विमलवसाहि जैन मंदिर : पाप – प्रायश्चित किया था

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विमलवसाहि मंदिर

vimalavasaahi mandir : paap – praayashchit kiya thaविमलवसाहि मंदिर का निर्माण विमलशाह ने कराया। विमलशाह गुजरात के चालुक्य महाराजा भीमदेव प्रथम के मंत्री व सेनापति थे। इनके नेतृत्व में अनेक युद्ध हुए , जिनमें सहस्रों प्राणियों का संहार हुआ। विमलशाह को आबू के समीप चंद्रावती का प्रशासक नियुक्त किया गया। मानव – संहार के पाप – प्रायश्चित स्वरूप जैनाचार्य श्री धर्मघोष सूरी ने आबूतीर्थ का उद्धार करने को कहा। विमलशाह अंबिकादेवी का उपासक था अत देवी की आराधना की। देवी उसकी भक्ति और पुण्य से प्रभावित होकर प्रकट हुईं। विमलशाह ने एक पुत्र – प्राप्ति का तथा दूसरा आबू पर्वत पर एक मंदिर बनाने का वरदान मांगा। देवी ने एक ही इच्छित वरदान मांगने के लिए कहा। विमल ने अपनी धर्मपत्नी से विचार कर मंदिर बनाने का वर मांगा, यह सोचकर कि पुत्र कभी सपूत और कभी कपूत निकलते हैं, जिससे चिरकाल तक नाम अमर नहीं रह सकता। देवी ने मंदिर बनाने का वरदान दिया। विमलशाह ने आबू पर्वत पर आकर स्थान पसंद किया, किंतु स्थानीय ब्राह्मणों ने विरोध किया कि यह हिंदुओं का तीर्थस्थल है यहां पहले जैनमंदिर था यह सिद्ध करो। विमल ने पुन अंबिका देवी की आराधना की। देवी ने स्वप्न में उसे बताया कि चंपा के पेड़ के नीचे जहां कुंकुम का स्वस्तिक दिखाई पड़े उस स्थल को खुदवाने से कार्य सिद्धि होगी। खुदाई करने पर प्रथम जैन तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव की अति प्राचीन मूर्ति निकली, जिसे उसी स्थान पर स्थापित किया गया। ब्राह्मणों को जमीन की मुंहमांगी कीमत दी गई और मंदिर का कार्य प्रारंभ किया गया।

मंदिर निर्माण

विमलवसाहि का यह मंदिर सन् 1031 ई . में बनकर तैयार हुआ, जिस पर उस समय 18 करोड़ 53 लाख रुपये की लागत आई। मंदिर निर्माण में 1500 शिल्पियों तथा 1200 श्रमिकों ने 14 वर्ष का समय लिया। प्रतिष्ठा मंदिर की प्रतिष्ठा जैन आचार्य वर्द्धमानसूरि के द्वारा सन् 1031 ई . में हुई, जिसमें प्रथम जैनतीर्थंकर ऋषभदेव ( आदिनाथ ) की सफेद संगमरमर पत्थर से निर्मित परिकरयुक्त प्रतिमा स्थापित की गई। विमलशाह के वंशज पृथ्वीलाल ने संवत् 1204 से 1206 तक इस मंदिर की कई देहरियों का कार्य करवाया तथा अपने पूर्वजों की कीर्ति को चिर स्थाई करने हेतु इस मंदिर के सामने ही ‘ हस्तिशाला ‘ बनवाई। जीर्णोद्धार सन् 1311 ई में दिल्ली के मुसलमान शासक अलाउद्दीन खिलजी की सेना ने जालोर विजय से लौटते हुए मंदिर को क्षतिग्रस्त किया, जिसका जीर्णोद्धार भंडार ( जोधपुर ) निवासी बीजड़ और लालग नामक भाइयों ने किया। मंदिर के मुख्य द्वार में प्रवेश करते ही सफेद संगमरमर के पाषाणों से निर्मित मंदिर की छतों, गुंबदों, तोरणद्वारों आदि की अलंकृत नक्काशी, शिल्पकला की भव्यता और सुकोमलता की झलक दिखाई पड़ती है। प्रवेश द्वार के बाईं ओर से प्रदक्षिणा प्रारंभ होती है। प्रदक्षिणा में 57 देहरियां हैं, जिनमें विभिन्न जैन तीर्थंकरों की परिकर सहित सुंदर मूर्तियां स्थापित हैं। प्रत्येक देहरी के नक्काशीयुक्त द्वार के बाहर दो – दो गुंबद हैं, जिनकी छतों पर उत्कीर्ण शिल्पकला नयनाभिराम है।

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पीतलहर मंदिर

इस मंदिर को गुजरात के भीमाशाह ने बनाया था अतएव इसे भीमाशाह का मंदिर भी कहते हैं। मंदिर का निर्माण सन् 1374 ई से सन् 1433 ई . के मध्य का माना जाता है। इस मंदिर का जीर्णोद्धार गुजरात के मंत्री सुंदर ‘ एवं ‘ गदा ‘ नामक व्यक्तियों ने करवाकर प्रथम जैन आचार्य ऋषभदेव भगवान की वर्तमान पंचधातु की मूर्ति सन् 1468 ई में स्थापित की, जिसकी प्रतिष्ठा आचार्य श्री लक्ष्मीसागर सूरि द्वारा संपन्न हुई। सूत्रधार मेवाड़ का शिल्पी देता ‘ था। मूलनायक की मूर्ति डूंगरपुर के कारीगरों द्वारा बनाई गई, जिसका वजन लगभग 40 क्विटल है। पंचधातु की इस मूर्ति में पीतल की मात्रा अधिक होने से इसे पीतलहर मंदिर ‘ भी कहा जाता है। गूढ मंडप के बाएं बाजू में श्वेत पाषाण की सुंदर परिकर वाली बड़ी मूर्ति भगवान आदिनाथजी की विक्रमी संवत् 1525 में श्रावक सिन्हा और रत्ना ने बनवाई। दाहिने बाजू में पार्श्वनाथ भगवान की मूर्ति है। मंदिर कार्य अधूरा होने से ये मूर्तियां स्थापित नहीं हो सकी हैं।

लूणावसाहि मंदिर

गुजरात के सोलंकी राजा भीमदेव ( द्वितीय ) के मंत्री वस्तुपाल एवं तेजपाल ने आबू के परमार राजा सोमसिंह की अनुमति लेकर विमलवसाहि मंदिर के पास वैसे ही सफेद संगमरमर के पाषाणों से इस भव्य मंदिर का निर्माण कराया। वस्तुपाल एवं तेजपाल दोनों भाई थे। वस्तुपाल के छोटे भाई तेजपाल तथा उनकी धर्मपत्नी अनुपमा देवी के पुत्र लावण्यसिंह के नाम पर यह लूणावसाहि मंदिर कहलाता है। इस मंदिर में 22 वें जैनतीर्थंकर श्रीनेमिनाथ भगवान की कसौटी के पत्थर की अत्यंत ही रमणीय मूर्ति स्थापित है, जिसकी प्रतिष्ठा जैन आचार्य श्रीविजयसेन सूरि द्वारा विक्रमी संवत् 1287 ई . ( सन् 1231 ई . ) की चैत्र वदी 3 रविवार को संपन्न हुई। मंदिर का शिल्पकार ‘ शोभनदेव ‘ था। निर्माण में उस समय 13 करोड़ से भी अधिक रुपये की राशि व्यय हुई। विक्रमी संवत् 1368, में मुसलमान बादशाह अलाउद्दीन खिलजी की सेना ने इस मंदिर के मूल गर्भ – गृह और गूढ़ मंडप को नष्ट कर दिया तथा कुछ अन्य भागों को भी क्षति पहुंचाई, जिसका जीर्णोद्धार व्यवसायी चंडसिंह के पुत्र पथड़ने सवत् 1378 में कराया तथा श्रीनेमिनाथ भगवान की श्याम वर्ण की सुंदर मूर्ति स्थापित की गई।

पार्श्वनाथ मंदिर

मंदिर के प्रवेश द्वार के बाईं ओर तीन मंजिला चिंतामणि पार्श्वनाथ का चौमुखा मंदिर है। इस मंदिर को श्वेतांबर जैनियों के खरतरगच्छ समुदाय के अनुयायी दरड़ा गोत्रीय ओसवाल संघवी ‘ मंडलिक ‘ तथा उसके कुटुंबियों ने बनवाया था, अतएव इसे ‘ खरतरवसाहि ‘ मंदिर कहा जाता है। इस मंदिर की तीनों मंजिलों की चारों दिशाओं में भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमाएं स्थापित हैं, इस कारण इसे ‘ चौमुखा पार्श्वनाथ मंदिर ‘ भी कहते हैं। इसे ‘ कारीगरों ( सिलावटों ) का मंदिर ‘ तथा यह कहना कि इस मंदिर को कारीगरों ने अन्य मंदिरों के बचे हुए सामान से बिना पारिश्रमिक लिए बनाया, निराधार है। यह मंदिर विमलवसाहि के निर्माण के लगभग 425 वर्ष पश्चात् तथा लूणावसाहि के निर्माण के 225 वर्ष बाद बना और इस मंदिर में प्रयुक्त पत्थर भी उक्त दोनों मंदिरों के पत्थरों से बिल्कुल भिन्न हैं। इस मंदिर में कई शिलालेख विभिन्न खंडों पर लगी प्रतिमाओं पर विद्यमान हैं, जो इस मंदिर का निर्माण मंडलिक ‘ द्वारा किए जाने को प्रमाणित करते हैं। यह मंदिर सादा परंतु विशाल है। मंदिर के चारों ओर मूलनायक श्रीपार्श्वनाथ की श्वेत संगमरमर की प्रतिमाएं एवं चारों परिसर अत्यंत ही कलात्मक हैं। मंदिर के चारों ओर बड़े – बड़े रंग मंडप हैं। मंदिर की बाहरी दीवारों पर दिकपालों, यक्षिणियों, सालभंजिकाओं और स्त्रियों की शृंगारिक शिल्प कृतियां भाव – अभिव्यक्ति की दृष्टि से आकर्षक हैं। मंदिर के मुख्य द्वार में प्रवेश करते ही मंदिर का आकर्षक एवं भव्य स्वरूप दिखाई देता है। इस मंदिर की रचना विमलवसाहि मंदिर के ही समान है। इसमें 52 देहरियां हैं तथा एक हस्तिशाला है। प्रत्येक देहरी में विभिन्न जैन तीर्थंकरों की मूर्तियां स्थापित हैं। मंदिर की ही भांति इस मंदिर की प्रत्येक देहरी के बाहर दो – दो गुंबद हैं, जिनकी छतों पर उत्कीर्ण नक्काशी अवलोकनीय है।

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