महाभारत के शांतिपर्व में एक रोचक और शिक्षाप्रद प्रसंग है, जो हम बताता है कि ईश्वर हमारे कितने करीब रहता है, जब भी हम उसका ध्यान करते हैं, वह भी हमारा ध्यान करता है। बस जरूरत होती है कि साधक अपना सर्वस्व न्यौछावर कर उनके ध्यान में मग्न हो। जब साधक अपने को पूर्ण रूप से समर्पित करके उनका ध्यान करता है तो भगवान वासुदेव भी उसमें भी अपना ध्यान लगाते हैं।
द्बापरयुग की बात है, एक समय धर्मराज युधिष्ठिर भगवान कृष्ण के पास आए और हाथ जोड़कर खड़े हो गए। उन्होंने देखा भगवान कृष्ण रत्नों और सुवर्णों से भूषित एक बड़े पलंग पर बैठे हुए है। उनकी श्याम सुंदर छवि मन मोहक है। उनकी श्याम छवि नीलमेघ के समान सुशोभित हो रही है। शरीर से अनुपम तेज निकल रहा है। उनके अंग-अंग में दिव्य आभूषण शोभा पा रहे है। उनका पीताम्बर श्याम विग्रह स्वर्ण जड़ित नीलम के समान प्रतीत हो रहा है। वक्ष स्थल पर कौस्तुभमणि चमक रही है। इस मनोहर झांकी की तीनों लोकों में अन्यत्र कहीं भी तुलना नहीं है।
दर्शन के बाद भगवान कृष्ण के निकट पहुंचकर राजा युधिष्ठिर मुस्कराते हुए बोले कि हे प्रभु, आप की ही कृपा से हमने यह अखंड साम्राज्य पाया है। आप ही की दया से हम विजयी हुए हैं। हम धर्म पथ से भी आप ही कृपा से भ्रष्ट नहीं हुए हैं। इस राजा युधिष्ठिर ने तमाम बाते कहीं, लेकिन भगवान श्री कृष्ण ने उनकी किसी बात का उत्तर नहीं दिया। उस समय भगवान कृष्ण ध्यान मग्न थे।
भगवान को इस स्थिति में देखकर युधिष्ठिर ने कहा कि भगवान यह आप, आप किसी का ध्यान कर रहे हैं? यह तो बड़े ही आश्चर्य की बात है। हे माधव, हे कृष आपके रोंगटे खड़े हो गए है। शरीर जरा भी नहीं हिल-डुल रहा है। आपकी बुद्धि व मन भी स्थिर है। आपका यह विग्रह काठ, दीवार और पत्थर की निश्चेष्ट हो रहा है। तनिक भी हलचल नहीं है। जहां हवां नहीं है। उस स्थान में जैसे दीपक की लौ कांपती नहीं है, एकतार जलती रहती है। उसी तरह से आप स्थिर प्रतीत हो रहे हैं। लगता है कि आप कोई पाषाण मूर्ति हैं। यदि मै सुनने का अधिकारी हूं और मुझसे छिपाने की बात न हो तो आप मेरे संदेह को दूर कीजिए। मैं आपकी शरण में बार-बार याचना करता हूं। हे पुरुषोत्तम , हे कृष्ण आपक ही इस जगत को बनाने और बिगाड़ने वाले हो। आप ही क्षर और अक्षर पुरुष हो। आपका न कोई आदि है और न ही कोई अंत है। आप सबके आदि कारण हो, मैं आपका शरणागत भक्त हूं। माथा टेक कर आपके चरणों में प्रणाम करता हूं। आप मुझे इस ध्यान का रहस्य बता दीजिए।
युधिष्ठिर की प्रार्थना सुनकर मन-बुद्धि और इंद्रियों को अपने स्थान पर स्थिर करके भगवान श्री कृष्ण बोले कि भैया, बाणशय्या पर पड़े हुए भीष्म जी इस समय मेरा ध्यान कर रहे हैं। इसलिए मेरा भी मन उनमें लग गया है। जिन्होंने तेईस दिन तक भगवान परशुराम जी के साथ युद्ध किया, तब भी उनसे परास्त न हो सके । वे ही भीष्म जी सम्पूर्ण इंद्रियों की वृत्तियों को एकाग्र करके बुद्धि द्बारा मन को भी अपने अधीन करके मेरी शरण में आ गए हैं, इसलिए मेरा मन भी उनमें लग गया है। भगवती गंगा ने जिन्हें विधिवत अपने गर्भ में धारण किया। जिन भीष्म ने महर्षि वसिष्ठ से शिक्षा पाई, जो सभी दिव्य शस्त्रों और अंगों सहित चारों वेदों के ज्ञाता हैं, सभी विद्याओं का आधार हैं, भूत-भविष्य और वर्तमान जिनकी दृष्टि के सामने है। उन धर्मात्माओं में श्रेष्ठ भीष्म जी के पास इस समय मैं मन ही मन पहुंच गया था। यह वृत्तांत दर्शाता है कि जो भक्त ईश्वर का सच्चे हृदय से ध्यान करते हैं। भगवान भी उनका ही ध्यान करते हैं।