भगवती के 51 शक्तिपीठों में से एक कन्याकुमारी शक्तिपीठ है। इस पावन कन्याकुमारी शक्तिपीठ पूजन-अर्चन-ध्यान से जन्मजन्मान्तर के पाप नष्ट हो जाते है। अतुल्य पुण्य की प्राप्ति होती है। जिस स्थान पर यह पावन शक्तिपीठ स्थित है, वह स्थान भी मनोहारी है, प्राकृतिक रूप से अद्बितीय और अतुलनीय है।
विशेषतौर पर यहां सूर्यास्त का दृष्य मन को हर लेने वाला है। मान्यता है कि यहां कन्याकुमारी के पास ही तीर्थघाट में स्थान करने से जीव को सारे पापों से मुक्ति मिल जाती है। उसके सारे पाप धुल जाते हैं और अंतत: उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। कन्या कुमारी से थोड़ी दूर पर गायत्री घाट, सावित्री घाट, स्याणु घाट और तीर्थ घाट हैं। प्राचीन मान्यता के अनुसार तीर्थ घाट के स्नान के बाद ही श्रद्धालु मंदिर में दर्शन के लिए जाना चाहिए। पर्यटन की दृष्टि से भी इस स्थान का खासा महत्व है। देश-विदेश पर्यटन हर वर्ष यहां पहुंचते हैं।
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कुछ को का यहां का प्राकृतिक सौन्दर्य खींच कर लाता है तो कुछ को धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण मन भावना। जो सच्ची मन भावना से इस तीर्थ में पूजन-अर्चन- स्नान करता है, उसके सभी मनोरथ पूर्ण होते है। दैवीय कृपा प्राप्त होती है। यह देश की अंतिम दक्षिणी सीमा है। इसके पूर्व में बंगाल की खाड़ी, पश्चिम में अरबसागर, दक्षिण में हिन्दमहासागर है। तीनों समुद्रों का संगम होने से यह स्थान तीर्थ बन गया। इसकी महिमा का उल्लेख महाभारत में किया गया है। कन्याकुमारी 51 शक्तिपीठों में से एक पावन पीठ हैं। यहां देवी सती का पृष्ठïभाग (मतान्तर से उध्र्वदन्त) गिरा था। यहां की देवी ‘नारायणी’ तथा भैरव ‘स्थाणु’ (मतान्तर से ‘संहार’ है।
धर्म शास्त्रों में कहा गया है कि समुद्रतट पर स्थित कन्यातीर्थ (कन्याकुमारी) में जाकर स्नान करने से मनुष्य सभी पापों से मुक्त हो जाता है-
ततस्तीरे समुद्रस्य कन्यातीर्थमुपस्पृशेत।
तत्रोपस्पृश्य राजेन्द्र सर्वपापै: प्रमुच्यते।।
– यह वनपर्व में कहा गया है –
बंगाल की खाड़ी के समुद्र में सावित्री, गायत्री, सरस्वती, कन्याविनायकादि तीर्थ हैं। देवी के मंदिर के दक्षिण में मातृतीर्थ, वितृतीथ्र्थ और भीमातीर्थ हैं। पश्चिम में थोड़ी दूर पर स्थाणुतीर्थ है। कहा जाता है कि शुचीन्द्रम में शिवलिंग पर चढ़ाया जल भूमि के भीतर से आकर यहां समुद्र में मिलता है।
कन्याकुमारी मंदिर समुद्र तट पर है। वहां स्नानघाट भी है। घाट पर गणेजी का प्राचीन मंदिर भी है। स्नानकर गणेशजी के दर्शन करने के बाद लोग कन्याकुमारी के दर्शन करने मंदिर में जाते हैं। कई द्वारों के भीतर जाने पर कुमारी देवी के दर्शन होते हैं। देवी की प्रतिमा भावोत्पादक एवं भव्य है। देवी के एक हाथ में माला है।
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्निज-मंदिर के उत्तर में अग्रहार के बीच भ्रदकाली का पावन मंदिर है। ये देवी कुमारी देवी की सखी मानी जाती हैं। कन्याकुमारी 51 शक्तिपीठों में से एक हैं। मंदिर में और भी अनेक देव-विग्रह हैं। मंदिर से थोड़ी दूर पर पापविनाशनम पुष्करिणी है। यहां समुद्रतट पर ही एक बावली है, जिसका जल अति मीठा है। यात्री इस बावली के जल से स्नान करते हैं। इसे ‘मण्डूकतीर्थ’ भी कहते हैं। यहां समुद्रतट पर लाल तथा काली बारीक रेत मिलती है तथा श्वेत मोटी रेत भी मिलती है। जिसके दाने चावल-सरीखे लगते हैं। समुद्र में शंख, सीपी आदि भी बहुतायत में हैं।
देवी के मंदिर के दर्शन के पश्चात नावद्वारा लोग विवेकानन्द शिलापर स्थित विवेकानन्द जी की प्रतिमा के दर्शन-के लिए जाते हैं। यह शिला समुद्र में मंदिर से थोड़ी दूर ही है। बताया जाता है कि स्वामी विवेकानन्दजी इस शिलापर बैठकर चिन्तन-मनन करते थे।
शुचीन्द्रम क्षेत्र को ‘ज्ञानवनक्षेत्रम’ भी कहते हैं। महर्षि गौतम के शाप से इन्द्र को यहीं मुक्ति मिली और वे शुचि (पवित्र) हो गये, इसलिये इस स्थान का नाम ‘शुचीन्द्रम’ पड़ा।
कन्याकुमारी में होते है विशेष उत्सव
आश्विन नवरात्र, चैत्रपूर्णिमा, आषाढ़-अमावास्या, आश्विन-अमावास्या, शिवरात्रि आदि पर्वों पर विशेष उत्सव होते हैं। विशेष उत्सवों पर देवी का हीरों से श्रृंगार किया जाता है। रात्रि में देवी का विशेष श्रृंगार होता है।
भगवती कन्या कुमारी की पवन गाथा-
असुर बाणासुर ने घोर तपस्या करके भगवान शंकर को प्रसन्न कर अमरत्व का वर माँगा। शंकर जी ने कहा कि कुमारी कन्या के अलावा तुम अन्य सभी केे लिए अजेय होओगे। भगवान शिव से इस प्रकार का वर प्राप्त कर बाणासुर घोर उत्पाती बन गया। देवताओं पर भी उसने विजय प्राप्त कर ली, इतना ही नहीं, देवलोक में उसने त्राहि-त्राहि मचा दी। तब भगवान विष्णु के परामर्श से देवताओं ने एक महायज्ञ का आयोजन किया। देवताओं द्वारा किये गये यज्ञ की चिदग्रि से माता दुर्गा अपने एक अंश से कन्या रूप में प्रकट हुईं।
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देवी ने पति रूप में शंकर को पाने के लिए दक्षिण समुद्रतट पर कठोर तप किया। तपस्या से प्रसन्न हो भगवान आशुतोष ने उनका पाणिग्रहण स्वीकारा। देवताओं को चिंता हुई कि इनके पाणिग्रहण होने पर तो बाणासुर का वध न हो सकेगा। अतएव नारदजी ने विवाहार्थ आ रहे शंकर जी को शुचीन्द्रम नामक स्थान पर अनेक प्रपञ्जों में उलझाकर इतनी देर तक रोके रखा कि प्रात:काल हो गया और विवाहमुहूर्त टल गया। भगवान शंकर वहीं स्थाणुरूप में स्थित रह गये। देवताओं की युक्ति काम कर गयी। अपना अभीष्टï अपूर्ण रहने के कारण देवी ने पुन: तपस्या करनी शुरू की। मान्यता है कि अभी तक वे कुमारी रूप में तपस्यारत हैं। अपने दूतोंद्वारा तपस्या में लीन देवी के अद्भुत सौन्दर्य का वृतान्त जानकर बाणासुर देवी के पास गया और उनसे विवाह करने के लिए हठ करने लगा। फलत: देवी में और बाणासुर में घोर युद्घ हुआ। अन्तत: देवी के हाथों बाणासुर का वध हुआ और देवगण आश्वस्त हुए। उन्हें असुर के त्रास से मुक्ति मिली।
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