परम पावन शिव स्तुति का उल्लेख शिव पुराण के रुद्र सहिंताया के सती खंड में इसका उल्लेख किया गया है। शिव स्तुति के पाठ, श्रवण और ध्यान से जीव जनम-मरण के चक्र से मुक्त होकर परमगति प्राप्त करता है।
निराकारं ज्ञानगम्यं परं यन्न्नैवस्थूलं नापिसूक्ष्ममेव न चोच्चम्।
अतश्चिंत्यं योगिभिस्तस्य रूपं तस्मैतुभ्यं लोककत्रें नमोस्तु।।
सर्व शान्तं निर्मल निर्विंकारं ज्ञानागम्यं स्वप्रकाश्ोअविकारम।
रवाध्व प्रख्यं ध्वांतमार्गात्परस्ताद्रूपं यस्य त्वां नमामि प्रसन्नम्।।
एकं शुद्धं दीप्यमानं तथाजं चिदानंदं सहजं चाविकारि।
नित्यानदं सत्यभूतिप्रसन्नं यस्य श्रीदं रुपमस्मै नमस्ते।
विद्याकारोंभावनीयं प्रभिन्नं सत्वछंदं ध्ययेमात्मस्वरूपम्।
सारं पारं पावनानां पवित्रं तस्मै रुपं यस्य चैवं नमस्ते।
यत्त्वाकारं शुद्धरुपं मनोज्ञं रत्नाकल्पं स्वच्छ कर्पूर गौरम्।
इष्टाभोती शूलमूण्डे दधानं हस्तैर्नमोयोगयुक्तायतुभ्यम्।।
गगनं भूर्दिशश्चैव सलिलं ज्योतिरेव च।
पुन: कालश्च रुपाणि यस्य तुभ्यं नमोस्तुते।।
प्रधान पुरुषौ यस्य कायत्वेन विनिर्गतौ।
तस्मादव्यक्तरुपाय शंकराय नमोनम:।।
यो ब्रह्मा कुरुते सृष्टिं यो विष्णु कुरुते स्थितिम्।
सहंरिष्यति यो रुद्रस्तस्मै तुभ्यं नमोनम:।।
नमोनम: कारणकारणाय दिव्यामृत ज्ञानविभूतिदाय।
समस्त लोकांतर भूतिदाय प्रकाश रूपाय पररात्पपराय।।
यस्याअपरं नो जगदुच्यते पदात् क्षितिर्दिशस्सूयã इन्दुर्मनोज:।
बर्हिर्मुखा नाभितश्चान्तरिक्षं तस्मै तुभ्यं शंभवे मे नमोस्तु।।
त्वं पर: परमात्मा च त्वं विद्या विविधा हर:।
सद् ब्रह्म च परं ब्रह्म विचारणपरायण:।।
यस्य नादिर्न मध्यं च नांतमस्ति जगद्यत:।
कथं स्तोष्यामि तं देवं वांगमनोगोचरं हरम्।।
यस्य ब्रह्मादयो देवामुनयश्च तपोधना:।
न विप्रण्वंति रुपाणि वर्णनीय: कथं स मे।।
स्त्रिया मया ते किं ज्ञेया निर्गुणस्य गुणा: प्रभो।
नैव जानंति यद्रूप सेन्द्रा अपि सुरासुरा।।
नमस्तुभ्यं महेशान नमस्तुभ्यं तमोमय।
प्रसीद शंभो देवेश भूयो भूयो नमोस्तु ते।।
।। ऊॅँ शिवार्पणमस्तु।।
शिव स्तुति भावार्थ-
हे प्रमु, आप निराकार ज्ञान से परे हैं, न सूक्ष्म हैं, न स्थल हैं और न उच्च ही। इसलिए आपका सुंदर स्वरूप योगियों के चिंतन करने योग्य यानी ध्यान करने योग्य है। ऐसे लोककर्ता को नमस्कार है। शांत, निर्मल, निर्विकार ज्ञान से जानने योग्य अपने प्रकाश में विकार रहित परब्रह्म मार्ग के ज्ञाता ध्वाता मार्ग से परे रूप वाले प्रसन्न चित्त वाले अपको नमस्कार है। एक शुद्ध प्रकाशमान अज चिदानंद सहज विकार रहित नित्यानन्द सत्यैश्वर्य से प्रसन्न रूप वाले आपके लिए मेरा नमस्कार है।
मंत्ररूप विद्या से प्राप्त भिन्न सत्यस्वरूप धन के योग्य आत्म स्वरूप सार पवित्रों से भी पवित्र रूप वाले प्रभु आपको मेरा नमस्कार है। जो आकार शुद्ध रूप हैं, मनोज्ञ रत्नवत् शरीर की कांति हैं, स्वच्छ कर्पूर के समान गौर वर्ण सेवक को अभय देने वाले, हाथों में शूल और मुंड को धारण करने वाले योग युक्त आपको मेरा नमस्कार है।
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आकाश, पृथ्वी दिक् जल, ज्योति, समय, रूपवाले आपके लिए मेरा नमस्कार है। जिनके शरीर से ब्रह्मा और विष्णु उत्पन्न हुए ऐसे अव्यक्त रूप वाले आपको मेरा नमस्कार है। जो ब्रह्मा जी सृष्टि करते हैं और विष्णु जी पालन करते है तथा रुद्र संहार करते हैं। ऐसे रुद्रत्रय युक्त आपके लिए नमस्कार है। कारणों के कारण दिव्य ज्ञान ऐश्वर्य के दाता संसार को ऐश्वर्य देने वाले प्रकाश रूप से परे से परे शंकर के लिए मेरा नमस्कार है।
जिनके पैर से पृथ्वी, दिशायें, सूर्य, चंद्रमा, काम और नाभि से बहिर्मुख व आकाश उत्पन्न हुए ऐसे शंकर आपके लिए मेरा नमस्कार है।
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हे शंकर जी आप पर है, परमात्मा हैं, नाना प्रकार की विद्या आप ही हैं, सद्ब्रह्म आप ही हैं और विचार चतुर आप ही हैं। जिसका न आदि है और न अंत ही और न मध्य ही है, वाणी व मन से परे देव शिवजी की स्तुति कैसे करूं। जिसके रूप को ब्रह्मादिक देवता तप रूप धनवाले मुनि नही ंजान सकते उन्हें मैं कैसे कह सकती हूं। जिस आपके रूप को इंद्र आदि देवता और दैत्य नहीं जानते हैं, उस निर्गुण आपके गुण को क्या मैं स्त्री होकर जान सकती हूं, अर्थात कदापि नहीं। हे महेशान, आपके लिए नमस्कार है, हे देवेश प्रसन्न होओ, आपके लिए बारम्बार नमस्कार है।
शिव पुराण- रुद्र सहिंताया-2/ सती खंड- 2/ अध्याय- 6/ श्लोक 12-26
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