रक्षाबंधन का पावन पर्व दो प्रमुख त्यौहारों का अनूठा संगम

0
1195

रक्षाबंधन का पावन पर्व दो प्रमुख त्यौहारों का अनूठा संगम है, एक है रक्षाबंधन तो दूसरा है श्रावणी कर्म।
रक्षाबंधन– श्रावण शुक्ल पूर्णिमा से 2 दिन पहले गोबर पतला करके रसोई को लीपकर शुद्ध किया जाता है। इस दिन दरवाजे पर गोबर की टिकिया को आटे से पोता जाता है और हिरमच सोना मांडना चाहिए। शरवी पूर्णिमा के दिन, जब भद्रा न हो, तब सोने को जिमाना चाहिए। चूरमा, दाल और खीर की रसोई पकानी चाहिए। रोली चावल से अर्चना करके भोग लगाना चाहिए और मोली की राखी रखनी चाहिए। इस दिन भगवान हनुमान और पितरों का पूर्ण आस्था से तर्पण करने के लिए जल रोली, मोली, फूल, धूप, फल, चावल, नारियल आदि का चढ़ावा चढ़ाना चाहिए।

इसके बाद घर की सब मटियार औरतें राखी बांधे। बहनें अपने भाइयों को राखी बांधकर तिलक करें और गोला दें। भाइयों को चाहिए कि वह बहन को प्रसन्न करने के लिए उन्हें कुछ दें। यदि भाई-बहन पास में न हो तो किसी माध्यम से राखी भाई को भिजवाई जा सकती है। इस दिन प्रात: स्नान- ध्यान करके शुद्ध वस्त्र पहनने चाहिए। इस दिन सूत के वस्त्र में चावल की छाटी-छोटी गांठें केसर या हल्दी से रंग लो। गाय के गोबर से घर लीप कर और चावलों के आटे का चौक पूरकर वहां मिSी के छोटे से घड़े की स्थापना करनी चाहिए। सम्भव हो तो पुरोहित को बुलाकर विधि के अनुसार कलश का पूजन करवाना चाहिए। पूजन के बाद चावल की गांठों को पुरोहित यजमान की कलाई में बांधता है। इस दौरान पुरोहित मंत्र पढ़ते हैं, वह इस प्रकार है-

Advertisment

येन बद्धो बली राजा दानवेंदों महाबल:। तेनत्वामभिबघÝामि रक्ष्ो माचल- माचल:।। रक्षाबंधन का वैदिक स्वरूप यही है।
रक्षा बंधन को लेकर जो कथा है, वह इस प्रकार है- एक बार देवों और दानवों में युद्ध छिड़ गया। युद्ध 12 वर्षों तक चला। असुरों ने देवताओं को पराजित करके देवराज इंद्र को भी पराजित कर दिया। ऐसी स्थिति में इंद्र भाग कर गुरु बृहस्पति के चरणों में गिर गए और निवेदन करने लगे- मेरी रक्षा की कीजिए, क्योंकि मै न तो मैं भाग सकता हूं और न ही युद्ध भूमि में सामना ही कर सकता हूं।

यह बात हो रही थी कि इंद्राणी आ गईं, उन्होंने देवराज इंद्र से कहा कि आप भयभीत न हों, मैं उपाय करती हूं। दूसरे दिन सूर्योदय के साथ ही इंद्राणी ने श्रावणी पूर्णिमा के पावन अवसर पर द्बिजों से स्वस्तिवाचन करवाकर रक्षा का तन्तु लिया और इंद्र की दाहिनी कलाई में बांधकर युद्धभुमि में लड़ने के लिए भ्ोज दिया। इसके बाद रक्षा तंतु के प्रभाव से दैत्य भाग गए और इंद्र ने राहत की सास ली। तब से रक्षा बंधन के पर्व को मनाने का की परम्परा शुरू हुई। एक अन्य पौराणिक कथा भी रक्षा बंधन से सम्बन्धित बताई जाती है, जो इस प्रकार है- असुरों के राजा बलि बहुत धर्मनिष्ठ और दानी थ्ो। उन्होंने जब 1०० यज्ञ पूरे कर इंद्र से स्वर्ग का राज्य छीन लिया तो देवराज इन्द्र ने भगवान विष्णु से प्रार्थना की।

तब भगवान ने वामन अवतार लिया और राजा बलि से भिक्षा मांगने पहुंचे। गुरु शुक्राचार्य के मना करने पर भी बलि ने तीन पग भूमि उन्हें दान दे दी। भगवान ने तीन पग में सारा आकाश, पाताल और धरती नापकर राजा बलि को रसातल में भेज दिया। तब बलि ने भक्ति के बल पर भगवान से रात-दिन उसके पास रहने का वरदान ले लिया। भगवान के घर न लौटने से परेशान माता लक्ष्मी को नारद जी ने उपाय सुझाया। माता लक्ष्मी ने राजा बलि के पास गईं और उन्हें रक्षासूत्र बांधकर अपना भाई बनाया। इसके बाद अपने पति भगवान को लेकर अपने साथ लेकर वैकुंठ लोक को चली गई। उस दिन श्रावण मास की पूर्णिमा तिथि थी।
श्रावणी कर्म-

भारत में यह अवधि वर्षा ऋतु की होती है, ऐसे में तपसी व सन्यासी वर्षा के कारण वन स्थलियों का त्याग कर देते हैं और बस्तियों के समीप धर्मोपदेश कर चौमास बिताते हैं। इस दौरान वे वेदों के ज्ञान तत्व को जन-जन तक पहुंचाते हैं। इस प्रकार वेद परायण के प्रभाव की शुरुआत को उपाकर्म कहा जाता है। यह कर्म श्रावण शुक्ल पूर्णिमा को शुरू होता है। श्रावणी के पहले दिन अध्ययन का श्रीगणेश होता है। गौरतलब है कि श्रावणी कर्म का हिंदू धर्म में विशेष महत्व है, इसलिए ब्राह्मणों को इस दिन किसी नदी या सरोवर के किनारे जाकर शास्त्रों के विधान से श्रावणी कर्म करने चाहिए।
पंचगव्य यानी गाय का दूध, गाय का घी, गोदधि, गोबर और गो मूत्र का पान करके शरीर को शुद्ध करें और फिर हवन करना उपाकर्म है। इसके बाद जल के सामने भगवान सूर्य की प्रशस्ति करके अरुंधती सहित सातों ऋषियों की अर्चना करके दही व सत्तू की आहुति देनी चाहिए। इसे उत्सर्जन कहते हैं। इस दिन यज्ञोपवीत करके पूजन का विधान है। इस दिन पुराना यज्ञोपवीत उतारकर नया धारण करना चाहिए। यह इस दिवस की श्रेष्ठता होती है, इसलिए उपनयन संस्कार करके विद्यार्थियों को गुरुकुल में ज्ञानार्जन के लिए भ्ोजने की परम्परा भी रही है।

सनातन धर्म, जिसका न कोई आदि है और न ही अंत है, ऐसे मे वैदिक ज्ञान के अतुल्य भंडार को जन-जन पहुंचाने के लिए धन बल व जन बल की आवश्यकता होती है, चूंकि हम किसी प्रकार के कॉरपोरेट व सरकार के दबाव या सहयोग से मुक्त हैं, ऐसे में आवश्यक है कि आप सब के छोटे-छोटे सहयोग के जरिये हम इस साहसी व पुनीत कार्य को मूर्त रूप दे सकें। सनातन जन डॉट कॉम में आर्थिक सहयोग करके सनातन धर्म के प्रसार में सहयोग करें।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here