गुरुवायूर तीर्थ: श्रीकृष्ण के कुलदेवता की प्रतिमा यहां, महादेव की कृपा यहां

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गुरुवायूर तीर्थ:

guruvaayoor teerth: shreekrshn ke kuladevata kee pratima yahaan, mahaadev kee krpa yahaanगुरुवायूर तीर्थ: दक्षिण में भगवान गुरुवायूर का मंदिर काफी प्रसिद्ध है। धार्मिक कथा है कि द्वारकानगरी जब डूब रही थी, तो श्रीकृष्ण ने देवगुरु बृहस्पति को यह संदेश भेजा कि उनके कुलदेवता की प्रतिमा जिसकी पूजा उनके पिता वसुदेव और माता देवकी करते रहे हैं, को डूबने से बचा लिया जाए। संवाद पाते ही बृहस्पति द्वारकापुरी गए, किंतु तव तक नगरी के साथ वह प्रतिमा भी सागर में समा गई थी।

अंततोगत्वा बृहस्पतिदेव ने योग – बल से उस मूर्ति को समुद्र से बाहर निकाला। अब समस्या यह थी कि उस प्रतिमा को कहां पर स्थापित करें? इसके लिए पवित्र तथा उत्तम स्थान की खोज की जाने लगी। बहुत खोज किए जाने पर दक्षिण में एक कमलपुष्प – सा शोभायमान सरोवर दीख पड़ा, जहां महादेव शिव तथा माता पार्वती जलविहार के लिए आया करते थे। बृहस्पतिदेव ने शिवजी से प्रार्थना की और उनकी आज्ञा मिलने पर गुरु बृहस्पति तथा वासुदेवजी ने उस दिव्य प्रतिमा को वहां प्रतिष्ठित कर दिया। देवगुरु के द्वारा स्थापित प्रतिमा के कारण ही इस पूज्यस्थल का नाम गुरुवायूर पड़ा। ऐसी

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मान्यता है कि इस कलापूर्ण मंदिर का निर्माण स्वयं विश्वकर्मा किया था। कालक्रम से यह मंदिर ध्वस्त हो गया और लोग इसे भूल गए। सैकड़ों साल बाद पांड्य देश के सम्राट को किसी पंडित ने बताया कि अगले साल अमुक तिथि को सांप काटने से उसकी मृत्यु हो जाएगी। सम्राट ऐसी भविष्यवाणी सुनकर चिंतित हो उठे और निर्णय किया कि अब अंत समय आ गया, अत : तीर्थों में जाकर देवताओं की पूजा अर्चना करेंगे। इसी दौरान सम्राट का ध्यान जंगल में ध्वस्त पड़े उस मंदिर की ओर गया। उसने पूरी श्रद्धा से उस मंदिर का पुनर्निर्माण कराया। सब कार्य संपन्न हो गया, मंदिर में पुनः पूजा पाठ होने लगा। किंतु आश्चर्य की बात यह थी कि सम्राट की मृत्यु की तिथि भी बीत गई। अतएव तुरंत उस पंडित को बुलाया गया, जिसने भविष्यवाणी की थी। उसने पुनः घोषणा की कि उसकी भविष्यवाणी सत्य थी। यह कहकर पंडित ने सम्राट् के पांव में सर्प – दंश का चिह्न दिखाया और बताया कि उस दिन वे मंदिर – निर्माण के कार्य में पूरी भक्ति के साथ व्यस्त रहे। अतएव सर्प के काटने के बाद भी महादेव की कृपा से उनके प्राण बच गए। तभी से इस मंदिर की महिमा बढ़ गई और भक्तों ने यहां सुंदर तथा भव्य पूजास्थल का निर्माण किया। इस मंदिर में आदि शंकराचार्य ने भी पूजा – अर्चना की और गुरुवर आरती की परंपरा का प्रारंभ किया था। यहां नारियल के बाग बहुतायत में हैं, अत : देवता पर मुख्यतः नारियल ही चढ़ाया जाता है। इसके पीछे एक कथा भी प्रचलित है। एक किसान अपनी पहली फसल के नारियल गुरुवायूरप्पन को चढ़ाने जा रहा था। राह में डाकू के चंगुल में फंस गया। डाकू से किसान ने भगवान के लिए चढ़ाए जाने वाले नारियल छोड़ देने का अनुरोध किया। इस पर डाकू ने ताना कसा – क्या गुरुवायूरप्पन के नारियलों में सींग लगे हैं? उसके इतना कहते ही नारियल में सींग उग गए। डाकू इस चमत्कार से डरकर चला गया। वे सींग लगे नारियल आज भी इस मंदिर में रखे हैं।

यात्रा मार्ग

यहां पहुंचने के लिए कोचीन से होकर त्रिचूर तक रेल मार्ग है। वहां से गुरुवायूर की दूरी चालीस किलोमीटर की है। केरल के सीमा क्षेत्र में स्थित गुरुवायूर के मंदिर के निकट बस्ती बस गई है।

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