एक समय की बात है, भगवान विष्णु के परमभक्त नारद जी समाधि में लीन थे, उस समय कामदेव जी ने उन्हें अपने प्रभाव लेने का प्रयास किया, लेकिन कामदेव जी नारद जी की समाधि को भंग न कर सके। तब समाधि के पश्चात कामदेव जी ने नारद जी क्षमा याचना की। यह जानकर नारद जी प्रसन्न हो गए और उनके व जगतपिता ब्रह्मा जी के पास गए और सारा वृतांत कह सुनाया।
अपने पुत्र नारद जी के वचनों को सुनकर ब्रह्मा जी ने कहा कि हे नारद, यह बात भगवान शिव जी को मत कहना, तब नारद जी बोले कि हे पिताश्री, ये यशस्वी कार्य मैंने किया है। संसार को भला क्यों न बताऊं। ये कैसे हो सकता है? यह कहकर महर्षि नारद उसी समय कैलाश पर्वत पर गए और अपनी कामदेव पर जीत का समाचार भगवान शिव को कह सुनाया।
भगवान शिव मन ही मन मुस्काए और बोल कि हे नारद, निश्चित तौर पर आपने बहुत बड़ी जीत हासिल की है, लेकिन इस वृतांत को श्री हरि को मत बताना। नारद जी कहां मानने वाले थे, वे उसी समय वैकुण्ठ धाम जा पहुंचे और श्री हरि को अपनी जीत का सामाचार कह सुनाया। श्री हरि समझ गए कि उनके भक्त को अभिमान हो गया है। उनके अभिमान को समाप्त करना होगा, अन्यथा यह अपने मार्ग से विचलित हो जाएगा। भक्तों की रक्षा करना मेरा धर्म है, यूं विचार कर भगवान श्री हरि अपनी माया का विस्तार किया और जिस मार्ग से नारद जी लौट रहे थे, उसी मार्ग में उनकी दृष्टि एक दिव्य राज्य पर पड़ी, वहां उत्सव जैसा माहौल था।
तब नारद जी ने एक व्यक्ति को बुलाकर पूछा कि हे भाई, यहां का राजा कौन है? यह कैसा उत्सव है? तब उस व्यक्ति ने महर्षि नारद जी को बताया कि हमारे राजा शीलनिधि हैं। आज उनकी पुत्री विश्वमोहनी का स्वयंवर है। यह सुनकर नारद जी विचार किया कि मैं भी चल कर देखता हूं। वहां पहुंचने पर राजा शीलनिधि ने नारद जी का विधिपूर्वक आदर-सत्कार किया और अपनी पुत्री विश्वमोहिनी का हाथ देखने का आग्रह किया। देवर्षि ने विश्वमोहनी का हाथ देखकर बताया कि हे राजन, तुम्हारी पुत्री तो सक्षात लक्ष्मी हैं, जो इनका पति होगा, वह तीनों लोकों का स्वामी होगा। यह कह कर नारद जी वहां से चल दिए।
मार्ग में उन्होंने विचार किया कि अगर मेरा विवाह विश्वमोहनी से हो जाए तो मैं तीनों लोकों का स्वामी बन जाऊंगा। उन्होंने विचार किया कि इस रूप में तो कन्या उनका वरण नहीं करेगी, इसलिए भगवान विष्णु से मैं सुंदर रूप की याचना करता हूं। उसी समय उन्होंने सोचा कि उन्हें वैकुण्ठ लोक पहुंचने में समय लगेगा, क्यों न भगवान का ध्यान करके उन्हें यही बुला लूं।
भक्त वत्सल विष्णु श्री हरि भक्त की पुकार पर तत्काल वहां आ गए और नारद जी से उन्हें याद करने का कारण पूछा। तब नारद जी ने भगवान श्री हरि से कहा कि हे प्रभु, मुझे ऐसा सुंदर रूप प्रदान कीजिए, जिससे विश्वमोहनी मेरा वरण कर ले। चूँकि सुंदर का एक अर्थ बंदर भी होता है, तो भगवान विष्णु श्री हरि ने उन्हें वानर का रूप प्रदान कर दिया।
उधर भगवान शिव जी ने जब नारद से कहा था कि अपनी जीत का सामाचार किसी से मत बताना तो नारद जी नहीं माने थे, तब भगवान शिव जी ने अपने दो गणों को उनके पीछे लगा दिया था। यह देखने के लिए कि आखिर नारद जी क्या करते हैं? तब शिव जी के दोनों गण नारद जी के साथ-साथ लग गए थे, लेकिन नारद जी को इस बात का ज्ञान न था। वे विश्वमोहिनी को पाने की लालसा में भगवान विष्णु से सुंदर रूप मांग कर आगे चल दिये। वे राजा के दरबार में पहुंचे और स्वयंवर शुरू हुआ।
स्वयंवर ने विश्वमोहिनी में भगवान विष्णु के गले में वर माला डाल दी। भगवान विष्णु विश्वमोहिनी को लेकर वहां से चले गए। इस दौरान स्वयंवर में नारद जी के वानर रूप का उपहास भी हुआ। इसी समय भगवान शिव के गण जो पूरा घटनाक्रम देखकर रहे थे। वह नारद को छेड़ने लगे और पानी का स्वच्छ थाल उनके सम्मुख कर दिया और नारद जी को उनका मुख दिखाया और बोले कि वानर का रूप है और चले थे, विश्वमोहिनी से विवाह करने। जब उस थाल में जब अपना मुख देखा तो नारद जी अत्यन्त क्रोधित हो गए।
सीधे वैकुण्ठ लोक पहुंचे और क्रोधित होकर बोले कि हे विष्णु तूने मेरे साथ छल किया है। मैंने तो तुमसे सुंदर रूप मांगा था और तूने मुझे बंदर का रूप दे दिया, इसलिए मैं तुम्हें श्राप देता हूं कि तू भी पत्नी वियोग में इधर-उधर भटकेगा।
तब यहीं वानर तुम्हारी सहायता करेंगे। इसके बाद क्रोधित नारद जी ने दोनों शिवगणों को श्राप देते हुए कहा कि मूर्खों तुमने मेरा उपहास किया, इसलिए तुम दोनों भी राक्षण बन जाओं। इतना होने पर भगवान विष्णु ने श्राप स्वीकार कर नारद जी के ऊपर से अपनी माया का प्रभाव हटा लिया।
माया का प्रभाव हटते ही नारद जी चैतन्य हो गए। उन्हें अपने किये का पश्चाताप हुआ और कहने लगे कि हे प्रभु, मैंने क्या कर दिया? तब श्री हरि नारद जी से बोले कि हे देवर्षि तुम्हें कामदेव पर विजय पाने का अभिमान हो गया था। तुम मेरे परमभक्त हो और तुम्हें मार्ग से भटकने न देने के लिए मैंने सारी लीला रची थी। यह तुम्हारे हित में था। यह सुनते ही नारद जी लज्जित हो गए।
तब भगवान श्री हरि ने कहा कि तुम्हारा श्राप मिथ्या नहीं होगा। मैं त्रेता युग में राम के रूप में अवतार लूंगा, तब भगवान शिव के ये दोनों गण भी राक्षस के रूप में होंगे। मैं उस अवतार में पत्नी वियोग में इधर-उधर भटकूंगा और वानर मेरी सहायता करेंगे। कालान्तर में वहीं हुआ भी।
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