आदि शक्ति दुर्गा के नौ स्वरूपों में से महालक्ष्मी अवतार की रहस्य गाथा और उनकी प्रसन्नता के मंत्र

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भगवती आदि शक्ति दुर्गा के वैसे तो अनन्त रूप है, अनन्त नाम है, अनन्त लीलाएं हैं। जिनका वर्णन कहने-सुनने की सामर्थ्य मानवमात्र की नहीं है, लेकिन देवी के प्रमुख नौ अवतार है। जिनमें महाकाली, महालक्ष्मी, महासरस्वती, योगमाया, शाकम्भरी, श्री दुर्गा, भ्रामरी व चंडिका या चामुंडा है। इन नौ रूपों में से आइये जानते हैं हम महालक्ष्मी अवतार के बारे में-

महालक्ष्मी

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एक बार महिषासुर नामक दैत्य ने अपने बाहुबल से समस्त राजाओं और देवताओं को हराकर अपना आधिपत्य जमा लिया। उसके भय से भयभीत होकर देवगण जान बचाकर इधर-उधर भागने लगे। चारों ओर हाहाकार मच गया। उस दुराचारी महिषासुर से इन्द्रआदि देवता बुरी तरह परास्त हुए।
ब्रह्मा जी से वर प्राप्त कर वह अत्यंत अभिमानी हो चुका था। देवता और दैत्यों के बीच सैदव बैर भाव रहा है जिस कारण वह देवताओं पर अत्याचार करने लगा। इससे परास्त होकर देवराज इन्द्र सहित समस्त देवता भगवान विष्णु के निकट जाकर कहने लगे- हे प्रभो!दैत्यराज महिषासुर के अत्याचार से पीडि़त होकर हम सभी देवता आपकी शरण में आए हैं। हमारी रक्षा करो। उस समय ब्रह्मा, विष्णु एवं त्रिशूलधारी भगवान शिव जी युद्ध करने के लिए महिषासुर के सम्मुख गए। महिषासुर की आसुरी माया नष्ट करने के लिए श्री विष्णुजी ने अपने प्रज्जवलित सुदर्शन को आदेश दिया।

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आज्ञा पाकर सुदर्शन ने महिषासुर की सम्पूर्ण आसुरी माया नष्ट कर दी। तब क्रोध से लाल होकर उस दैत्य ने परिहा उठा ली और भयंकर गरजना करते हुए आगे बढ़ा। उसके साथ अनेक महाबली दैत्य थे। वे कवच धारण किए हुए, हाथ में तलवार ढाल लेकर युद्ध करने लगे। भगवान शंकर और श्री विष्णु जी के साथ महिषासुर का भीषण युद्ध हुआ। उस समय पश्चात वे तीनों देवता स्वधाम लौट गए क्योंकि उन्हें यह ज्ञात था कि महिषासुर को मार पाना असंभव है। उसे वर प्रदान करने वाले ब्रह्मा स्वयं थे। जिस समय उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी प्रकट हुए और उससे वर मांगने को कहा- उस समय महिषासुर ने कहा- हे ब्रह्म देव देवता, दैत्य और मनुष्य के हाथों से मेरी मृत्यु न हो। मुझे कोई स्त्री मारे। यही वर दें। ब्रह्मा जी ‘तथास्तु कहकर अंतरध्यान हो गए।

देवताओं ने जाकर ब्रह्मा जी से निवेदन किया कि तब वे समस्त देवताओं को साथ लेकर भगवान शिव के निवास स्थान कैलाश पर्वत की ओर चल पड़े। ब्रह्मा जी के आगमन का ज्ञान भगवान शिव जी को हो गया। वे अपने भवन से बाहर आकर ब्रह्मा जी से मिले और आनेका प्रयोजन पूछा- तब ब्रह्मा जी ने महिषासुर के अत्याचार से पीडि़त देवताओं की दशा का वर्णन किया। ब्रह्मा जी के वचनों को सुनकर कैलाशपति हंसकर बोले- हे विभो यह आपकी करामात का फल है। आप ने ही महिषासुर को वरदान देकर देवताओं के सम्मुख कठिनघड़ी उत्पन्न की है।

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उसकी मृत्यु जब स्त्री के हाथ होना आपने निश्चित कर ही दिया है तो भला हम क्या कर सकते हैं। युद्ध कौशल में न तो आपकी स्त्री निपुण है और न मेरी। इन्द्राणी को भू युद्ध करने का ज्ञान नहीं है। आओ श्री हरि विष्णु के पास चलें वे ही कोई उपाय बतलायेंगे। तत्पश्चात सभी देवता अपने-अपने वाहनों पर सवार होकर बैकुंठलोक की ओर चल पड़े।


समस्त देवताओं के आगमन का समाचार जब भगवान विष्णु को प्राप्त  हुआ तो वे अति प्रसन्न हुए और बोले-हे विभो! हे रुद्रावतार! आप सभी देवगणों का एक साथ आना आवश्यक ही किसी अनहोनी का द्योतक है। कहिए सब कुशल तो है। उस समय महिषासुर से युद्ध मेंथके हारे देवताओं के मुख मंडल पर मलिनता छायी हुई थी। ब्रह्मा जी सम्पूर्ण वृतान्त विष्णु जी को सुनाते हुए बोले- हे श्री हरि ! आप तो अंतरयामी हैं फिर भी पूछते हैं। महिषासुर के अत्याचारों से सभी देवता घबराये हुए हैं। अत: शीघ्र ही उसके वध का कोई उपाय करो।

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तब श्री हरि ने हंस कर कहा- हे ब्रह्मा जी! आपके वरदान से उस दैत्य को कोई देवता, मनुष्य, दैत्य आदि नहीं मार सकते। उसकी मृत्यु स्त्री के हांथों होगी। इस अवसर पर सम्पूर्ण देवताओं के तेज से कोई अत्यंत सुंदरी प्रकट हो। वही समरभूमि में महिषासुर का वध कर सकती है। अत: तुम सभी देवगण अपनी शक्तियों से अनुरोध करो। हमारी देवियां भी प्रार्थना में सम्मिलित हों। इस तरह सभी देवताओं के तेज से जिस (शक्ति) की उत्पत्ति होगी वही (देवी) महिषासुर का मर्दन करेगी।

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उसी समय ब्रह्मा जी के शरीर से एक महान तेज पुंज प्रकट होकर आकाश में जाकर स्थित हो गया। तत्पश्चात शंकर जी के शरीर से गौरवर्ण की अत्यन्त तीक्ष्ण प्रकाशमय तेजपुंज निकला। उस पर दृष्टि नहीं ठहर पा रही थी। उसी विशाल आकृति ज्वाला माला से युक्त थीं।तदुपरान्त सत्वगुण प्रधान तेज पुंज भगवान विष्णु के विग्रह से निकलकर उन तेज पुंजों में जाकर विलीन हो गयी। इसी प्रकार वरूण, कुबेर, इन्द्र, सूर्य, चन्द्र, अग्नि आदि देवताओं के शरीर से तेजों में किरणपुंज निकलकर उसी में जाकर समा गयी। देवताओं का वह तेजपुंज एक अत्यंत सुंदर स्त्री के रूप में परिवर्तित हो गया। वहीं भगवती महालक्ष्मी हुईं और युत्र में महिषासुर का वध करके देवताओं का कष्ट निवारण किया।

प्रार्थना-
सर्व मंगल मांगल्ये शिवे सर्वाथ साधिके।
सरण्ये त्रयमबके गौरी नारायणी नमोअस्तुते।।
अर्थ-हे भगवती नारायणी! आप समस्त संसार के प्राणियों के मनोरथ सिद्ध करें और उनका मंगल करें। हम सभी आपकी शरण में हैं। आपको नमस्कार है।
भगवती महालक्ष्मी की पूजा अर्चना करने से प्राणी को सुख समृद्धि, यश, कीर्ति आदि की प्राप्ति होती है। माता जिस पर प्रसन्न हो जाती हैं उसके सभी मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं। महालक्ष्मी की पूजा ‘अष्टलक्ष्मी रूप में की जाती है।
द्वि-भुजा लक्ष्मी- महालक्ष्मी का प्रथम रूप ‘ द्वि-भुजा लक्ष्मी है। भगवती का यह स्वरूप पूर्णत: विष्णुमय रूप है। इनके इस स्वरूप का ध्यान करने से साधक को पूर्ण गृहस्थ सुख, शांति एवं सौभाग्य की प्राप्ति होती है।
गजलक्ष्मी- कमल पुष्प पर विराजमान श्वेत (सफेद) वस्त्रों से सुशोभित माता लक्ष्मी जी के एक हाथ में अमृतमयी कलश, दूसरे हाथ में पुष्प, तीसरे हाथ में बेल और चौथे हाथ में शंख है। जिसके दोनों सूंड में कमल पुष्प उठाये गजराज (हाथी) अभिषेक कर रहे हैं। श्री लक्ष्मीजी के इस रूप का ध्यान करने से साधक को आवश्यकता से अधिक धन की प्राप्ति होती है।
महालक्ष्मी- अष्टलक्ष्मी में तृतीय लक्ष्मी (महालक्ष्मी) है। जिसका अर्थ है पूर्णता। महालक्ष्मी की उपासना से सभी मनोरथ सफल होते हैं।
श्रीदेवी- ‘श्री’ की द्योतक भगवती देवी ‘श्री’ अर्थात धन संपत्ति प्रदान करने में समर्थ हैं। भरण पोषण के लिए धन उपार्जित कर लेना ही प्राणी का उददेश्य नहीं है बल्कि समाज में संसार में मान प्रतिष्ठा बनी रहे जिसके लिए पर्याप्त धन की आवश्यकता होती है। ‘श्री’ देवी की उपासना करने से मानव को अचल संपत्ति ‘श्री’ देवी की कृपा से प्राप्त होती है।
वीर लक्ष्मी- वीर लक्ष्मी पूर्ण रूप से अभय एवं वर देने वाली देवी हैं। वीर लक्ष्मी का अर्थ है कि जो भी प्राणी सच्चे मन से शुद्ध हृदय से माता वीर लक्ष्मी की विधि पूर्वक अराधना एवं उपासना करता है वह सदैव धन-धान्य से पूर्ण रहता है। सम्पूर्ण जीवन में निर्धनता उसके निकट नहीं आती।
द्वि-भुजा वीर लक्ष्मी- उपरोक्त चतुर्भुज स्वरूप भगवती महालक्ष्मी का है वहीं द्विभुजा स्वरूप भी इन्हीं का एक रूप है। गृहस्थ कल्याण करने वाली द्विभुजा वीर लक्ष्मी की साधना करने से कभी गृह कलेश उपस्थित नहीं होता।
अष्टभुजा वीर लक्ष्मी- देवी महालक्ष्मी मात्र धन प्राप्त करने वाली देवी ही नहीं बल्कि शक्तिमयता द्वारा साधक के जीवन को भली प्रकार संवारने में सदैव तत्पर रहने वाली माता भी हैं। यह अपनी आठों भुजाओं में अनेक प्रकार के आभूषण धारण करके उपासक के जीवन को पर्याप्त आय एवं धन से पूर्ण करती हैं। रोग व्यादि व्यसन आदि धन का नाश करने वाली परिस्थितियों से रक्षा करती हैं।
प्रसन्न लक्ष्मी- जीवन में प्रसन्नता बिखेरने वाली देवी प्रसन्न लक्ष्मी को बार-बार नमस्कार है। माता की कृपा से मानसिक सुख, शांति, ओज, बल, साहस, सौंदर्य, हास्य, मित्र सुख आदि प्राप्त होता है। जो मनुष्य के जीवन की खुशियों का विशेष अंग माना गया है। प्राणी’मनुष्य सर्वथा प्रसन्न तभी रह सकता है जब वह सब प्रकार से धन संपत्ति आदि से परिपूर्ण हो जो कि माता प्रसन्न लक्ष्मी की कृपा से ही संभव है। ज्यादातर लोग माता प्रसन्न लक्ष्मी की आराधना कार्तिक अमावस्या अर्थात दीपावली की रात के करते हैं किन्तु अमावस्याही नहीं बल्कि प्रत्येक मास की अमावस्या को प्रसन्न लक्ष्मी की आराधना विधि पूर्वक करनी चाहिए। पूजा करते समय मन शान्त होना चाहिए।

पूजा करने के लिए कुछ आवश्यक बातों का जानना अत्यंत आवश्यक है।
साधक को चाहिए की वह इस विशेष दिवस ‘दिन पर सूर्योदय से पूर्ण उत्तर स्नान आदि से निवृत्त होने के उपरान्त पूजा ग्रह में प्रवेश करें। तदुपरान्त पूजा स्थल पर पीले आसन पर शुद्घ स्वच्छ पीले रंग की धोती पहनकर पूर्वाभिमुख होकर बैठ जाए। साधक के सम्मुखरखी चौकी पर पीला वस्त्र बिछा हो जिस पर प्राण प्रतिष्ठायुक्त ताम्रपत्र पर अंकित अष्ट लक्ष्मी यंत्र स्थापित हो।
साधक अपने मन को पूर्ण रूप से एकाग्र करके पूजन कार्य आरंभ करें। और विधिपूर्वक जल, अक्षत ‘कच्चा चावल पुष्प, चंदन, केसर आदि चढ़ावें। धूप-दीप, कपूर आदि से आरती करें तथा ‘ऊँ द्विभुजा लक्ष्मयै: नम:, ऊँ गजलक्ष्मयै: नम: आदि माता महालक्ष्मी के नामों का प्रेम पूर्वक उच्चारण करें।
देवी महालक्ष्मी का महामंत्र
‘ऊँ श्रीं ह्रीं ऐं श्रीं नम:
निष्कम्प भाव से इस महामंत्र का जप करने से साधक के ह्दय में ज्योतिपुञ्ज का अविर्भाव होगा। उस दिव्य ज्योति के सामने साधक का मन मस्तिष्क पूर्ण रूप से शांत होगा। यह दिव्य ज्योति ही साधना में सफलता का संकेत है।
पद्मासने पद्म अरु पदमाक्षि पदम सम्मवे।
तम्ने भजसि पदमाक्षि, येन सौख्यं लभामहे।
अश्वदायी गोदायी धनदायी महाधने।
धनं में जुषतां देवी सर्व कामांश्चदेहि मे।।

इस प्रकार प्रार्थना पूजन से महालक्ष्मी की भक्त पर कृपा होती है।

 

माता के निम्न लिखित मंत्र का भी आत्म कल्याण के लिए निरंतर भक्त को स्मरण करना चाहिए। 

‘सर्वज्ञे सर्व वरदे सर्व दुष्ट भयंकरि।
सर्व दुख रहे देवि महालक्ष्मी नमोअस्तुते।।
अर्थात सभी बातों की ज्ञाता, सभी के प्रति वरदायक, सभी दुष्टों को भय से आक्रान्त करने वाली, सभी को दुखों का निवारण करने वाली हे माता महालक्ष्मी! तुम्हे बारम्बार प्रणाम हो।

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