काशी में श्री विशालाक्षी शक्तिपीठ है। यहां सती माता की कर्ण मणि गिरी थी । काशी नगरी भगवान भोलेनाथ शिव की नगरी है। यह मोक्षदायिनी नगरी मानी जाती है। मान्यता है कि इस नगरी को भगवान शिव ने अपने त्रिशूल पर धारण कर रखा है, प्रलय काल में भी यह नगरी नष्ट नहीं होती है। यहां मृत्यु होने पर भगवान शंकर जीव का उद्धार करते हैं और उसे जनम-मरण के चक्र से मुक्ति मिलती है। अब आते है काशी में अवस्थित विशालाक्षी शक्तिपीठ महिमा पर। यहां दर्शन-पूजन से मनुष्य को उत्तम गति की प्राप्ति होती है।
एक समय की बात है कि प्रजापति दक्ष अंहकार में डूब गए थे और उन्होंने भगवान शिव के प्रति कटु वचन कहे थे, तब प्रजापति की पुत्री और भगवान शिव की अर्धांगिनी सती भगवान शिव के इस अपमान को सहन नहीं कर सकी थी। भगवती शक्तिपीठों के प्राकटñ का सम्बन्ध इसी कथा से है। दक्ष प्रजापति की पुत्री सती जी के दिव्य अंगों के गिरने से शक्तिपीठों का अविर्भाव हुआ था। शक्तिपीठों के आविर्भावकी जो कथा देवीपुराण आदि ग्रन्थों में मिलती है, उनमें से वाराणसी में प्रादुर्भूत शक्तिपीठ का नाम श्रीविशालाक्षी शक्तिपीठ है। तंत्रचूडामणि में भी इस पर प्रकाश डाला गया है। जिसके अनुसार, जब माता सती ने अपनी योगाग्नि से अपनी देह का त्याग कर दिया, तब जगत के पालक भगवान विष्णु के अपने सुदर्शन चक्र से कटकर श्री सती के अंग काटे। उनके विभिन्न अंग जहां-जहां गिरे, वहां-वहां एक-एक शक्ति एवं एक-एक भैरव विराजमान हो गये। इसके आख्यान में कहा गया है कि काशी में भगवती सती की कर्ण-मणि गिरी थी, जिससे यहां भी एक शक्तिपीठ का आविर्भाव हुआ। इस शक्तिपीठ पर श्रीविशालाक्षीजी विराजमान हुईं।
मत्स्यपुराण में वर्णन है कि पिता दक्षप्रजापति से अपमानित होकर जब देवी सती ने अपने शरीर से प्रकट हुए तेज से स्वयं को जलाना प्रारम्भ किया तो उस समय दक्षप्रजापति ने क्षमा मांगते हुए उनकी प्रार्थना करते हुए कहा-देवि!आप इस जगत की जननी तथा जगत को सौभाग्य प्रदान करने वाली हैं, आप मुझपर अनुग्रह करने की कामना से ही मेरी पुत्री होकर अवतीर्ण हुई हैं। धर्मज्ञे! यद्यपि इस चराचर जगत में आपकी ही सत्ता सर्वत्र व्याप्त है, फिर भी मुझे किन-किन स्थानों में जाकर आपका दर्शन करना चाहिये, बताने की कृपा करें।
इस पर देवी ने कहा-दक्ष! यद्यपि भूतलपर समस्त प्राणियों में सब ओर मेरा ही दर्शन करना चाहिए, क्योंकि सभी पदार्थों में मेरी ही सत्ता विद्यमान है। फिर भी जिन-जिन स्थानों में मेरी विशेष सत्ता व्याप्त है, उन-उन स्थानों का मैं वर्णन कर रही हूं। इतना कहने के बाद देवी ने अपने 1०8 शक्तिपीठों के नामों का परिगणन किया, जिसमें सर्वप्रथम वाराणसी में स्थित भगवती विशालाक्षी का ही उल्लेख हुआ है।
वाराणस्यां विशालाक्षी नैमिषे लिंगधारिणी।
प्रयागे ललिता देवी कामाक्षी गन्धमादने।।
अन्त में देवी ने यहां के माहात्म्य को बताते हुए कहा कि जो यहां तीर्थ में स्नानकर मेरा दर्शन करता है, वह सभी पापों से मुक्त होकर कल्पपर्यन्त शिवलोक में निवास करता है।
भगवती विशालाक्षीजी की महिमा अपार है। देवी भागवत में तो काशी में एकमात्र विशालाक्षीपीठ होने का ही उल्लेख प्राप्त होता है। देवी के सिद्घ स्थानों में भी काशीपुरी के अन्तर्गत मात्र विशालाक्षी का ही वर्णन मिलता है-
‘वाराणस्यां विशालाक्षी गौरीमुखनिवासिनी।’
‘अविमुक्ते विशालाक्षी महाभागा महालये।’
स्कन्दपुराणान्तर्गत काशीखण्ड में श्रीविशालाक्षी जी को नौ गौरियों में से पांचवीं गौरी के रूप में दर्शाया गया है और इनका विशेष महत्व बताया गया है। यहां भगवती विशालाक्षी के भवन को भगवान विश्वनाथ का विश्रामस्थल कहा गया है। काशीपति भगवान विश्वनाथ भगवती श्री विशालाक्षी के मंदिर में उनके समीप विश्राम करते हैं तथा इस असार संसार के अथाह कष्टों को झेलने से खिन्न हुए मनुष्यों को सांसारिक कष्टों से विश्रान्ति देते हैं-
विशालाक्ष्या महासौधे मम विश्रामभूमिका।
तत्र संसुतिखिन्नानां विश्रामं श्राणयाम्यहम।।
काशीखण्ड में श्रीविशालाक्षीजी के दर्शन-पूजन हेतु विशेष निर्देश दिये गये हैं। भगवती की अभयर्चना-हेतु सर्वप्रथम काशी के विशाल-गंगा नामक तीर्थ में स्नान करने का आदेश दिया गया है-
‘स्त्रात्वा विशालगंगायां विशालाक्षीं ततो व्रजेत।’
भगवती श्री विशालाक्षी की पूजा में धूप, दीप, सुगंधित माला, मनोहर उपहार, मणियों एवं मोतियों के आभरण, चामर, नवीन वस्त्र इत्यादि अर्पित करने को कहा गया है। विशालाक्षी शक्तिपीठ में अर्पित किया गया स्वल्प भी अनन्तगुना होकर प्राप्त होता है। यहां दिया गया दान जपा हुआ नाम, किया गया देवी-स्तवन एवं हवन मोक्षदायी होता है। विशालाक्षीजी की अर्चना से रूप और सम्पत्ति दोनों प्राप्त होते हैं-
वाराणस्यां विशालाक्षी पूजनीया प्रयन्तत:।
धूपैर्दीपै: शुभैर्माल्यैरुपहारैर्मनोहरै:।।
मणिमुक्द्यतालंकारैर्विचित्रोल्लोचचामरै:।
शुभैरनुपभुक्तैश्च दुकूलैर्गन्धवासितै:।
मोक्षलक्ष्मीसमृद्घर्थं यत्रकुत्रनिवासिभि:।।
अत्यल्पमति यद्दत्तं विशालाक्ष्यै नरोत्तमै:।
तदानन्त्याय जायेत मुने लोकद्बयेपि हि।
विशालाक्षीमहापीठे दत्तं जप्तं हुतं स्तुतम।
मोक्षस्तस्य परीपाको नात्र कार्या विचारणा।।
विशालाक्षीसमर्चातो रूपसम्पत्तियुक्पति:।।
काशी में श्री गंगा जी के तटपर पंक्तिबद्ध घाटों में ललिताघाट और पार्श्ववतीã मीरघाट के बीच में श्री गंगा जी में काशीखण्डोक्त विशालगंगातीर्थ है। इस तीर्थ में स्नान करके श्री विशालाक्षीजी के दर्शन की विधि है।
त्रिस्थलीसेतु में काशीपुराधीश्वरी भगवती अन्नपूर्णा, भवानी एवं विशालाक्षी की त्रिमूर्ति का ऐक्य दर्शाया गया है-
शिवे सदानन्दमये ह्याधीश्वरि श्रीपार्वति ज्ञानघनेअम्बिके शिवे।
मातार्विशालाक्षि भवानि सुन्दरि त्वामन्नपूर्णे शरणं प्रपद्ये।।
अन्नपूर्णोपनिषद में विशालाक्षी को अन्नपूर्णा कहा गया है-
अन्नपूर्णा विशालाक्षी स्मयमानमुखाम्बुजा।।
काशी में दक्षिण दिग्यात्रा क्रम में 11वें क्रमपर श्रीविशालाक्षीजी के दर्शन का निर्देश है और प्रतिवर्ष भाद्रपरकृष्ण तृतीया को माता विशालाक्षी की वार्षिक यात्रा की परम्परा रही है। यहां वासन्तिक नवरात्र में नवगौरी-दर्शनक्रम में 5वें दिन पञ्चमी तिथि को विशालाक्षीजी के दर्शन का विधान है। नवरात्र में एवं प्रत्येक मास के शुक्लपक्ष की तृतीया को सभी नौ गौरियों की यात्रा करने औ वहां कि तीर्थों में स्नान का जो नियम काशीखण्ड (अध्याय 1००) में दिया गया है, उसके अनुसार भी प्रतिमास शुक्ल तृतीया की श्री विशालाक्षीजी का दर्शन किया जाता है।
तन्त्रसार में उनके ध्यानस्वरूप को बताते हुए कहा गया है कि भगवती विशालाक्षी साधकों के समस्त शत्रुओं का विनाश कर डालती हैं तथा उन्हें उनका अभीष्ट प्रदान करती हैं। जगज्जननी विशालाक्षी देवी सभी प्रकार के सौभाग्यों की जननी हैं। जो भक्त इनकी शरण में आते हैं, उनका सच्चा भाग्योदय हो जाता है। भगवती की असीम कृपा और दयालुता से उनके भक्तजन देवताओं में भी ईष्याã जगाने वाली अतुलनीय सम्पत्ति को अत्यन्त सरलतापूर्वक प्राप्त कर लेते हैं। विशालाक्षी देवी गौरवर्ण की हैं और उनके दिव्य श्रीविग्रह से तपाये हुए सुवर्ण के समान कांति निरंतर निकलती रहती है। भगवती अत्यन्त सुन्दरी और रूपवती हैं तथा वे सर्वदा षोडशवर्षीया दिखलायी देती हैं। जटाओं के मुकुट से मंडित तथा नाना प्रकार के सौभाग्याभरणों से अलंकृत भगवती रक्तवस्त्र धारण करती हैं और मुण्डों की माला पहने रहती हैं। दो भुजाओं वाली अम्बिका अपने एक हाथ में खड्ग तथा दूसरे में खप्पर धारण किये रहती हैं-
ध्यायेद्देवीं शिलाक्षीं तप्तजाम्बूनदप्रभाम।
द्बिभुजामाम्बिकां चण्डीं खड्गखर्परधारिणीम।।
नानालंकारसुभगां रक्ताम्बरधरां शुभाम।
सदा षोडशवर्षीयां प्रसन्नास्यां त्रिलोचनाम।।
मुण्डमालावतीं रम्यां पीनोन्नतपयोधराम।
शिवोपरि महादेवीं जटामुकुटमण्डिताम?
शत्रुक्षयकरीं देवीं साधकाभीष्टदायिकाम्।
सर्वसौभाग्यजननीं महासम्पत्प्रदां स्मरेत।।
भगवती विशालाक्षीजी का मंदिर काशी में मीरघाट के ऊपर इसी नाम के मुहल्ले में भवन-संख्या डी. 3-85 में अव्यस्थित है। यहीं पर श्रीविशालाक्षीश्वर महादेवजी का शिवलिंग भी है। कलकत्ते में व्यवसाय कर रहे नगरत्तारों (तमिलनाडु के एक समुदायविशेष) ने सन 1863 ई. में यह निश्चय किया कि काशी में अपने समुदाय का एक निजी स्थान होना चाहिए। एतदर्थ उन्होंने अगस्तकुण्डा नामक मुहल्ले में एक मठ खरीदकर उसमें ‘श्रीकाशी नाट्टुक्कोट्टै नगरसत्रम’ नामक संस्था स्थापित की। अगले 2० वर्षों में नगरसत्रम को भलीभांति सुस्थापित करने के पश्चात नगरत्तार समुदाय ने विशालाक्षी मंदिर के जीर्णोंद्बार का विचार किया। उन्होंने मंदिर के पुजारियों से विशालाक्षी मंदिर का स्वामित्व हासिल किया और तत्कालीन काशीनरेश महाराज प्रभुनारायण सिंह से मंदिर की सपीपवर्ती भूमि को भी प्राप्त करके उसपर एक भव्य मंदिर का निर्माण कराया। मिति माघ शुक्ल षर्ष्ठी शुक्रवार संवत 1965 (दिनांक- 7 फरवरी 19०8) को मंदिर का कुम्भाभिषेक सम्पन्न हुआ।
यहां श्रीविशालाक्षी जी का नवीन मंदिर बनवाकर उसमें भगवती की काले पत्थर की नई मूर्ति स्थापित की गई लेकिन अत्यन्त श्रद्धा के कारण न तो प्राचीन मूर्ति का विसर्जन किया गया और न ही प्राचीन लघुमंदिर को तोड़ा गया। वर्तमान में नवीन प्रतिमा के पीछे प्राचीन प्रतिमा एवं प्राचीन मंदिर भी पूर्ववत विद्यमान है। प्राचीन मूर्ति न हटाने के संबंध में अनेक दन्तकथाएं भी प्रचलित हैं। काशी में श्री विशालाक्षी शक्तिपीठ है। यहां सती माता की कर्ण मणि गिरी थी ।
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