अहिल्या ही नहीं, बल्कि महर्षि उद्दल की पत्नी भी बनी थीं पत्थर

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महर्षि गौतम की पत्नी अहिल्या को उन्होंने पत्थर का होने का श्राप दिया था, जिनका उद्धार भगवान विष्णु के अवतार और दशरथनंदन श्री राम ने किया था, लेकिन अहिल्या ही नहीं है, जिन्हें श्राप के कारण पत्थर का बनना पड़ा था, बल्कि पुरातनकाल की घटना है, एक महर्षि हुआ करते थे उद्दल। वह प्रकांड ज्ञानी और वेद मर्मज्ञ थे। उनकी पत्नी का चंडी थीं। वह बहुत ही उद्दंड स्वभाव की थीं, जो भी महर्षि उनसे कहते, वह उसका उल्टा ही किया करती थीं। पत्नी के इस स्वभाव के कारण उनके सम्बन्धों में दूरी बनी रहती थी और उनके कोई संतान भी नहीं थी।

एक समय की बात है कि एक ऋषि उनसे मिलने के लिए आए और संतति के बारे चर्चा की तो ऋषि उद्दल ने अपनी व्यथा महर्षि को कह सुनाई। यह सुनने के बाद ऋषि ने कहा कि कोई बात नहीं है, आज से तुम अपनी पत्नी से वहीं कहो, जो तुम नहीं चाहते हो। यह युक्ति बता कर महर्षि चले गए तो महर्षि उद्दल ने युक्ति का प्रयोग करके पत्नी से कहा कि तुम उनसे दूर रहो, वह उनसे बात नहीं करना चाहते हैं। पत्नी तो थीं उद्दंड स्वभाव की तो लिहाज वह कहे के विपरीत उनसे बात करने लगी। हवन, पूजन व यज्ञ में शामिल होने लगीं। इस तरह महर्षि का जीवन सुखमय बन गया। महर्षि उसका उल्टा कहते, जो वह पत्नी से कराना चाहते थे।

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इस तरह से महर्षि उद्दल के संतति भी हो गई। अब महर्षि ने सोचा कि क्यों न अब अपने पितरों की पिंडोत्तर क्रियाएं व हवन-पूजन कर लिया जाए, ताकि पूर्वजों का उद्धार हो जाए। इस धर्म से भी वे निवृत्त हो जाए। ऐसा सोचकर महर्षि ने पत्नी को युक्ति का प्रयोग करते हुए पिंडोत्तर क्रियाएं व हवन में शामिल किया। सारी क्रियाएं पूरी होने पर उन्होंने पत्नी के हाथ में पितरों के अस्थि कलश थमाएं और कहा कि चलो, तुमने बहुत अच्छा किया, तुम्हारे पूजन में बैठने से मेरे पितरों की पिंडोत्तर क्रियाएं और हवन पूजन हो गया। इतना सुनना था कि पत्नी चंडी ने कलश उठाया और उसे फैंक दिया। इस पर महर्षि क्रोधित हो गए और पत्नी को पत्थर का होने का श्राप दिया। यह भी कहा कि द्बापरयुग में जब अर्जुन इस शिला को छुएगा तो तुम्हारा उद्धार हो जाएगा।

इधर द्बापरयुग में धर्मराज युधिष्ठर ने अश्वमेघ यज्ञ किया तो अश्वमेघ यज्ञ का घोड़ा निकला, लेकिन वह घोड़ा जैसे ही शिला के पास पहुंच कर घास चलने लगा तो वह उससे चिपक गया। लाख कोशिशों के बाद भी घोड़ा शिला से अलग नहीं हुआ। जब युधिष्ठर को इसका पता चला तो उन्होंने अर्जुन को वहां भ्ोजा। वहां पहुंच कर जैसे ही अर्जुन ने शिला को छुआ, वह पूर्ववत हो गईं और ऋषि के श्राप के अनुसार चंडी का उद्धार हो गया।

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