जानिए, कामाख्या शक्तिपीठ की महिमा,तंत्रोक्त महत्व व दर्शन विधान

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भारत के असाम राज्य में कामाख्या देवी मंदिर है। यह गुवाहटी से आठ किलोमीटर दूर अवस्थित है। यहां यह नीलाचल पर्वत पर विद्यमान है। तांत्रिक दृष्टि से इस मंदिर का विश्ोष महत्व माना जाता है। भगवती के इक्यावन शक्तिपीठों में इसे सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। यहीं भगवती की महामुद्रा यानी योनिकुंड स्थित है। काली व त्रिपुर सुंदरी के बाद कामाख्या देवी तांत्रिक दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण देवी हैं। कामाख्या देवी की पूजा भगवान शिव की नववधु के रूप में की जाती है। वह जीव की सभी इच्छायें पूर्ण कर उसे मुक्ति प्रदान करने वाली हैं।

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मंदिर के गर्भगृह में कोई प्रतिमा नहीं स्थापित है। इसके स्थान पर एक समतल चट्टान के बीच बना विभाजन देवी की योनि को दर्शाता है। प्राकृतिक झरने से यहां सदैव गीला रहता है। मान्यता के अनुसार झरने का जल प्रभावशाली है और नियमित सेवन से बीमारियां दूर होती है।कालिकापुराण, तंत्रचूडामणि, शिवचरित आदि ग्रन्थों में इक्यावन महापीठों और छब्बीस उपपीठों के वर्णन मिलते हैं। भगवान विष्णु के सुदर्शन चक्र से सती का शरीर छिन्न-विच्छन्न होकर जिन-जिन स्थानों पर गिरा, उन-उन स्थानों में शक्तिपीठों का आविर्भाव हो गया।

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इन स्थानों में देवी की नित्य स्थिति रहती है। इसलिए ये शक्तिपीठ कहलाते हैं। इक्यावन पीठों में श्रीकामाख्या महापीठ सर्वश्रेष्ठ शक्तिपीठ माना गया है। यहाँ सती देवी का योनिभाग गिरा था। इस देवीपीठ की अधिष्ठïात्री देवी तथा भैरवी कामाख्या देवी या नीलपार्वती हैं। शिव और शक्ति हमेशा एक साथ रहते हैं। कामाख्या देवी के भैरव उपानन्द शिव हैं। 

कामाख्या तीर्थ में होने वाले उत्सव और मेले

आइये, पहले जानते है, कामाख्या क्ष्ोत्र में होने वाले उत्सवों के बारे में, ताकि जब आप दर्शन को जाए तो आपको इसकी पूर्ण जानकारी हो सके और आप विधिविधान से दर्शन-पूजन कर यहां दर्शन से प्राप्त होने वाला अतुल्य पुण्य प्राप्त कर सके।

अम्बुवाची उत्सव-

पौराणिक सत्य है कि अम्बूवाची पर्व के दौरान मां भगवती रजस्वाला होती हैं तो माता भगवती के गर्भगृह स्थित महामुद्रा से निरंतर तीन दिनों तक जल प्रवाह के स्थान से रक्त प्रवाहित होता है।

कामाख्या तंत्र के अनुसार- योनि मात्र शरीराय कुंजवासिनि कामदा। रजोस्वला महातेजा कामाक्षी ध्येताम सदा॥

आषाढ़ माह में मृगशिरानक्षत्र के चतुर्थ चरण और आद्र्रानक्षत्र के प्रथम चरण के मध्य में पृथ्वी ऋतुमती होती है। इसी समय को अम्बुवाची कहते हैं। आम तौर पर हर वर्ष सौर आषाढ़ महीने के दिनांक 7 या 8 से 11 या 12 तक अम्बुवाचीयोग रहता है। इस मौके पर कामाख्या देवी मंदिर तीन दिन बंद रहता है और दर्शन नहीं होते हैं। चौथे दिन देवी का मंदिर खुलता है और अभिषेक-पूजादि समाप्त होने पर यात्रियों को दर्शन करने दिया जाता है।

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अम्बुवाची का व्रत तन्त्रोक है। इसकी असम व बंगाल में व्रत की मान्यता अधिक है। अम्बुवाची योग में जगन्माता कामाख्या देवी के रक्तवस्त्र को प्रसाद रूप में दिया जाता है। कामाख्या का रक्तवस्त्र धारण कर पूजा-पाठ करने से भक्तों की कामनाएं पूर्ण होती हैं, यह सर्वथा सत्य है इसमें संदेह नहीं है-
कामाख्यावस्त्रमादाय जपपूजां समाचरेत।
पूर्वकामं लभेद्देवि सत्यं सत्यं न संशय:।।
(कुब्जिकातंत्र)

पुष्याभिषेक-

पौष महीने की कृष्ण द्वितीय या तृतीया तिथि को पुष्यनक्षत्र योग में यह उत्सव मनाया जाता है। उत्सव के पहले दिन चलन्ता (उत्सवमूर्ति)  कामेश्वरमूर्ति को कामेश्वरमंदिर में लाकर उनका अधिवासन किया जाता है। कामाख्या मंदिर में चलन्ता कामेश्वरी मूर्ति का अधिवास होता है। दूसरे दिन कामेश्वर मंदिर से कामेश्वर की की मूर्ति ढाक-ढोल आदि वाद्ययंत्र बजाकर लायी जाती है एवं भगवती के पञ्जरत्न मंदिर में दोनों मूर्तियों का शुभ-परिणय महासमारोह के साथ पूजा-यज्ञ-यज्ञादि अनुष्ठिïत होता है। पूजा-कर्मादि के बीच कामेश्वर-कामेश्वरी की मूर्ति-प्रदक्षिणा का दृश्य विशेष रूप से आकर्षण का केन्द्र है। इस तरह हर-गौरी विवाह-महोत्सव का पालन होता है।

नीलाचल पर चढ़ने का विधान

जिस पर्वत पर कामाख्या मंदिर अवस्थित है, वह है नीलाचल पर्वत, इस नीलाचल पर्वत का धार्मिक दृष्टि से विश्ोष महत्व है, इस पर आरोहरण करने से पूर्व हमे इसे नमन करना चाहिए। इसका विधान हम आप आपको बताने जा रहे हैं। नीलाचलपर्वत पर आरोहण से पूर्व उस पर  चरण रखने की विवशता के लिये निम्न मंत्र से क्षमा माँगनी चाहिए’ देव हमें क्षमा करें –
नीलशैले गिरिश्रेष्ठï त्रिमूर्तिरूपधारक।
तवाहं शरणं पात: पादस्पर्श क्षमस्व मे।।
गिरिश्रेष्ठï नीलाचल! आप ब्रह्मïा, विष्णु तथा शिव-तीनों के स्वरूप को धारण करने वाले हैं। मैं आपकी शरण में आया हूं। मेरे द्वारा होने वाले पैर के स्पर्श के लिये आप मुझे क्षमा प्रदान करें।
पहले नीलाचलपर्वत पर चढऩे के लिए नरकासुर निर्मित चारों ओर से चार मार्ग थे। लेकिन उत्तर और पश्चिम दिशा में मार्ग संकीर्ण और दुर्गम होने के कारण उन पर यातायात नहीं होता था। धीरे-धीरे वे मार्ग लुप्त हो गये हैं।
कामाख्या देवी के मंदिर के समीप उत्तर की देवी की क्रीडापुष्करिणी है। यह तालाब सौभाग्यकुण्ड के नाम से प्रचलित है और कहा जाता है कि इस इन्द्रादि देवताओं ने बनवाया है। सौभाग्यकुण्ड के निकट ही पश्चिम की ओर स्नान, तर्पण, श्राद्घ और मुंडन की विधि है। इस कुण्ड की प्रदक्षिणा करने से पृथ्वी-प्रदक्षिणा का फल प्राप्त होता है। यात्री कुण्ड-स्नानादि संपन्न कर कुण्ड के पास ही तीर पर अवस्थित गणेशजी की मूर्ति का दर्शन करें। तदुपरान्त महामाया कामाख्या का दर्शन करने के लिए भक्तियुक्त जित्त से मंदिर में प्रवेश करेेें। कामाख्या देवी के मंदिर में प्रवेश करते ही सामने बारह स्तम्भों के मध्यस्थल में देवी की चलन्ता मूर्ति (चलमूर्ति-उत्सवमूर्ति) परिलक्षित होती है। इसी का दूसरा नाम हरगौरीमूर्ति या भागमूर्ति है। इस मूर्ति के उत्तर में वृषवाहन पञ्जवक्त्र एवं दशभुजविशिष्टï कामेश्वर महादेव अवस्थित हैं। दक्षिणभाग में षडानना, द्वादशबाहुविशिष्टïा, अष्टïादशलोचना और सिंहवाहिनी कमलासना देवी की मूर्ति है। यह मूर्ति महामाया कामेश्वरी नाम से प्रख्यात है। वार्षिक उत्सवों तथा विशेष पर्वों के दिनों में यह चलन्ता मूर्ति भ्रमण करायी जाती है। तीर्थयात्री पहले कामेश्वरी देवी एवं कामेश्वर शिव का दर्शन करते हैं। इसके बाद देवी की महामुद्रा का दर्शन करते हैं। देवी का योनि-मुद्रापीठ दस सोपान नीचे अन्धकारपूर्ण गुफा में अवस्थित होने के कारण वहां सदा दीपक का प्रकाश रहता है।
जिस प्रकार प्रयाग में मुण्डन व काशी में दण्डी-भोज करवाने की विधि है, उसी तरह कामाख्या में कुमारी-पूजा आवश्यकर्तव्य है। यहां कुमारी-पूजा करने से सभी देव-देवियों की पूजा करने का फल तथा देवी की कृपा प्राप्त हो जाती है।
कामाख्या देवी के मंदिर के अतिरिक्त महाविद्याओं के सात मंदिरों में से भुवनेश्वरी मंदिर नीलाचल पर्वत के सर्वोच्च श्रृंग पर होने से विशेष महत्व का है। 

कामाख्या शक्तिपीठ की महिमा 

कालिकापुराण  का कथन है कि जिस-जिस स्थान पर सती के पाददि अंग गिरे, वहां-वहां सती के स्नेह से आबद्घ होकर स्वयं महादेव भी लिंग रूप से अवस्थित हो गये-

यत्र यत्रापतन सत्यास्तदा पादादयो द्विजा:।
तत्र तत्र महादेव: स्वयं लिङ्गस्वरूपधृक।।
तस्थौ मोहसमायुक्त: सतीस्नेहवशानुग:।।

जिस स्थल में देवी का योनिमंडल गिरा था, वह स्थान तीर्थों का चूडामणि है। ब्रह्मपुत्रनद के तीर पर नीलाचलपर्वत पर स्थित यह स्थल महायोगस्थल के रूप में है-

तीर्थचूडामणिस्तत्र यत्र योनि: पपात ह।
तीरे ब्रह्मनदाख्यस्य महायोगस्थलं हि तत।।

कालिकापुराण का कथन है कि तीलाचल पर्वत पर देवी का योनिमण्डल गिरकर नीलवर्ण का प्रस्तर रूप हो गया, इस लिए यह पर्वत नीलाचल के नाम से विख्यात है। उसी प्रस्तरमय योनि में कामाख्या देवी नित्य अवस्थान करती हैं। जो मनुष्य इस शिला का स्पर्श करते हैं, वे अमरत्व को प्राप्त कर ब्रह्मलोक में निवास कर अन्त में मोक्षलाभ करते हैं-
सत्यास्तु पतितं तत्र विशीर्णं योनिमण्डलम।
शिलात्वमगमच्छैले कामाख्या तत्र संस्थिता।।
संस्पृश्य तां शिलां मर्त्यो ह्रमरत्वमवाप्नुयात। 
अमर्त्यो ब्रह्मसदनं तत्रस्थो मोक्षमाप्नुयात॥

नीलाचल पर सभी देवता पर्वत रूप में अवस्थित हैं और उस पर्वत का अखिल भूभाग देवी का स्वरूप है-
तत्रत्या देवता सर्वा: पर्वतात्मकर्ता गता:।
*                                *
तत्रत्या पृथिवी सर्वा देवी रूपा स्मृता बुधै:॥
——देवीभागवत

मान्यता है कि पहले यह पर्वत बहुत ऊँचा था। महामाया का गुप्त अंग पतित होने से पर्वत डगमगाने लगा। इसे क्रमश: पाताल में प्रवेश होते देख ब्रह्मïा, विष्णु एवं शिव तीनों देवों ने पर्वत के एक-एक श्रृंग को धारण किया बावजूद इसके वह पूर्ववत पातालगामी होता ही गया। तब महामाया ने अपनी आकर्षण शक्ति द्वारा पर्वत को धारण किया। यह पर्वत श्रृंग ब्रह्मïा, विष्णु एवं शिव पर्वत के नाम से श्रृंग में विभाजित है। पूर्व में जहां भुवनेश्वरी महापीठ है उसे ब्रह्मïपर्वत, मध्यभाग में जहां महामाया का पीठ है, उसे शिवपर्वत एवं पश्चिम भाग में जो पर्वत है वह विष्णुपर्वत अथा बाराहपर्वत के नाम से प्रख्यात है। बाराहपर्वत पर वाराहीकुण्ड अब भी दिखायी पड़ता है।

कामरूप का परिचय और विधान-

पुराणों की कथा के अनुसार रतिपति कामदेव शिव की क्रोधाग्नि में यहीं भस्मीभूत हुए और पुन: उन्हीं की कृपा से उन्होंने अपना पूर्वरूप भी यहीं प्राप्त किया, अत: इस देश का नाम कामरूप पड़ा-

शम्भुनेत्रग्निनिर्दग्ध: काम: शम्भोरनुग्रहात।
तत्र रूपं यत: प्राप कामरूपं ततोभवत।।
– कालिका पुराण

कुब्जिकातंत्र में कहा गया है कि यहाँ कामना के अनुरूप फल प्राप्त होता है, इसलिये यह कामरूप के नाम से प्रख्यात हुआ है। विशेषकर कलियुग में यह स्थान विशिष्ट रूप से जाग्रत है। इस कारण भी इस स्थान का नाम कामरूप पड़ा है-
कामरूपं महापीठं सर्वकामफलप्रदम।
कलौ शीघ्रफलं देवो कामरूपे जय: स्मृत:।।

कामरूप देश देवी क्षेत्र के नाम से तंत्रों और पुराणों में वर्णित है। इसके समान दूसरा स्थान नहीं है। देवी और जगहों में दुर्लभ हैं, परन्तु कामरूप में घर-घर में उनका निवास है-

कामरूपं देविक्षेत्रं कुत्रापि तत समं न च।
अन्यत्र विरला देवी कामरूपे गृहे गृहे॥
(योगिनीतंत्र, उत्तरखण्ड)

ब्रह्मïवैवर्तपुराण के श्रीकृष्णजन्मखण्ड में वर्णित है कि शुभमुहूर्त में शिव-पार्वती के विवाह के समय कामपत्नी देवी रति भी विवाहस्थलों में उपस्थित हो पतिलाभ के लिये एकाग्रचित से महादेव की वन्दना और आराधना करने लगीं। विष्णु आदि सभी देवताओं और देवियों ने भी कामदेव को पुन: जीवित करने के लिए शिव से प्रार्थना की। शूलपाणि की सुधामय दृष्टि के प्रभाव से कामदेव उस भस्म से आविर्भूत हुए। इस प्रकार शिव की कृपा से अपने पति कामदेव को प्राप्त कर रतिदेवी कृतार्थ हुईं। परंतु कामदेव को पहले का सा रूप प्राप्त न होने के करण पति और पत्नी दोनों पुन: महादेव के निकट जाकर बहुविध स्तुति करने लगे। भोलेनाथ ने संतुष्ट हो कामदेव को आदेश दिया कि भारतदेश के ईशानकोण पर तीलाचलपर्वत पर अभी भी सती देह के इक्यावन खण्डों में से एक खण्ड गुप्त रूप है। वहीं जाकर देवी की महिमा की प्रतिष्ठïा तथा उनका प्रचार करने से तुमको पहले की सी कान्ति पुन: प्राप्त हो जायेगी। तब नीलाचलपर्वत पर आकर उन्होंने महामुद्रापीठ में भक्तिपूर्वत नाना प्रकार से पूजा-अर्चादि सम्पादित की और देवी नानाविध स्तुति की। इससे भगवती प्रसन्न हुईं और उन करुणामयी जगदम्बा की कृपा से कामदेव ने अपना पूर्वरूप प्राप्त कर लिया।
इसके पश्चात् सभी देव-देवियाँ यहाँ आकर महामाया की स्तुति, पूजा आदि करने लगे। देवी महात्म्यके प्रचार के उददेश्य से कामदेव ने एक मंदिर का निर्माण करेन के लिए विश्वकर्मा का अह्वन किया। विश्वकर्मा अपने शिल्पियों के साथ छद्मवेश में यहां उपस्थित होकर इस कार्य में जुट गये और उन्होंने एक विचित्र मंदिर का निर्माण किया। मंदिर की दीवारों पर चौंसठ योगिनियों और अष्टïादश भैरवों की मूर्ति खुदवाकर कामदेव ने इसे आनन्दाख्यमंदिर के नाम से प्रचारित किया। आजकल इस मंदिर के नीचे का भाग ही शेष रह गया है। सर्वप्रथम कामदेव ने ही इस महामुद्रापीठ का माहात्म्य जगत में प्रसिद्घ किया था। इसलिये इस महामुद्रा  को मनोभवगुहा भी कहा जाता है। कामरूप का प्राचीन नाम धर्मराज्य था। कामरूप भी बहुत प्राचीन नाम है। यह पुण्यभूमि भारतवर्ष के ईशानकोण में अवस्थित है। रामायण, महाभारत, कई तंत्रों और पुराणों में भी इस कामरूप क्षेत्र का उल्लेख पाया जाता है। योगिनीतंत्र और कालिकापुराण में विशेषकर कामरूपक्षेत्र का विशद वर्णन है। यागिनीतंत्र (पूर्वखण्ड एकादशपटल) में यहां की सीमा इस प्रकार निरूपित है-पश्चिम में करतोया से दिक्करवासिनी तक, उत्तर में कज्जगिरी, पूर्व में तीर्थ श्रेष्ठï दिक्षु नदी तथा दक्षिण में ब्रह्मïपुत्र और लाक्षानदी के सङ्गïमस्थान तक कामरूप की सीमा है। कामरूप त्रिकोणाकार है। इसकी लम्बाई सौ योजन और विस्तार तीस योजन है। कालिकापुराण में भी ऐसा ही वर्णन मिलता है।
प्राचीन काल में यह क्षेत्र योगियों एवं ऋषियों का निवासस्थल था। महामुनि वशिष्ठï, गोकर्ण तथा कपिलमुनि आदि के आश्रम इसी कामरूप में अवस्थित थे। वर्तमान समय में कामरूप असम का एक जनपदमात्र रह गया है। यहां का नैसर्गिक सौन्दर्य अति मनोहर है। तीर्थ श्रेष्ठ ब्रह्मïपुत्र और कपिलागङ्ग के पवित्र स्त्रोत अभी भी इसे पवित्र किये हुए है। ब्रह्मïपुत्र ने प्रवाहित होकर इस स्थान को दो भागों में विभक्त किया है।
कामाख्या देवी के मंदिर-निर्माण के संबंध में भिन्न-भिन्न स्थानों पर विविध उल्लेख प्राप्त होते हैं। कामदेव ने विश्वकर्मा से आनन्दाख्य-मंदिर का निर्माण करवाया था। यह भी लोककथा है कि एक मंदिर नरकासुर के समय में बना था उसके चारों मार्गों पर व्याघ्रद्वार, हनुमन्तद्वार, स्वर्गद्वार, सिंहद्वार तथा प्रस्तरनिर्मित चारों पथ राजा नरकासुर ने ही बनवाये थे। नरकासुर वाराहभगवान और पृथ्वी का पुत्र था। असुर जाति का होने पर भी वह आर्यभाव से संपन्न था। भगवान नारायण ने प्रसन्न हो नकरासुर को महाफलदायी कामरूप के अन्तर्गत प्राग्ज्योतिषपुर का राज्य प्रदान किया तथा उसका विवाह विदर्भराज की कन्या माया देवी से करा दिया और बताया कि द्वापर के अन्त में तुम्हें पुत्र की प्राप्ति होगी। तुम देवताओं और ब्राह्मणों के प्रतिकूल आचरण न करना तथा अपने स्वाभाविक आसुरी-चरित्र का प्रदर्शन न करना। जगन्माता महामाया कामाख्यादेवी के अतिरिक्ति अन्य किसी की उपासना न करना, अन्यथा प्राणों से हाथ धो बैठोगे-
महादेवीं महामायां जगन्मातरमम्बिकाम।
कामाख्यां त्वं विना पुत्र नान्यदेवं यजिष्यसि॥
इतोन्यथा त्वं विहरन गतप्राणो भविष्यसि।
तस्मान्नरक यत्रेन समयं प्रतिपालयत।।
(कालिकापुराण)
नरकासुर नारायणी आज्ञा मानता गया। फलस्वरूप राज्यलक्ष्मी की वृद्घि होती गयी। इस तरह त्रेता से द्वापर तक उसने राज्य किया। वीर नरकासुर कामाख्या के प्रमुख भक्तों से एक था।
द्वापरयुग के अन्तकाल में बाणासुर शोणितपुर का राजा हुआ। बाणासुर और नरकासुर दोनों में अत्यंत घनिष्ठï मित्रता हुई। कुसंग और कुप्रेरणा से नरकासुर को ब्राह्मïणों तथा देवताओं से ईष्र्या होने लगी। फलत: असुराज नरकासुर देवी की पूजा-अर्चना के प्रति विद्वेषभावापन्न हो गया। एक दिन महर्षि वशिष्ठï महामाया के दर्शनार्थ आये। असुराज नरक ने उन्हें दर्शन में बाधा उपस्थित की। इस पर रुष्टï होकर महर्षि ने शाप दिया कि जब तक तू जीवित रहेगा महामाया सपरिवार अन्तर्धान रहेंगी-
त्वं यावज्जीविता पाप कामाख्यापि जगत्प्रभु:।
सर्वै: परिकरै: सार्द्धमन्तर्द्धानाय गच्छतु:। 
(कालिकापुराण)
एक दिन भगवती ने नरकासुर को अपनी लावण्यमयी छटा दिखायी। जिसे देखकर वह मोहित हो गया। उसने उन्हें अपनी पत्नी के रूप में अपनाने की इच्छा प्रकट की। भगवती ने उसका अन्तकाल उपस्थित जान छल करके कहा-यदि एक ही रात में तू इस पर्वत के चारों ओर चार प्रस्तर-मार्ग ओर एक विश्राम गृह का निर्माण कर देगा तो मैं तेरी पत्नी हो जाऊंगी, अन्यथा तेरी मृत्यु अवश्यम्भावी है। घमण्ड में चूर नरकासुर इस प्रस्ताव पर राजी हो गया। उसने प्रसन्नतापूर्वक कार्य प्रारम्भ किया, किन्तु वह प्रतिज्ञा पूर्ण नहीं कर सकता। अत: देवी की माया से भगवान श्रीकृष्ण ने नरकासुर का संहार कर दिया। नीलाचलपर्वत के दक्षिण में वर्तमान पाण्डुगोहाटी मार्ग पर जो पहाडिय़ां हैं, उन्हें नरकासुर पर्वत कहते हैं।
कामरूप में एक के बाद एक बहुत से हिन्दू राजा राज्य कर चुके हैं। युगपरिवर्तन होने से कुछ समय तक महामुद्रापीठ अप्रकट हो गया था। कामाख्या मंदिर का निर्माण तथा जीर्णोद्घार करने में कामदेव, नरकासुर, विश्वसिंह, नरनारायण, चिलाराय, अहोम राजा आदि के नाम उपलब्ध होते हैं। ये सब कामरूप के राजा थे। अत: कामरूप राज्य का ‘अहम’ या ‘आहोम’ शब्द के अपभ्रंश से ‘असम’ नाम हो गया।
कामरूप तथा पर्वत के चारों ओर अनेक तीर्थस्थान हैं। कामाख्या देवी के मंदिर से पाँच कोस के भीतर अवस्थित जितने भी तीर्थस्थान हैं, वे सभी कामाख्या महापीठ के ही अङ्गभूत तीर्थ के नाम से पुराणों में वर्णित हैं।

उमानन्द भैरव मंदिर की महिमा

उमानन्द कामाख्या देवीपीठ के भैरव हैं। उमानन्दभैरव का मंदिर नीलाचलपर्वत के पूर्व ब्रह्मपुत्रनद के मध्यभाग में एक शैलद्वीप पर स्थित हैं। शास्त्रों की निर्देशित विधि के अनुसार पहले उमानन्दभैरव का तदनन्तर पाण्डुघाटस्थ पञ्जपाण्डव का दर्शन करना चाहिए। अन्त में तीर्थ यात्री कामाख्या देवी के दर्शनाथ्र्थ नीलाचलपर्वत पर आरोहण करे। कामाख्या देवी की प्रीति के संवद्र्घनार्थ यात्री यहां तीन रात्रि वास करें, ऐसा विधान है।
उमानन्द महाभैरव का दर्शन कर उन्हें निम्र मंत्र से प्रणाम करना चाहिए-
धर्मकामार्थमोक्षाय सर्वपापहराय च।
नम: त्रिशूलहस्ताय उमानन्दाय वै नम:।।
प्रसीद पार्वतीनाथ उमानन्द नमोस्तु ते।
ेदेव देव महादेव शशाङ्गितशेखर।
तव दर्शनमात्रेण पुनर्जन्म न विद्यते॥
धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष प्रदान करने वाले, सभी प्रकार के पापों का नाश करने वाले तथा हाथ में त्रिशूल धारण करने वाले भगवान उमानन्द को बार-बार नमस्कार है। पार्वतीनाथ! प्रसन्न होइये। उमानन्द! आपको नमस्कार है। मस्तक पर चन्द्रमा को धारण करने वाले देव देव महादेव! आपके दर्शनमात्र से पुनर्जन्म नहीं होता।

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