। निकट का रेलवे स्टेशन तेलेगांव है। जुन्नार से यह मंदिर 5 किलोमीटर दूर है।
- विघ्नहर – ओझर प्राचीन कथानुसार विघ्नहर नाम का दानव इंद्र ने उत्पन्न किया था, क्योंकि उसके द्वारा राजा अभिनंदन की साधना को नष्ट करवाना था। जब दानव साधना को नष्ट करने गया और भक्तों ने गणेशजी से रक्षा हेतु गुहार की तो उन्होंने उसे हरा दिया। अंत में दानव ने उनसे क्षमा और दया की भीख मांगी। गणेशजी ने उसकी पुकार सुनी और कहा कि जहां साधना – पूजा हो रही है, वहां जाए। इस प्रकार साधना सफल हुई और इस मंदिर को विघ्नहर विनायक मंदिर कहा गया। मंदिर पूर्वमुखी है और पत्थर की दीवारों से यह चारों ओर से घिरा हुआ है। मंदिर का मुख्य मंडप 20 फीट लंबा और अंदर का 10 फीट लंबा है। मूर्ति भी पूर्वखी है तथा सूंड बाईं ओर है तथा आंखों में लाल रंग के रूबी नाम के रत्न लगे हैं । मस्तक पर हीरे लगे हैं और नाभि पर भी कुछ अन्य रत्न लगे हैं। रिद्धि, सिद्धि की मूर्तियां गणेश के दोनों ओर स्थापित हैं। चरण पर मूषक महाराज भी हैं। मंदिर का शिखर सोने का बना है। मंदिर पुणे – नासिक हाइवे पर कुकाड़ी नदी के किनारे स्थित है। मुंबई से ओझर की दूरी 182 किलोमीटर है।
- महागणपति-रंजनगांव: ऐसी कथा है कि शिव ने दानव त्रिपुरासुर से युद्ध करने जाने से पहले गणेशजी की पूजा – अर्चना की थी। यह मंदिर शिव के द्वारा ही निर्मित माना गया है। इस नगर का प्राचीन नाम मनीपुर था, जबकि वर्तमान में इसे रंजन – गांव के नाम से जाना जाता है। मूर्ति पूर्वमुखी है, जबकि सूंड बाईं ओर है। ऐसा कहा जाता है कि मूल मूर्ति तहखाने में छिपी है, जिसमें 10 सूंड हैं और 20 भुजाएं हैं। इसे महोतकत कहा गया है। मंदिर इस प्रकार बना है कि विशेष ऋतु में सूर्य की किरणें सीधी मूर्ति पर पड़ती हैं। किसी राजा ने मूर्ति के चारों ओर एक मंडप का निर्माण कराया था। यह मंदिर ‘ पुणे से 50 किलोमीटर दूर पुणे – अहमदनगर हाइवे के मध्य ग्राम रंजन – गांव में स्थित है ।
यात्रा मार्ग
यात्री पुणे में वायु, रेल या सड़क मार्ग से पहुंचे और यहां से टैक्सी / बसों द्वारा दो दिनों में इनकी यात्रा पूर्ण करें। मुंबई में रुककर भी यहां की यात्रा की जा सकती है, पर उसमें तीन दिवस लगते हैं।
तो गणेश जी को इसलिए अर्पित करनी चाहिए दुर्वा घास, शीघ्र होंगे प्रसन्न
सिद्धिदाता हैं गजानन, श्रद्धा से नमन करो तो पूर्ण होती हैं मनोकामनाएं
गणेश चतुर्थी के व्रत से पूरी होती हैं मनोकामनाएं, विश्वामित्र बने थे ब्रह्म ऋषि
भगवान शिव को शमी अत्यंत प्रिय, गणेशजी-शनि देव बहुत जल्दी प्रसन्न होते हैं