जैसे वरदान में अपार शक्ति होती है, उसी प्रकार से श्राप की महिमा भी अपार है। सृष्टि व देव लीलाओं में भी श्राप का विशेष महत्व रहा है। ऐसे तमाम उदाहरण हैं, जिसके माध्यम से श्राप की महिमा का उल्लेखित किया गया है। तो बात शुरू करते हैं, राजा दशरथ को मिले श्राप से। जिसके प्रभाव से राजा दशरथ को पुत्र रत्नों की प्राप्ति हो सकी थी। त्रेतायुग से सम्बन्धित इस कथा का हम संक्षेप में वर्णन यहां करने जा रहे है, जिसके माध्यम से आपको श्राप की महिमा का पता चलेगा। उस काल में रावण ने चराचर जगत में उत्पात मचाया हुआ था।
धरती पर अधर्म बलवान हो गया था और धर्म निर्बल, उस समय धरती समेत तमाम देव शक्तियां आसुरी शक्ति के प्रभाव से चिंतित हो गईं। सभी को भगवान विष्णु के अवतार की प्रतिक्षा में बेचैन हो रहे थे, तभी देवताओं को ज्ञात हुआ कि राजा दशरथ के भाग्य में तो संतान ही नहीं है, तब उनकी चिंता और बढ़ गई। तभी समय का ऐसा चक्र चला कि राजा दशरथ को श्राप मिल गया। हुआ कुछ यूं कि एक समय राजा दशरथ वन में गए थे, तभी उन्हें तालाब के पास किसी मृग के पानी पीने का अहसास हुआ। चूंकि दशरथ जी शब्दभेदी तीर चलाने में प्रवीण थे, तो उन्होंने जिस दिशा से आवास आ रही थी, उसी दिशा में तीर चला दिया। तीर लगा तो मनुष्य की एक चीख उन्हें सुनाई दी, जैसे ही वहां पहुंचे तो उन्हें तीर श्रवण कुमार को लगना ज्ञात हुआ। वह घबरा गये, लेकिन श्रवण कुमार को बचा नहीं सके।
श्रवण कुमार वह मातृ-पितृ भक्त युवक था, जो अपने माता-पिता को चारों धामों की यात्रा कराने के लिए कंधे पर लेकर निकला था। वह पानी लेने के लिए तालाब पर गया था। तीर लगने से श्रवण की मृत्यु होने के पश्चात दशरथ जी उनके माता-पिता के पास गए और घटना के बारेे बताया तो दुखी माता-पिता ने उन्हें श्राप दे दिया कि जैसे इस समय हम लोग अपने पुत्र के वियोग में तड़प रहे है, वैसे ही तुम भी अपने पुत्र के वियोग में तड़पोंगे। यह श्राप मिलने पर श्री दशरथ जी बहुत दुखी हुए, लेकिन इस श्राप मिलने से उन्हें संतति की प्राप्ति का मार्ग मिल गया है, जबकि उनके प्रारब्ध में संतति नहीं थी।
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इस प्रकार श्राप के प्रभाव से उन्हें संतति की प्राप्ति हुई। दूसरी घटना भी श्राप के प्रभाव से ही जुड़ी हुई है। एक समय की बात है कि ब्रह्म पुत्र भगवान विष्णु के दर्शन को वैकुण्ठ लोक को पहुंचे तो वहां खड़े द्बारपाल जय व विजय ने उन्हें रोका। इस पर उन्होंने जय व विजय को श्राप दे दिया कि तुम दोनों मृत्युलोक में जाओं। इतने में भगवान विष्णु वहां पहुंचे तो ब्रह्मपुत्रों को अपनी गलती का एहसास हुआ और भगवान से क्षमा मांगी।
उन्होंने कहा कि जब ये जय-विजय तीन बार धरती पर जन्म लेंगे और उनका वध भगवान विष्णु के अवतारों के हाथों होगा तो ही इन दोनों का उद्धार होगा और ये दोनों पुन: वैकुण्ठ लोक में द्बारपाल होंगे। यहाँ भी ईश्वरीय लीला का श्राप हिस्सा बने। कालांतर में भगवान ने अवतार लिए और जय – विजय का उद्धार किया।
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