भगवान भोलेनाथ ने माता पार्वती को बताया गृहस्थ का धर्म

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भगवान भोलनाथ परम दयालु हैं, वे भक्त के भाव को देखते हैं, जो भी भक्त श्रद्धा, निष्ठा व समर्पण के भाव के साथ भोलेशंकर को नमन करता है। उनका ध्यान-पूजन करता है। वह उस भक्त पर सहज ही प्रसन्न हो जाते हैं। उसके संकटों को दूर करते है। हम भोलनाथ और माता पार्वती के सत्संग से जुड़े उस प्रसंग को आज बताने जा रहे हैं, जिसमें भोलेनाथ ने माता पार्वती को गृहस्थ का धर्म बताया था, जो हमें बताता है कि हमारा यानी गृहस्थ का जीवन कैसा होना चाहिए? उसका आचरण कैसा होना चाहिए। उसका प्रारब्ध कैसे सुधरता है? और उसे कब व कैसे दैव कृपा प्राप्त होती है?

आइये, हम ऊॅँ गौरी शंकराय नम: पावन मंत्र का जप करें और भगवान शंकर और माता पार्वती के मध्य हुए सत्संग जाने। उस पर मनन करें और आत्मसात कर जीवन को सुधार सकें। एक समय की बात है कि भोलनाथ भगवान शिव शंकर माता पार्वता के साथ सत्संग कर रहे थे।

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मां पार्वती जी ने शिव शंकर से पूछा कि हे प्रभु गृहस्थ व्यक्तियों का कल्याण किस तरह से हो सकता है ? कृपया मुझे बताये।  भगवान शिव ने कहा कि हे देवी, सत्य बोलना, सभी प्राणि मात्र पर दया करना, मन व इंद्रियों पर संयम रखना और सामथ्र्य के अनुसार सेवा-परोपकार करना कल्याण के साधन हैं, जो व्यक्ति अपने माता-पिता और वयो वृद्धों की सेवा करता है, जो शील और सदाचार से संपन्न है, जो अतिथियों की सेवा को सदैव तत्पर रहता है, जो क्षमाशील है और जिसने धर्मपूर्वक धन का उपार्जन किया है,ऐसे गृहस्थ पर सभी देवता, ऋषि और महर्षि प्रसन्न रहते हैं।

भोलनाथ शिव शंकर ने माता पार्वती से गृहस्थ धर्म का उल्लेख करते हुए आगे कहा कि हे देवी! जो व्यक्ति दूसरों के धन का लालच नहीं रखता, जो पराई स्त्री को वासना की दृष्टि से नहीं देखता, जो असत्य संभाषण नहीं करता, जो किसी की निदा व चुगली नहीं करता और सबके प्रति मैत्री और दया का भाव रखता हो, जो सौम्य वाणी में वार्ता करता है और स्वेच्छाचार से सदैव दूर रहता हो, ऐसा आदर्श व्यक्ति स्वर्गगामी होता है ।

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भगवान भोलनाथ ने मां पार्वती से कहा कि हे देवी! मनुष्य को जीवन में सदा शुभ कर्म ही करते रहना चाहिए । शुभ कर्मों का शुभ फल प्राप्त होता है और शुभ प्रारब्ध बनता है। मनुष्य जैसा कर्म करता है, वैसा ही उसका प्रारब्ध बनता है । प्रारब्ध अत्यंत बलवान होता है, उस के अनुसार जीव भोग करता है । प्राणी भले ही प्रमाद में पड़कर सो जाए, लेकिन उसका प्रारब्ध सदैव जागता रहता है, इसलिए सतत सत्कर्म करते रहना चाहिए, वस्तुत: यही सद्गृहस्थ का धर्म है और धर्म का पालन ही धर्माचरण कहलाता है। इसी धर्माचरण के माध्यमसे साधना की संधि प्राप्त होती है, जो ईश्वर प्राप्तिका आधार होती है।

भगवान शिव और माता पार्वती के मध्य हुआ यह सत्संग हमें बताता है कि गृहस्थ का धर्म कैसा होना चाहिए? उसका आचरण कैसा होना चाहिए। उसका भाव कैसा होना चाहिए, जिससे दैवीय कृपा उसे इस संसार में ही प्राप्त हो जाती है और उसका प्रारब्ध भी सुधरता है।

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