श्रीनाथद्वारा : दर्शन पूजन से हर कार्य में मिलाती है सिद्धि

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श्रीनाथद्वारा मंदिर राजस्थान

shreenaathadvaara : darshan poojan se har kaary mein milaatee hai siddhiवैष्णव धर्म के वल्लभ संप्रदाय के प्रमुख तीर्थस्थानों में नाथद्वारा का स्थान सर्वोपरि है। उदयपुर की सुरम्य झीलों की नगरी से तकरीबन 48 किलोमीटर दूर बनास नदी के तट पर नाथद्वारा का पुण्यधाम स्थित है। यहां पर भगवान श्रीकृष्ण के स्वरूप श्रीनाथजी का अत्यंत भव्य मंदिर है। दर्शन मात्र से मानव को आत्मिक शांति प्राप्त होती है व हर कार्य की सिद्धि हेतु प्रभु का आशीर्वाद प्राप्त होता है।

  • श्रीनाथद्वारा मंदिर राजस्थान के राजसमंद जिले में है। इसका निर्माण 17वीं शताब्दी में मेवाड़ के महाराणा राज सिंह के समय में किया गया था।
  •  मंदिर में स्थापित भगवान कृष्ण की मूर्ति को गोकुल से यहां लाया गया था।
  • श्रीनाथद्वारा पुष्टिमार्गीय वैष्‍णव सम्‍प्रदाय का प्रधान (प्रमुख) पीठ है।
  • नाथद्वार से 28 किलोमीटर की दूरी पर मावली रेल जंक्शन है

श्री कृष्ण तीर्थ की कथा 

श्रीनाथजी की ये मूर्ति पहले मथुरा के निकट गोकुल में थी, किंतु जब मुगल सम्राट् औरंगजेब ने इसे तोड़ना चाहा, तो वल्लभ गोस्वामी इसे राजपूताना ( अब राजस्थान ) ले गए और जिस जगह पर विग्रह की पुनः प्रतिष्ठा हुई, उसे नाथद्वारा कहा जाने लगा।

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श्रीनाथद्वारा मंदिर राजस्थान

करीब चार सौ साल पहले कुछ वैष्णव भक्तों की एक शोभायात्रा मेवाड़ की सीमा से होती हुई ‘ सिंहाड़ ‘ नामक ग्राम के पास रुकी। यह स्थान भी बीहड़ जंगलों से घिरा था। कहते हैं कि भगवान श्रीनाथजी ने स्वयं अपने भक्तों को प्रेरणा दी कि बस यही वह स्थान है, जहां मैं बसना चाहता हूं। फिर क्या था, डेरे और तंबू गाड़ दिए गए।राजमाता की प्रेरणा से उदयपुर के महाराणा राजसिंह ने एक लाख सैनिक श्रीनाथजी की सेवा और सुरक्षा के लिए तैनात कर दिए। महाराणा का आश्रय पाकर नाथनगरी भी बस गई। तभी से इसका नाम ‘ नाथद्वारा ‘ पड़ा है।

श्रीनाथजी के दर्शनीय स्थल

  • श्रीनाथजी मंदिर : श्रीनाथजी के मंदिर का घेरा काफी बड़ा है। वल्लभ संप्रदाय वाले अपने मंदिरों को नंदरायजी का घर मानते हैं। मंदिर पर कोई शिखर नहीं रहता। श्रीनाथजी के मंदिर में भी कोई शिखर नहीं है। जिस स्थल पर श्रीनाथजी विराजमान हैं, उसकी तो छत भी साधारण खपरैलों की बनी हुई है। इसी छावनी के बीच में एक छोटा – सा सुदर्शन चक्र है, जिस पर सात ध्वजाएं फहराती रहती हैं। मंदिर का प्रत्येक स्थल गोलोक के किसी – न – किसी स्थल का प्रतीक माना जाता है। मंदिर की व्यवस्था बहुत संतोषजनक है। श्रीनाथजी एक ही प्रकार के वस्त्र धारण नहीं करते। मुकुट, कुंडल, हार इत्यादि भी एक प्रकार के नहीं होते। ऋतुओं के अनुसार , इनका निर्माण पृथक् – पृथक् रूपों में पृथक् – पृथक् सामग्री द्वारा किया जाता है। भोग की सामग्री भी इसी प्रकार ऋतुओं के अनुसार होती है। यही नियम कीर्तनों के संबंध में भी है। श्रीनाथजी के नियमित आठ दर्शन होते हैं, परंतु कभी – कभी उत्सवों में एकाध बढ़ भी जाते हैं इसी प्रकार ऋतुओं के अनुसार दर्शन घट भी जाते हैं। इन आठ दर्शनों के नाम हैं – मंगला, शृंगार, ग्वाल, राजभोग, उत्कोपन, भोग, संध्या, आरती और शयन। श्रीनाथजी की भोग- सामग्री में केसर, कस्तूरी, अंबर, बरास आदि सुगंधित द्रव्यों का खूब प्रयोग किया जाता है। केसर और कस्तूरी का तो इतना अधिक प्रचलन है कि केसर पीसने के लिए चांदी की और कस्तूरी पीसने के लिए सोने की एक – एक चक्की है। श्रीनाथजी का प्रचुर वैभव हीरे – मोती तथा अन्य रत्नों के आभूषणों, सोने – चांदी के झूलों, पालनों, अटारियों, बंगलों, बर्तनों, बहुमूल्य वस्त्रों आदि से ज्ञात होता है। श्रीनाथजी की मूर्ति अचल है, अतः श्रीनाथजी के समीप मदनमोहनजी की एक धातु की प्रतिमा है, जो हिंडोलों में तथा अन्य उत्सवों पर पधराई जाती है। श्रीनाथ मंदिर में बहुत सामग्री आती है। पाने वाले और भेजने वाले श्रीनाथजी होते हैं – ऐसा माना जाता है। श्रीनाथ मंदिर परिसर में कमलचौक के पहले, बाहर फूल वाले बैठे रहते हैं। प्रसाद मंदिर का ही चढ़ता है, बाहर का प्रसाद नहीं चढ़ाया जाता, जिसे मंदिर के बाहर श्रद्धालुओं को बेचा जाता है। वहां मुंडन आदि समारोह भी किए जाते हैं। श्रीनाथजी के दर्शन के अतिरिक्त मंदिर में कुछ ऐसे स्थल भी हैं, जिनमें कई मूर्ति – विशेष न होते हुए भी वे यात्रियों के आकर्षण और दर्शनों का केंद्र बने रहते हैं और इस मंदिर की प्रमुख विशेषताओं में गिने जाते हैं। ऐसे स्थल हैं – फूलघर, पानघर, शाकघर, घी – घर, दूधधर, मेवाघर आदि । फूलघर में फूलों की इतनी अधिकता रहती है कि हर प्रकार के फूलों के छोटे – छोटे पहाड़ से बन जाते हैं। यही बात पान, शाक,  मेवा आदि के संबंध में देखी जाती है। इसी प्रकार दूध और घी भरे भूगर्भ के गहरे कुओं को देखकर मंदिर की सुव्यवस्था और समृद्ध अवस्था का हमें अनुमान हो जाता है। फिर इन सभी वस्तुओं और खाद्य सामग्री की स्वच्छता, पवित्रता पर बड़ी सतर्कता से पूरा – पूरा ध्यान रखा जाता है। इनके अतिरिक्त श्रीनाथजी की एक अत्यंत विशाल गोशाला यहां यात्रियों के आकर्षण का केंद्र बनी रहती है। गोशाला में लगभग बारह सौ पशु हैं, जिसमें अच्छी नस्ल के सांड़ और सुंदर एवं दुधारू गाएं हैं। यह गोशाला भारतवर्ष की सबसे बड़ी गोशालाओं में से एक है|
  • राजसमंद सरोवर : मंदिर के अगले भाग में एक विशाल सरोवर है। इस सरोवर का नाम राजसमंद ( नौ चौकी ) है। सरोवर के आगे नौ छतरियां बनी हुई हैं। प्रत्येक छतरी में विश्रामस्थल है। यहां यात्री आराम कर सकते है|
  • द्वारकाधीश मंदिर : कांकरोली का मुख्य मंदिर श्री द्वारकाधीशजी का है। कहा जाता है कि महाराज अंबरीष इसी मूर्ति की आराधना करते थे। कांकरोली वैष्णव संप्रदाय का एक महत्त्वपूर्ण यात्राधाम है। यह स्थान प्राकृतिक सौंदर्य से सुशोभित होने के कारण एक पर्यटन – स्थल भी बन गया है। इसकी गणना वैष्णवों के सात यात्राधामों में होती है। यात्रियों के भोजन की व्यवस्था भी यहां मुख्य मंदिर में ही है। यात्री लोग मंदिर में भोजन करते हैं और धर्मादा में दान देते हैं।
  • विद्या भवन : नाथद्वारा मंदिर के पास ही एक विद्या विभाग है, जहां पुष्टिमार्ग के प्राचीनग्रंथों की महत्त्वपूर्ण खोज एवं प्रकाशन का कार्य होता है।
  • अन्य मंदिर : यहां आसपास श्रीवालकृष्णलाल, ब्रजभूषण – लालजी और लालबाबा आदि के मंदिर हैं। मेवाड़ के राणा यहां के आचार्यों के शिष्य होते आए हैं। कांकरोली से लगभग 10 किलोमीटर दूर चारभुजाजी का मंदिर है।

नगर की अन्य विशेषताएं

श्रीनाथजी के भोग के छप्पन प्रकार के व्यंजन यहां बनते हैं। यहां की चित्र कला भी सारे देश में प्रसिद्ध हो गई है। यहां गुलाब का इत्र, गुलाबजल और गुलकंद भी अच्छा बनता है। श्रीनाथजी के मंदिर में श्रीकृष्ण से संबद्ध त्योहार विशेष उत्सव के रूप में मनाए के विशेष उत्सव के रूप में मनाए जाते हैं। उत्सवों की भरमार है। सावन – भादों और फागुन के उत्सवों की भव्यता देखते ही बनती है।

यात्रा मार्ग

उदयपुर ( राजस्थान ) से नाथद्वारा मात्र पचास किलोमीटर है। राजस्थान के लगभग सभी मुख्य बड़े नगरों से नाथद्वारा हेतु सीधी बस सेवा उपलब्ध है।

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