अन्नकूट-गोवर्धन पूजा का विधान, चंद्र दर्शन रहता है अशुभ

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कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को गोवर्धन पूजा होती है। वेदों में इस दिन इंद्र, वरुण, अग्नि आदि देवताओं की पूजा का विधान है। अन्नकूट या गोवर्धन पूजा का आज जो विधान है, वह भगवान श्री कृष्ण के अवतार के बाद द्बापरयुग में शुरु हुआ है। उस समय लोग देवराज इंद्र की पूजा करते थे। 56 प्रकार के भोजन बनाकर तरह-तरह के पकवान व मिठाइयों का भोग लगाया जाता था। ये पकवान व मिठाइयां इतनी मात्रा में होती थी कि इसका पूरा एक पहाड़ बन जाता था। अन्नकूट में चंद्रदर्शन अशुभ माना जाता है।

अगर प्रतिप्रदा में द्बितीय हो तो अन्नकूट अमावस्या को मनाया जाता है। इस दिन प्रात: तेल मल कर स्नान करना चाहिए। पूजन का समय कहीं प्रात: काल है और कहीं मध्याह्न् है। गाय, बैल आदि पशुओं को स्नान कराया जाता है। उनके पैर धोये जाते हैं। फूल, माला, धूप व चंदन आदि से उनका पूजन किया जाता है। गायों को मिष्ठान खिलाकर उनकी आरती करके प्रदक्षिणा ली जाती है। कई तरह के पकवानों का पहाड़ बनाकर बीच में श्री कृष्ण की मूर्ति रखकर पूजा की जाती है। कहीं-कहीं गोबर सेसे गोवर्धन पर्वत व श्री कृष्ण की मूर्ति बनाकर पूजा की जाती है।

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इस दिन सन्ध्या के समय दैत्यराज बलि का पूजन भी किया जाता है। पूजन के बाद अन्नकूट की कथा सुननी चाहिए। कथा इस प्रकार है- एक बार महर्षि ने ऋषियों से कहा कि कार्तिक प्रतिपदा को गोवर्धन व अन्नकूट की पूजा करती चाहिए। इस ऋषियों ने महर्षि से पूछा कि अन्नकूट क्या है। इसका क्या फल है। इस सका विधान हमें विस्तार से कहकर कृतार्थ करें।

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महर्षि बोले- एक समय की बात है कि भगवान श्री कृष्णअपने सखाओं, गोप ग्वालों के साथ गाए चराते हुए गोवर्धन पर्वत की तराई में जा पहुंचे। वहां पहुंचकर उन्होंने देखा कि हजारों गोपियां गोवर्धन पर्वत के पास 56 प्रकार के भोज रखे बड़े उत्साह से नाच-गा कर उत्सव मना रही हैं। भगवान श्री कृष्ण ने इस पूजन का प्रायोजन पूछा तो गोपियां कहने लगी कि आज तो घर-घर में उत्सव होगा, क्योंकि वृत्तासुर को मारने वाले मेघों व देवों के स्वामी इंद्र का पूजन होगा।

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यदि पूजन से प्रसन्न होंगे तो ब्रज में वर्षा होगी। जिससे अन्न पैदा होगा। ब्रजवासियों का भरण-पोषण होगा। इस पर श्री कृष्ण बोले कि यदि देवता प्रत्यक्ष आकर भोग लगाये तो तुम्हें यह उत्सव करना चाहिए। इतना सुनकर गोपियां कहने लगी कि देवराज इंद्र की इस प्रकार निंदा नहीं करनी चाहिए। यह तो इंद्रोज नामक यज्ञ है। इस के प्रभाव से अतिवृष्टि और अनावृष्टि नहीं होती है। इस पर श्री कृष्ण बोले कि इंद्र का क्या शक्ति है। उससे अधिक शक्तिशाली तो हमारा गोवर्धन पर्वत है। इसी के कारण वर्षा होती है। हमें इंद्र से भी बलवान गोवर्धन की पूजा करनी चाहिए। काफी वाद-विवाद के बाद श्री कृष्ण की बात बात मानी गई और ब्रज में इंद्र की पूजा के स्थान पर गोवर्धन की पूजा शुरु की गई।

सभी गोप-ग्वाल अपने-अपने घरों से पकवान लाकर गोवर्धन की तराई में जाकर श्री कृष्ण की बताई विधि से पूजन करने लगे। उधर श्री कृष्ण ने अपने अधिदैविक रूप से पर्वत में प्रवेश कर के ब्रजवासियों द्बारा दिए गए सभी पदार्थ खा लिया और उन सभी को आर्शीवाद दिया। सभी गोपा अने यज्ञ को सफल जानकर बहुत ही प्रसन्न हुए। नारद मुनी इंद्रोज यज्ञ देखने की ब्रज गांव गए तो इंद्रोज यज्ञ स्थगित होने और गोवर्धन पूजा का समाचार प्राप्त हुआ।

इतना सुनते ही महर्षि नारद जी इंद्र लोक पहुंचे और उदास होकर बोले कि गोकुल के निवासी गोपों ने इंद्रोज बंद करके आपसे बलवान गोवर्धन की पूजा शुरू की है। आज से यज्ञों आदि में उसका भाग तो हो ही गया। यह भी हो सकता है कि किसी दिन श्री कृष्ण की प्रेरणा से वे तुम्हारे राज्य पर आक्रमण करके इंद्रासन पर भी अधिकार कर लें। नारद जी तो अपना काम करके चले, अब इंद्र क्रोध में आग-बबूला हो गए। अधीर होकर उन्होंने मेघों को आज्ञा दी कि वे गोकुल में जाकर प्रलय का सा दृष्य उत्पन्न कर दें। मेघ ब्रज भूमि में मूसलाधार बरसने लगे तो गोप- ग्वाल सहम कर श्री कृष्ण की शरण में आ गए और रक्षा की प्रार्थना करने लगे।

गोप-गोपियों की करुण पुकार सुनकर श्री कृष्ण बोले कि तुम सभी गोवर्धन पर्वत की शरण में जाओं। वह सभी की रक्षा करेंगे।सब गोप-ग्वाल पशु-धन सहित गोवर्धन की तराई में आ गए श्री कृष्ण ने गोवर्धन को अपनी कनिष्ठा अंगुली पर उठाकर छाता सा तान लिया। गोप-ग्वाल सात दिन तक उसी छाया में सात दिन रहकर अतिवृष्टि से बच गए। सुदर्शन चक्र के प्रभाव से ब्रजवासियों पर एक बूंद पानी नहीं पड़ा।

यह चमत्कार देखकर ब्रह्मा जी द्बारा श्री कृष्णावतार की बात जानकर इंद्र देव अपनी मूढ़ता पर पश्चाताप करते हुए श्री कृष्ण से क्षमा याचना करने लगे। श्री कृष्ण ने सातवें दिन गोवर्धन को नीचे रखा और ब्रजवासियों से कहा कि अब तुम प्रतिवर्ष गोवर्धन पूजा कर अन्नकूट का पर्व मनाया करो। तभी यह पर्व प्रचलित है।

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