सामवेद मंत्र 983 में भौतिक अग्नि के वर्णन द्वारा परमात्मा की महिमा का प्रकाशन है। मंत्र निम्न है।
वातोपजूत इषितो वशां अनु तृषु यदन्ना वेविषद्वितिष्ठसे।
आ ते यतन्ते रथ्यो३ यथा पृथक् शर्धांस्यग्ने अजरस्य धक्षत:।।
मंत्र का पदार्थ सामवेद भाष्यकार वेदमूर्ति आचार्य (डॉ०) रामनाथ वेदालंकार जी रचित:- हे भौतिक अग्नि! वायु से कंपित किया हुआ, अभीष्ट वनस्पतियों को लक्ष्य करके प्रेरित हुआ तू तुरन्त जब अन्नों अर्थात् भक्ष्य वनस्पति आदियों में व्याप्त होता हुआ इधर-उधर चंचल होता है, तब जीर्ण न होते हुए तथा जलाते हुए तुझ अग्नि के ज्वालारूपी तेज रथारोही योद्धाओं के समान पृथक्-पृथक् दिशाओं में उठते हैं। (यहां मंत्र में उपमा अलंकार है।)
भावार्थ:- जैसे रथारोही योद्धा लोग संग्राम में पृथक्-पृथक् विभिन्न दिशाओं में शत्रुओं पर प्रहार करते हैं, वैसे ही जंगलों को भस्म करने के लिए उद्यत अग्नि-ज्वालाएं पृथक्-पृथक् विभिन्न दिशाओं में जलाने का कार्य करती हैं।