भगवान जगन्नाथ के अनुपम प्राकट्य की गाथा, इसलिए रथयात्रा निकाली जाती है

1
1835

बात द्वापरयुग की है, जब द्बारिका में श्रीकृष्णचंद्र की पटरानियों ने एक बार माता रोहिणीजी के भवन जाकर उनके आग्रह किया कि वे उन्हें श्याम सुंदर की व्रज लीला के गोपी प्रेम प्रसंग को सुनाएं। माता ने इस बात को टालने की बहुत प्रयास किया, लेकिन पटरानियां के आग्रह को वह टाल नहीं सकी। अन्तः उन्हें वर्णन सुनाना ही पड़ा। ऐसे में उचित नहीं था कि वहां सुभद्रा भी रहें, इसलिए माता रोहिणी ने सुभद्रा को भवन के द्बार के बाहर रहने को कहा और आदेश दिया कि वे किसी को अंदर नहीं आने दें।

संयोगवश उसी समय श्रीकृष्ण व बलराम वहां आ गए। सुभद्रा ने दोनों भाइयों को द्बार के मध्य में खड़े होकर अपने दोनों हाथों को फैलाकर भीतर जाने से रोक दिया। बंद द्बार के भीतर जो व्रजप्रेम की वार्ता चल रही थी, उसे द्बार के बाहर से ही यत्किंचित् सुनकर तीनों के शरीर द्रवित होने लगे। उसी समय देवर्षि नारद वहां आ गए। देवर्षि नारद ने यह जो प्रेम द्रवित रूप देखा तो प्रार्थना की कि आप तीनों इसी रूप में विराजमान हो। श्री कृष्ण चंद्र ने स्वीकार किया कि कलयुग में दारुविग्रह में इसी रूप में हम तीनों स्थित होंगे।

Advertisment

प्राचीनकाल में मालवदेश के नरेश इन्द्रद्युम्न को पता लगा कि उत्कल प्रदेश में कहीं नीलाचल पर भगवान नीलमाधव का देवपूजित श्रीविग्रह है। वे परम विष्णु भक्त उस श्री विग्रह का दर्शन करने का प्रयास करने लगे। उन्हें स्थान का पता लग गया था, लेकिन वे वहां पहुंचें इसके पूर्व ही देवता उस श्रीविग्रह को लेकर अपने लोक चले गए थे। उसी समय आकाशवाणी हुई कि दारुब्रह्मरूप में तुम्हें अब श्री जगन्नाथ जी के दर्शन होंगे।
महाराज इन्द्रद्युम्न सपरिवार आये थे। वे नीलाचल के पास ही बस गए। एक दिन समुद्र में एक बड़ा काष्ठ यानी महादारु बहकर आया। राजा इन्द्रद्युम्न ने उसे निकालवा लिया। इससे विष्णु मूर्ति बनवाने का उन्होंने निश्चय किया। उसी समय वृद्ध बढई के रूप में विश्वकर्मा उपस्थित हुए।

उन्होंने मूर्ति बनाना स्वीकार कर लिया, लेकिन निश्चय करा लिया कि जब तक वे सूचित न करें, उनका वह गृह खोला न जाए, जिसमें वह मूर्ति बनवायेंगे। महादारु को लेकर वह वृद्ध बढ़ई गुंडीचामंदिर के स्थान पर भवन में बंद हो गए। अनेक दिन व्यतीत हो गए। महारानी ने आग्रह आरम्भ किया कि इतने दिनों में वह वृद्ध मूर्तिकार अवश्य भूख-प्यास से मर गया होगा या मरणासन्न होगा। भवन के द्बार खोलकर उसकी अवस्था देख लेनी चाहिए। इस पर महाराज ने द्बार खुलवाया। वहां पर बढ़ई तो अदृष्य हो चुका था, लेकिन वहां श्री जगन्नाथ, सुभद्रा और बलराम जी की अपूर्ण प्रतिमायें मिली। राजा को इस पर बहुत दुख हुआ कि मूर्तियां पूर्ण नहीं हो सकी है, लेकिन उसी समय आकाशवाणी हुई कि चिंता मत करों।

इस रूप में रहने की हमारी इच्छा है। मूर्तियों पर पवित्र द्रव्य यानी रंग आदि चढ़ाकर उन्हें प्रतिष्ठित कर दो। इस आकाशवाणी को सुनकर वे ही मूर्तियां प्रतिष्ठित कर दी गईं। गुडीचामंदिर के पास मूर्ति निर्माण हुआ था, इसलिए गुडीचामंदिर को ब्रह्मलोक या जनकपुर कहते हैं।

द्बारिका में एक बार श्री सुभद्रा जी ने नगर देखना चाहा। श्री कृष्ण और बलराम जी ने उन्हें पृथक रथ में बैठाकर अपने रथों के मध्य में उनका रथ करके उन्हें नगर दर्शन कराने ले गए। इसी घटना के स्मारक रूप में यहां रथ यात्रा निकाली जाती है। यह भगवान जगन्नाथ के काष्ठविग्रह रूप की पावन गाथा है।

सनातन धर्म, जिसका न कोई आदि है और न ही अंत है, ऐसे मे वैदिक ज्ञान के अतुल्य भंडार को जन-जन पहुंचाने के लिए धन बल व जन बल की आवश्यकता होती है, चूंकि हम किसी प्रकार के कॉरपोरेट व सरकार के दबाव या सहयोग से मुक्त हैं, ऐसे में आवश्यक है कि आप सब के छोटे-छोटे सहयोग के जरिये हम इस साहसी व पुनीत कार्य को मूर्त रूप दे सकें। सनातन जन डॉट कॉम में आर्थिक सहयोग करके सनातन धर्म के प्रसार में सहयोग करें।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here