“लावरिश नहीं मेरी माँ है”

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“लावरिश नहीं मेरी माँ है”
पुस्तक विमोचन एवं कहानी का जीवंत नाट्य रूपांतरण

मनोज श्रीवास्तव/लखनऊ। उप्र संगीत नाटक अकादमी में आयोजित प्रसून साहित्य उत्सव 2024के दूसरे दिन कवि लेखक और दर्शन शास्त्र के अध्येता डॉ अनिल कुमार पाठक कहानी संग्रह “लावारिस नहीं मेरी मां है” का लोकार्पण किया गया और पुस्तक पर परिचर्चा की गई।इस चर्चा में कथा साहित्य की जानी-मानी हस्तियों तथा नाटक विधा के प्रसिद्ध मनीषियों ने भाग लिया। परिचर्चा में नरेश सक्सेना, देवेन्द्र राज अंकुर, शिवमूर्ति, सूर्य मोहन कुलश्रेष्ठ तथा संगम पांडे तथा आधुनिक कविता और गद्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ अष्टभुजा शुक्ल शामिल हुए।तदुपरांत कहानी संग्रह की कहानी लावारिस नहीं मेरी मां है का मंचन किया गया। नाट्य रूपांतरण का निर्देशन देवेन्द्र राज अंकुर ने किया। इस नाटक की प्रस्तुति अनुष्ठान मुम्बई द्वारा की गई।

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कहानी संग्रह लावारिस नहीं मेरी मां के लेखक डॉ अनिल कुमार पाठक ने कार्यक्रम के विषय में बताते हुए कहा कि इस कहानी संग्रह की शीर्षक कहानी के मंचन के लिए निर्देशक के प्रति आभार व्यक्त किया।साथ ही अपनी लेखन की विषयवस्तु के विषय में विस्तार से जानकारी दी। संगम पांडे ने कहा कि कहानियों का आकार छोटा है किंतु आसपास की घटनाओं को विस्तार दिया गया है। उन्होंने कहा कि लेखक भावनात्मक व्यक्ति है।इन कहानियों में अनावश्यक विस्तार नहीं है। पारम्परिक आदर्शवाद से जुड़े लेखक का भाव कहानियों में दृष्टिगोचर होता है। कहानियों के उद्धरण देकर उन्होंने बताया कि यह सताये हुए लोगों की कहानियां हैं। इसी क्रम में सूर्य मोहन कुलश्रेष्ठ ने कहा कि ऐसे उत्सवों की बहुत जरूरत है। उन्होंने कहा कि बहुत ही पठनीय तथा संवेदनशीलता से पूर्ण कहानियां हैं। पारिवारिक संबंधों की ज्यादातर कहानियां हैं। पारिवारिक विखंडन का कारण विस्थापन है। कहानियों में अवधी भाषा का भी प्रयोग किया गया है।

लावारिस नहीं मेरी मां के मंचन को कलाकारों ने जीवंत कर दिया। मां के त्याग और ममता को दर्शाता हुआ दृश्य भावुक करता है घटनाओं को सिलसिलेवार दिखाई देती है। पात्रों के संवाद प्रसंग के अनुरूप है। सेवा निवृत्त होकर आए पिता के पुत्रों के बीच लालच और कलुषित व्यवहार से पिता विक्षिप्त हो जाता है। वह पुत्रों के पिता कीआपसी बंटवारे से आहत हैं। पिता के पेंशन पर एक बेटे की निगाह है।साथ ही मां बेटों को भी बांट लिया। कुछ समय बाद पिता स्वर्गीय हो जाता है। फिर मां का बंटवारा करने पर दोनों पुत्र तुल जाते हैं। नाटक में कई कहानियों को जोड़ कर दर्शाया गया है। नाटक एक संदेश दे रहा है कि नारी से अपेक्षा करने के साथ पुरुष को भी उसका महत्व समझना चाहिए।समाज में माता-पिता के प्रति संतानों की संवेदनहीनता की पराकाष्ठा नाटक में दर्शायी गयी है।इस पूरे सत्र का संचालन विजय पंडित ने किया

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