फेफड़ों के कैंसर का सही निदान और शीघ्र उपचार करना है जरूरी

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लखनऊ। नवंबर का महीना फेफड़ों के कैंसर के बारे में जागरूकता का प्रसार करने के लिए समर्पित माह है। भारत में, हर साल लंग कैंसर के 67,000 नए मामले सामने आते हैं। उत्तर प्रदेश में, कैंसर से होने वाली मौतों में फेफड़ों का कैंसर पुरुषों में तीसरा और महिलाओं में आठवां सबसे प्रमुख कारण है। अधिकांश मामले पुरुषों में सामने आते हैं लेकिन कुछ महिलाएं और धूम्रपान नहीं करने वाले लोगों में भी लंग कैंसर पनप सकता है। एक खास तरह का लंग कैंसर, जिसे ’नॉन-स्मॉल सैल लंग कैंसर (एनएससीएलसी) कहा जाता है, सभी तरह के लंग कैंसर के मामलों में 85 प्रतिशत पाया जाता है। दुर्भाग्यवश, ऐसे अधिकांश मामले देरी से पकड़ में आते हैं क्योंकि इस रोग के शुरूआती लक्षण दिखायी नहीं देते, या फिरइन लक्षणों को अन्य संक्रमण समझा जाता है। इसी वजह से उपचार भी चुनौती पूर्ण हो जाता है।

इस बारे में डॉ सुषमा अग्रवाल, प्रोफेसर, रीजनल कैंसर सेंटर, संजय गांधी पोस्ट ग्रेजुएट इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज़, लखनऊ ने कहा, ’’लंग कैंसर के लक्षण काफी हद तक तपेदिक की तरह होते हैं जो कि भारत में काफी आम है। यही वजह है मेरे सामने अक्सर ऐसे मामले आते हैं जिनका इलाज कुछ निजी चिकित्सक कुछ महीनों तक तपेदिक के लिए करते रहे और ऐसा तपेदिक का सही निदान किए बगैर ही किया गया। लेकिन जब मरीज़ को एंटी-ट्यूबर क्युलर दवाओं से कोई लाभ नहीं पहुंचातो उन्हें बायप्सी के लिए किसी दूसरे उन्नत सेंटर में भेजा गया जहां उन्हें लंग कैंसर होने की पुश्टि हुई। लेकिन निदान में लंबा समय लगने का परिणाम यह होता है कि कैंसर षरीर के अन्य भागों में फैल चुका होता है जिससे इलाज के लिए उपलब्ध विकल्प काफी कम रह जाते हैं। लंग कैंसर जागरूकता माह के दौरान, लोगों को यह बताया जाना महत्वपूर्ण है कि एंटी-ट्यूबर क्युलर दवाएं तभी लेनी चाहिए जबकि बलगम की जांच में तपेदिक की पुश्टि हो। एंटी-ट्यूबर क्युलर इलाज के चलते एक माह के अंदर ही लक्षणों में सुधार दिखने लगता है।

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लेकिन यदि लक्षण बरकरार रहें तो मरीज़ को तत्काल किसी उन्नत सेंटर में जाकर जांच करवानी चाहिए ताकि कैंसर के न होने की पुष्टि की जा सके।‘‘ लंग कैंसर के सामान्य लक्षणों में खांसी, जो दूर नहीं हो रही हो, छाती में दर्द, भूख न लगना, बिना वजह वज़न कम होना, खांसी के साथ खून जाना, सांस फूलना और आवाज़ में भारीपन शामिल है। इन लक्षणों का होना अपने आप में इस बात की निशानी नहीं होता कि मरीज़ को लंग कैंसर है। लेकिन इनके रहते लंग कैंसर का निदान होना और सही उपचार लेना आवश्यक है। 2003 तक, एडवांस लंग कैंसर (एनएससीएलसी) से पीड़ित मरीज़ों के उपचार के लिए एकमात्र उपलब्ध विकल्प कीमोथेरेपी ही था और इससे मरीज़ का जीवन 8 से 10 महीने तक बचाया जा सकता था। लेकिन हाल में इस क्षेत्र में हुई प्रगति ने एक और विकल्प उपलब्ध कराया है, यह है टारगेटेड थेरेपी, जो मरीज़ों को कीमोथेरेपी की कमियों से उबारकर उनके जीवन में लगभग 45 महीने और जोड़ सकता है।

टारगेटेड थेरेपी उन मरीज़ों के लिए फायदेमंद होती है जिनके डीएनए में खास किस्म के बदलाव होते हैं। मसलन, करीब तीस प्रतिशत और आठ प्रतिशत भारतीय मरीजों, जो कि अक्सर धूम्रपान नहीं करते, के जीन जिन्हें क्रमशः “EGFR और ALK” कहा जाता है, में बदलाव होता है, जो कि कैंसरकारी होता है। एक खास तरह के डायग्नॉस्टिक टैस्ट के जरिए इस म्युटेशन की पहचान की जा सकती है। इन म्युटेशनों का उपचार टारगेटेड थेरेपी से किया जाता है जो किम्युटेशन पर हमला बोलती है। जैसे-जैसे चिकित्सा विज्ञान प्रगति कर रहा है, मेरा मानना है कि ओंकोलॉजिस्टों के पास जल्द ही ऐसे विकल्प उपलब्ध होंगे जो और अधिक म्युटेशनों को लक्षित करने के साथ-साथे मरीज़ों के लिए उपचार को पर्सनलाइज़ कर सकते हैं और जिनकी मदद से और ज्यादा जिंदगियों का बचाव हो सकता है।

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