नई दिल्ली। याद कीजिए, नब्बे के उस दशक को, जब एक समाजवादी नेता का नौजवान बेटा लखनऊ के हजरतगंज के एक सिनेमाहाल में जाता है, वहां बालीवुड की एक फिल्म चल रही थी, शो शुरू हुए एक घंटा बीत चुका था, दर्शकों से खचाखच भरे थिएटर में पांव रखने की जगह भी नहीं थी यानी सीट फुल थी, ऐसे में उस बड़े समाजवादी नेता के नवाबजादे लखनऊ थिएटर में अपने दल-बल के साथ पहुंचते हैं और अपने लठैतों की मदद से थिएटर के बालकनी की पिछली दो रो पूरी तरह से जबरन खाली करा लेते हैं और विरोध करने वाले दर्शकों पर लठ्ठ बरसाया जाता है।
एक घंटे तक चल चुकी फिल्म को फिर चलाने का फरमान नवाबजादे देते हैं, मौके पर विरोध करने वाले दशर्कों को बदसलूकी सहनी पड़ती है, बदसलूकी सहना उनकी नीयत है, क्योंकि उस स-माजवादी के बाप का जो राज था, जो मन में आया, वहीं करेंगे यही तो उनका समाजवाद है। हालांकि इस बात को अर्सा हो चुका है लेकिन इच्छा हुई समाजवाद का विद्रुप रूप आपके सामने रख दूं। यदि आप भूल गए हो तो याद हो जाएं, क्योंकि उस समय यह मामला अखबारों की सुर्खीया बना था। वह वह समाजवादी नेता का बेटा प्रदेश की सियासत में अहम रोल अदा कर रहा है और राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान पाने के लिए लालायित है। राजनीति की पप्पू माने वाले से नजदीकियां भी बनाने की कोशिश कर रहे है और राष्ट्रीय स्तर पहचान पाने को इतना बेताब है कि पप्पू की जी हजूरी में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रहा है।
कहने को तो यह एक घटना मात्र है, कहने वाले तो यह भी कहेंगे कि बड़े-बड़े शहरों में ऐसी छोटी मोटी बातें होती रहती हैं, लेकिन हकीकत यह है कि सो-कॉल्ड सेक्युलर ऐसा ही समाजवाद चाहते हैं, जहां वर्ग विशेष के लिए तुष्टीकरण हो और उनकी मनमर्जी पर उन्हें कोई रोकने टोकने वाला नहीं हो। वह वर्ग विशेष उनकी ढाल बने और राजनीति जमीन को बनाए रखने में उनकी मदद करता रहे। यही वह समाजवाद का असल चेहरा है, जिसे सो-कॉल्ड सेक्युलर याद नहीं रखना चाहते हैं। अगर जिक्र भी कर दो तो अनर्गल बयानबाजी पर उतर जाते हैं। क्योंकि आज का समाजवाद लोहिया का समाजवाद नहीं है, बल्कि कुछ और ही है जो मात्र सियासत में अपनी जमीन बचाने के लिए तुष्टीकरण की बैसाखी के सहारे टिका हुआ है।बैसाखी हटी तो हो गए धड़ाम-धड़ाम-धड़ाम।