पूर्वकाल की बात है, दुर्वासा ऋषि कैलाश पर्वत की ओर जा रहे थे। ऋषि दुर्वासा परम तेजस्वी थे, लेकिन क्रोध अत्यन्त जल्दी आ जाता था। एक बार देवराज इंद्र को भी उनके क्रोध का सामना करना पड़ा था। वह भी तब, जब उन्होंने ऋषि द्बारा प्रदान किए गए पुष्प का अज्ञानता से अनादर कर दिया था। कैलाश पर्वत की ओर जाते ऋषि दुर्वासा को जब देवराज ने देखा तो वे सहज ही उनकी ओर आकर्षित हो गए।
ब्रह्म तेज से आलौकिक ऋषि का शरीर ऐसा प्रतीत पड़ता था कि दो पहर का सूर्य चमक रहा हो। उनके शरी से दिव्य तेज निकलता हुआ देवराज को अनुभव हो रहा था। हाथ में कमण्डल-दण्ड और मृगचर्म लिए वेद के पारगामी ऋषि दुर्वासा के निकट जाकर देवराज इंद्र ने झुककर उन्हें प्रणाम किया। उसके बाद उनके शिष्यों को प्रणाम किया। देवराज इंद्र की विनम्रता से ऋषि दुर्वासा अत्यन्त प्रसन्न हो गए और उन्हें आर्शीवाद देते हुए भगवान विष्णु द्बारा प्रदत्त पारिजात का पुष्प इंद्र देव को प्रदान किया।
राज्य के अभिमान में चूर देवराज इंद्र ने पारिजात का पुष्प अपने वाहन ऐरावत हाथी के मस्तक पर रख दिया। जरा, मृत्यु और शोक का विनाश करने वाले उस पारिजात पुष्प के स्पर्श से रूप, गुण और दिव्य तेज से सम्पन्न होकर ऐरावत भगवान विष्णु के समान हो गया और देवराज इंद्र को त्यागकर घनघोर वन में चला गया।
इधर देवराज द्बारा दिव्य पुष्प का अनादर होते देखकर ऋषि दुर्वासा क्रोधित हो गए और उन्होंने देवराज को श्राप दिया कि हे इंद्र, राज्य के मद में चूर होकर तूने मेरे दिए दिव्य पुष्प का अनादर किया और उसे हाथी के मस्तक पर रख दिया। जिस श्री यानी लक्ष्मी ने तुझे दंभी बना दिया, वह श्री तुझे छोड़कर असुरों के पास चली जाएगी। ऋषि दुर्वासा का श्राप सत्य हुआ और इंद्रलोक पर असुरों ने अधिकार जमा लिया।