आखिर यम को देना पड़ा जीवनदान

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वट सावित्री व्रत अत्यन्त पुण्यकारी माना जाता है। मूलत: यह व्रत सौभाग्यवती स्त्रियों का है, हालांकि इसे सभी स्त्रियां कर सकती है। इस व्रत को करने का विधान त्रयोदशी से पूर्णिमा या अमावस्या तक है। आजकल इस व्रत को ही अमावस्या करने का विधान है। इस दिन वट यानी बड़ या बदरगद का पूजन होता है। इस व्रत को स्त्रियां अखंड सौभाग्यवती रहने के लिए करती है।
व्रत का विधान- प्रात: काल स्थान आदि के पश्चात बांस की टोकरी में रेत भरकर ब्रह्मा की मूर्ति की स्थापना करनी चाहिए। इसी प्रकार दूसरी टोकरी में सत्यवान तथा सावित्री की मूर्तियों की स्थापना करके टोकरियों को वट वृक्ष के नीचे ले जाकर रखना चाहिए। ब्रह्मा और सवित्री के पूजन के बाद सावित्री और सत्यवान की पूजा करके बड़ की जड़ में पानी देना चाहिए। पूजा के जल, मौली, रोली, कच्चा सूत, भिगोया हुआ चना, फूल तथा धूप होनी चाहिए। जल से वट वृक्ष को सींच कर तने के चारों ओर कच्चा धागा लपेट कर तीन बार परिक्रमा करनी चाहिए। बड़ के पत्तों के गहने पहन कर बट सावित्री की कथा सुननी चाहिए। भीगे हुए चनों का बायना निकालकर नकद रुपए रखकर सास जी को चरण स्पर्श करना चाहिए। अगर सास दूर हो तो बायना बनाकर वहां भेज देना चाहिए। वट तथा सावित्री की पूजा के पश्चात प्रतिदिन पान, सिंदूर तथा कुमकुम से सुवासिनी स्त्री के पूजन का भी विधान है। पूजा की समाप्ति पर व्रत के फलदायक होने के लक्ष्य से ब्राह्मणों को वस्त्र और फल आदि वस्तुएं बांस के पात्र में रखकर दान करनी चाहिए।

वट सावित्री व्रत पावन कथा-

भद्र देश के राजा अश्वपति ने पत्नी समेत संतान के लिए सावित्री देवी का विधि पूर्वक व्रत और पूजन करके पिता और पति दोनों के घरों का श्रृंगार वाली पुत्री होने का वर प्राप्त किया। सर्व गुणों से सम्पन्न देवी सावित्री ही पुत्री के रूप में अश्वपति के घर कन्या के रूप में जन्मी और शुक्ल पक्ष के चंद्रमा की भांति बढ़ती-बढ़ती युवा हो गई। अश्वपति ने अपने मंत्री के साथ उसे अपने पति का चयन करने के लिए भेज दिया। सावित्री अपने मन के अनुकूल वर का चयन करके जिस दिन लौटी, उसी दिन देवर्षि नारद अश्वपति के यहां पधारे। नारद के पूछने पर सावित्री ने कहा कि महाराज द्युमत्सेन जिनका राज्य हर लिया गया है, जो अंधे पत्नी सहित वनों-वनों की खाक छानते फिर रहे हैं, उन्हीं के एकलौते सत्यवान को भावनात्मक स्तर पर मैने अपना पति होना स्वीकार कर लिया है।

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नारद जी ने सत्यवान तथा सवित्री के ग्रहों की गणना करके अश्वपति को बधाई दी तथा सत्यवान के व्यक्तित्व के गुणों की भूरी-भूरी प्रशंसा भी की। लेकिन नररत्न के बारे नारद ने यह भी बता दिया कि जब सावित्री 12 वर्ष की हो जाएगी, तब सत्यवान परलोक सिधार जाएगा। ऐसे अपशगुन की भविष्यवाणी सुनकर अश्वपति ने सावित्री से अन्य वर ढूंढने के लिए कहा। पर पतिव्रता तथा एकनिष्ठ आस्था वाली स्त्री ने उत्तर दिया- पिता जी, मैं आर्यकुमारी हूं, आर्य नारियां जीवन में एक ही बार पति का चयन करती हैं। मैंने भी सत्यवान का वरण कर लिया है। अब वह चाहे अल्पायु हो या दीर्घायु।

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मैं किसी अन्य को हृदय में स्थान नहीं दे सकती हूं। विवाह हो गया। सवित्री अपने श्वसुर परिवार के साथ जंगल में रहने लगी। वह सास व श्वसुर की बड़ी सेवा करती थी। समय बीतता गया, आखिरी सावित्री 12 वर्ष की हो गई, उस दिन जब सत्यवान लकड़िया काटने के चला तो सास- श्वसुर से आज्ञा लेकर वह उसके साथ चल दी। जंगल में सत्यवान ने मीठे-मीठे फल लाकर सावित्री को दिए और स्वयं एक पेड़ पर लकड़ियां काटने के लिए चढ़ गया। थोड़ी देर के बाद उसके सिर में भयंकर दर्द उठा। वह नीचे उतरा। सावित्री ने उसे पास के बड़ के पेड़ के नीचे लिटा कर सिर अपनी जांघ पर रख लिया। सावित्री का हृदय कांप रहा था।

देखते ही देखते यमराज ने ब्रह्मा के विधान की रूपरेखा सावित्री के सामने स्पष्ट की और प्राणों को लेकर चल दिए। कहीं- कहीं ऐसा भी उल्लेख मिलता हैं कि वट वृक्ष के नीचे लेटे हुए सत्यवान को सांप डस गया था। सावित्री ने भी यमराज का पीछा करना शुरू कर दिया। पीछे आती हुई सावित्री को देखकर यमराज ने उसे लौटने का आदेश दिया। उत्तर में वह बोली- पत्नी के के पत्नीत्व की सार्थकता इसी में है कि वह उसकी छाया के समान अनुसरण करें। मैं ऐसा ही कर रही हूं। मेरी मर्यादा है, इसके विरुद्ध कुछ भी बोलना, आपके लिए शोभनीय नहीं।

सावित्री की धर्मनिष्ठा देखकर यमराज ने पति के प्राणों के अतिरिक्त कुछ भी वरदान के रूप में मांगने के लिए कहा। सावित्री ने यमराज से सांस-श्वसुर की आंखों की खोयी हुई ज्योति तथा दीर्घायु मांंग ली। यमराज तथास्तु कहकर आगे बढ़ गए। सावित्री फिर यमराज के पीछे-पीछे हो ली। थोड़ी दूर जाने पर यमराज ने देखा तो सावित्री कोे पीछे ही आते ही पाया। यमराज ने उसे आगे बढ़ने से रोकर विपरीत दिशा में जाने का आदेश दिया। इस पर सावित्री ने पुन: कहा कि धर्मराज, पति के बिना नारी के जीवन की कोई सार्थकता नहीं। हम पति-पत्नी भिन्न मार्ग कैसे अपना सकते है? जिस ओर मेरे पति जाएंगे, मेरे लिए भी वहीं मार्ग सुगम है।

यमराज ने सावित्री के पतिव्रत धर्म की निष्ठा पाकर पुन: वरदान मांगने को कहा। सावित्री ने सौ भाइयों की बहन होने का वर मांग लिया। यमराज पुन: तथास्तु कहकर आगे पग बढ़ाने लगे। सावित्री अब भी उनके पीछे चली जा रही थीं। यमराज ने मुड़कर देखा तो ठिठक गया और सावित्री से निवेदन किया। भद्रे, यदि अभी तुम्हारे मन में कोई कामना हो तो कहों। जो मांगोंगी, वही मिलेगा। मुंह मांगा वर पाकर सावित्री ने कहा, जीवनदाता यदि आप सचमुच मुझ पर प्रसन्न है और सच्चे हृदय से वरदान देना चाहते है तो मुझे सौ पुत्रों की मां बनने का वरदान दो।
यमराज तथास्तु कहकर आगे बढ़ गए। सावित्री अब भी यमराज का पीछा किये जा रही थी। यम ने फिर पीछे मुड़कर देखा और कहा कि अब आगे मत बढ़ो। तुम्हें मुंहमांगा वर दे चुका हूं। इतने पर भी पीछा क्यों कर रही हो? सावित्री ने विनम्रता पूर्वक दोहराया कि धर्मराज आपने मुझे सौ पुत्रों की मां बनने का वर दिया है, लेकिन क्या पति के बिना मैं संतान को जन्म दे सकती हूं। मुझे मेरा वर मिलना चाहिए। तभी मैं आपका वर पूरा कर सकूंगा। सावित्री की धर्मनिष्ठा, विवेक तथा पतिव्रत की बात ध्यान कर यमराज ने सत्यवान को अपने पाश से स्वतंत्र कर दिया। प्राण लेकर तथा यमराज का अभिनंदन करके सावित्री उसी वट वृक्ष के नीचे पहुंची, जहां सत्यवान ने प्राण छोड़े थे। सावित्री ने प्रणाम कर वट वृक्ष की ज्यो ही परिक्रमा पूरी की, सत्यवान जीवित हो गया।

प्रसन्न चित्त सावित्री पति सहित अपने सास- श्वसुर के पास गई, उन्हें नेत्र ज्योति मिल गई थी, उनके मंत्री उन्हें खोज चुके थे। द्युमत्सेन ने पुन: राज सिंघासन संभाला। महाराज अश्वसेन सौ पुत्रों के पिता हुए और सावित्री सौ भाइयों की बहन। सावित्री भी वरदान के प्रभाव से सौ पुत्रों की मां बनी। इस प्रकार चारों दिशाएं सावित्री के पतिव्रत धर्म के पालन की कीर्ति से गूंज उठी। इसी चरित्र का ध्यान करके अब महिलाएं व्रत करती है।

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