अहंकार में डूबे राजा को नर-नारायण ने दी ऐसी अनुपम सीख

0
1504

आज हम आपको महाभारत के उद्योग पर्व की कथा बताएंगे, जो हमे बताती है कि खुद को श्रेष्ठ और दूसरों क्षीण समझना कितनी बड़ी भूल होती है। पूर्व काल की बात है एक दम्भोद्भव नाम का एक सार्वभौम राजा हुआ करता था। वह दंभ में डूबा रहता था। वह महारथी संम्राट हर दिन ब्राह्मणों व क्षत्रियों से पूछा करता था कि क्या ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र में कोई ऐसा योद्धा है, जो युद्ध में उसे पराक्रम पराजित कर सके। कोई है ऐसा शस्त्रधारी, जो युद्ध में मुझे पराजित कर सके। इस प्रकार कहते हुए राजा सम्पूर्ण पृथ्वी में विचरता रहता था।

ऐसा अभिमान देखकर कुछ तपस्वी ब्राह्मणों से उससे कहा कि हे राजन इस पृथ्वी पर दो ऐसे सत्पुरुष है, जिन्होंने संग्राम में अनेकों को पराजित किया है। उनकी बराबरी तुम कभी नहीं कर सकोंगे। इस पर अहंकार में डूबे राजा ने कहा कि कौन है वे तपस्वी? वे वीर पुरुष कौन है? उन्होंने कहां जन्म लिया है? और क्या काम करते हैं?

Advertisment

इस पर ब्राह्मणों ने कहा कि वे नर और नारायण नाम के दो तपस्वी हैं। वे इस समय मनुष्य लोक में आए हुए हैं। तुम उनके साथ युद्ध करो। वे गन्धमादन पर्वत पर बहुत ही घोर व अवर्णनीय तप में संलग्न हैं। राजा के अहंकार को इससे धक्का लगा और उससे यह बात सहन नहीं हुई। वह उसी समय सेना सजाकर उनके पास चल दिया। गन्धमादन पर्वत पर पहुंच कर वह इन दोनों तपस्वी की खोज करने लगा। थोड़े समय पश्चात उसे यह दोनों मुनि नर और नारायण दिखाई दिए। उनके शरीर की शिराएं तक दिखने लगी थीं। शीत, धूप और वायु को सहन करने के कारण वे अत्यन्त कमजोर हो गए थे। राजा उनके पास गए और चरण स्पर्श करके उनसे कुशल पूछी। मुनियों ने कंद, मूल, आसन और जल से राजा का सत्कार किया और पूछा कि कहिये, हम आपका क्या काम कर सकते हैं। राजा ने उन्हें आरम्भ से सारी बात उन्हें सुनाकर कर कहा कि इस समय मैं आप लोगों से युद्ध करने के लिए आया हूं। यह मेरी बहुत दिनों की अभिलाषा है, इसलिए इसे स्वीकार कर मेरा मेरा आथित्य कीजिए।

नर नारायण ने राजा से कहा कि हे राजन, इस आश्रम में क्रोध, काम, लोभ आदि दोष नहीं रह सकते हैं, यहां पर युद्ध की बात अनुचित है। पृथ्वी पर बहुत से क्षत्रीय हैं, तुम उनसे युद्ध के लिए प्रार्थना करो। नर-नारायण के इस प्रकार बार- बार समझाने पर भी राजा दम्भोjव की युद्ध करने की अभिलाषा शांत नहीं हुई। वह उनसे युद्ध के लिए आग्रह करता रहा। तब भगवान नर ने एक मुठ्ठी सीकें लेक कहा, अच्छा तुम्हें युद्ध की बहुत लालसा है तो अपने हथियार उठा लो और अपनी सेना तैयार कर लों। यह सुनकर राजा दम्भोद्भव और उसके सैनिकों ने उन पर पैने बाणों की वर्षा करना आरम्भ कर दिया। तब भगवान नर ने एक सींक को अमोघ अस्त्र के रूप परिणत करके छोड़ा। इससे यह बड़े आश्चर्य की बात हुई कि मुनिवर नर ने उन सभी वीरों के आंख, नाक और कानों को सींकों से भर दिया। इस प्रकार सारे आकाश को सफेद सींकों से भरा देखकर राजा उनके चरणों में गिर पड़ा और बोला कि हे मुनिवर, मेरी रक्षा करो, मेरी रक्षा करो।

इस प्रकार चिल्लाता हुआ राजा दम्भोद्भव मुनि से विनय करने लगा। इस पर शरणागतवत्सल नर ने राजा से कहा कि राजा ऐसा काम भविष्य में तुम कभी मत करना। तुम बुद्धि का आश्रय लो और अहंकार शून्य, जितेन्द्रिय और क्षमाशली, मृदु और शांत होकर प्रजा का पालन करो। अब भविष्य में किसी का अपमान मत करना। इसके बाद राजा उन मुनिश्वरों के चरणों में प्रणाम कर अपने नगर को लौट गए। उनका अहंकार नष्ट हो चुका था और वे धर्मानुकूल आचरण करने लगे। यह कथा हमे बताती है कि अगर हमें ईश्वर शक्ति और सामर्थ्य प्रदान की है, तो उसका मद सर्वदा अनुचित है, इसलिए शक्ति व सामर्थ्य का उपयोग धर्मानुकूल आचरण में करना ही श्रेयस्कर है। आत्मतुष्टि के लिए अनुचित है।

सनातन धर्म, जिसका न कोई आदि है और न ही अंत है, ऐसे मे वैदिक ज्ञान के अतुल्य भंडार को जन-जन पहुंचाने के लिए धन बल व जन बल की आवश्यकता होती है, चूंकि हम किसी प्रकार के कॉरपोरेट व सरकार के दबाव या सहयोग से मुक्त हैं, ऐसे में आवश्यक है कि आप सब के छोटे-छोटे सहयोग के जरिये हम इस साहसी व पुनीत कार्य को मूर्त रूप दे सकें। सनातन जन डॉट कॉम में आर्थिक सहयोग करके सनातन धर्म के प्रसार में सहयोग करें।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here