baila gola shrrkhanla sarovar: jainashramanon ko priy priyश्रवण बेलगोला: कर्नाटक प्रदेश में मैसूर से करीब 100 किलोमीटर दूर श्रवण बेलगोला एक प्रसिद्ध जैनतीर्थ है। वहां एक सरोवर है, जो चंद्रगिरि और विंध्यगिरि नामक दो पहाड़ियों के बीच है। इसी सरोवर का नाम बेलगोला अर्थात् श्वेत सरोवर है। अपनी प्राकृतिक रमणीयता और शांत वातावरण के कारण यह स्थान जैनश्रमणों (साधुओं ) को अत्यंत प्रिय है। वे यहां बड़ी संख्या में रहते थे, इसलिए इस स्थान का नाम श्रवण बेलगोला पड़ा। चंद्रगिरि नामक पहाड़ी का पुराना नाम
करवक्र बताया जाता है। कहा जाता है, सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य ने यहां आकर कुछ समय तक तपस्या की थी, तभी से इसका नाम चंद्रगिरि पड़ गया। चंद्रगिरि पर्वत का भी धार्मिक महत्त्व है। इस पहाड़ी पर एक घेरे में 14 जैन मंदिर हैं। दूसरी पहाड़ी विंध्यगिरि को इंद्रगिरि भी कहा जाता है। श्रवण बेलगोला की महत्ता इसी पहाड़ी पर स्थित भरतेश्वर बाहुबली की विशाल मूर्ति के कारण है। यहां पर एक चट्टान को तराश कर भगवान बाहुबली की 57 फुट ऊंची मूर्ति बनाई गई है। एक चट्टान को तराश कर बनाई हुई इतनी विशाल मूर्ति संसार भर में अन्यत्र कहीं नहीं है। यह मूर्ति 1000 वर्ष पूर्व बनाई गई थी। तब धूप, वर्षा और आंधी तूफानों के बीच खुले में होने पर भी इसके सौंदर्य पर इन चीजों का आज तक कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ा। विश्वभर से यात्री इस अद्वितीय मूर्ति के दर्शन के लिए वर्ष भर आते रहते हैं। प्रति बारह वर्षों बाद यहां एक विशाल समारोह होता है, जिसे मूर्ति का ‘ महामस्तकाभिषेक ‘ कहते हैं। इस अभिषेक के समय प्रवण बेलगोला में अपार भीड़ होती है। भगवान बाहुबली की मूर्ति के सामने तीन ओर का परकोटा ‘ सूत्रालय ‘ कहलाता है। इसमें भी छोटी – छोटी अनेक दर्शनीय मूर्तियां स्थापित हैं। श्रवण बेलगोला में भट्टारपीठ नामक एक जैनगद्दी है। यहां की सामान्य व्यवस्था की देखरेख इस गद्दी के भट्टारक करते है। प्राचीन ग्रंथों में बाहुबली की बड़ी शिक्षाप्रद कथा है। जैन धर्म के प्रवर्तक ऋषभनाथ , जिन्हें आदिनाथ भी कहते हैं, इक्ष्वाकु वंश के राजा थे। अयोध्या इनकी राजधानी थी। राजा ऋषभनाथ के पुत्रों में बड़े का नाम भरत व सबसे छोटे का नाम बाहुबली था। ऋषभनाथजी को जब वैराग्य हो गया, तो उन्होंने युवराज भरत को राजगद्दी सौंप दी तथा अन्य राजकुमारों को जागीरें दे दी। बाहुबली को अयोध्या के निकट पोदनपुर का राज्य मिला।
कुछ समय उपरांत भरत ने चक्रवर्ती बनने के लिए अपनी विशाल सेना को विजय – अभियान पर भेजा। कुछ ही दिनों में सब राजाओं ने भरत की अधीनता स्वीकार कर ली। उनके अन्य भाइयों ने तो इसे मान लिया, परंतु बाहुबली ने इसके लिए इनकार कर दिया। जनता को युद्ध के परिणामस्वरूप अपार कष्ट न हो, इसलिए दोनों राजाओं ने द्वंद्व युद्ध का निर्णय लिया। इसके लिए दृष्टि – युद्ध, जल – युद्ध व मल्लयुद्ध करने का निश्चय हुआ। इस युद्ध में बाहुबली विजयी हुए। उस युद्ध में विवेक शून्य भरत ने धोखे से बाहुबली पर चक्र का प्रहार किया, परंतु न्याय के पथ पर चलने वाले बाहुबली का वह चक्र कुछ न बिगाड़ सका। भले ही अब बाहुबली संपूर्ण राज्य के स्वामी थे, परंतु धोखे से चक्र – प्रहार की घटना से उनके अंतर्मन में बड़ी तीव्र प्रतिक्रिया हुई और उनका मन संसार से विरक्त हो गया। वे अपने पिता की भांति राजपाट छोड़कर तपस्या करने चले गए। बाद में भरत भी उनसे मिलने गए। बाहुबली ने कैलास पर्वत पर जाकर मोक्ष प्राप्त किया। भरत ने पोदनपुर में बाहुबली की मूर्ति स्थापित करवाई। बाद में उस मूर्ति का कुछ पता नहीं चलता। श्रवण बेलगोला की विशाल मूर्ति उसी अवस्था की है।
अन्य जैनतीर्थ
विदिशा : सागर से विदिशा जाने वाली सड़क पर ग्यारसपुर तीर्थ से विदिशा 38 किलोमीटर है। श्रीमंत सेठ लक्ष्मीचंद्रजी की जैन धर्मशाला सुविधाजनक है। इसी में ऊपर के भाग में जिनालय है। इसमें इधर – उधर से प्राप्त अनेक जैन मूर्तियां हैं। इसमें 9 वीं -10 वीं शताब्दी तक की मूर्तियां हैं।
उदयगिरि : विदिशा से 6 किलोमीटर दूर उदयगिरि की प्रसिद्ध गुफाएं हैं। जाने के लिए पक्की सड़क है। तांगे या स्कूटर द्वारा जा सकते हैं। गुफाओं में गुफा नं . 20 और 1 जैनगुफाएं हैं। गुफा नं . 20 में गुप्तसंवत् 106 का एक अभिलेख तथा गुप्तकालीन जैनमूर्तियां उपलब्ध हैं। गुफा नं . 1 में भी सुपार्श्वनाथ की एक प्राचीन मूर्ति विराजमान है। सांची यहां से 8 किलोमीटर दूर है।
श्रीमहावीरजी : यह भारत भर में प्रसिद्ध दिगंबरजैन अतिशय क्षेत्र है। यहां वर्ष भर में लाखों भक्तजन मन में कामना संजोये आते हैं। उनकी कामना पूर्ति हो जाती है, श्रद्धालुओं का ऐसा विश्वास है। मूलनायक भगवान महावीर की कत्थई वर्ण की प्राचीन प्रतिमा यहां स्थित है। इस मूर्ति को एक भक्त ग्वाले ने भूमि से निकाला था। इस मंदिर में कुल नौ वेदिया हैं। मंदिर के आगे मानस्तभ और चारों ओर धर्मशाला है, जो कटला कहलाता है। इसके अतिरिक्त भी कई और विशाल धर्मशालाएं हैं। दिल्ली से माउंट आबू रोड जाते हुए रास्ते में पड़ता है। यह दिल्ली – मुंबई रेल मार्ग पर है।
ऋषभदेव : उदयपुर राजमार्ग से ऋषभदेव ( केसरियाजी ) 65 किलोमीटर है। यहां केसर चढ़ता है, इसलिए इसे केसरियाजी भी कहते हैं। यह एक सुप्रसिद्ध अतिशय क्षेत्र है। यहां भगवान ऋषभदेव की अत्यंत चमत्कारी प्रतिमा है। इसके दर्शन करने और मनौती मनाने के लिए केवल दिगंबर जैन ही नहीं, बल्कि श्वेतांबर जैन, भील और हिंदू भी बहुत बड़ी संख्या में आते हैं। यहां सभी मूर्तियां दिगंबर आम्नाय की हैं। इस मंदिर के चारों ओर 52 देहरियां बनी हुई हैं। मंदिर का मुख्य द्वार अत्यंत विशाल और कलापूर्ण है। यात्रियों के ठहरने के लिए कई धर्मशालाएं हैं। उदयपुर से रेल – बस सेवा है। तीन – चार घंटे का रास्ता है। अंकलेश्वर : बड़ौदा से रेल द्वारा अंकलेश्वर 79 किलोमीटर है। नगर के मध्य में दिगंबर जैन धर्मशाला है। यहां चिंतामणि पार्श्वनाथ, नेमिनाथ, आदिनाथ और महावीर मंदिर, ये चार मंदिर हैं। चिंतामणि पार्श्वनाथ की प्रतिमा राजकुंड में से निकली थी। कहते हैं, पार्श्वनाथ मंदिर में ही भगवत्पुष्पदंत और भगवत भूतबलि ने धरसेनाचार्य से सिद्धांत ग्रंथों का अध्ययन करने के बाद प्रथम चातुर्मास किया था। यहां का मुख्य मंदिर महावीर मंदिर है।
बाहुबली : गिरि पार्श्वनाथ से पुनः किर्लोस्कर बाड़ी आकर वहां से रेल द्वारा हातकलंगड़े उतरना चाहिए। वहां से 6 किलोमीटर दूर बाहुबली क्षेत्र है। नियमित बस सेवा है। सड़क के किनारे विशाल प्रवेश द्वार बना हुआ है। इसमें प्रवेश करने पर धर्मशालाएं तथा गुरुकुल भवन बने हुए हैं। इन भवनों के निकट ही जिनालय का मुख्य प्रवेश द्वार है। प्रवेश करते ही सामने एक उन्नत चबूतरे पर बाहुबली स्वामी की 28 फुट ऊंची एक प्रतिमा खड़ी है। मंदिरों का पुनर्निर्माण हो रहा है। यहां का बाहुबली ब्रह्मचर्याश्रम प्राचीन और आधुनिक शिक्षण पद्धति का अपूर्व संगम है ।
अंतरिक्ष पार्श्वनाथ : शिरडशाहपुर से चोंडी 8 किलोमीटर। चोंडी से वाशिम 114 किलोमीटर। वाशिम से मालेगांव 20 किलोमीटर तथा मालेगांव से सिरपुर गांव 10 किलोमीटर है। बसों की व्यवस्था है। सिरपुर गांव में ही श्री अंतरिक्ष पार्श्वनाथ अतिशय क्षेत्र है। गांव के बाहर श्री अंतरिक्ष पार्श्वनाथ दिगंबरजैन पवली मंदिर बना हुआ है । यही मूल मंदिर है । इसे 1000 वर्ष पूर्व ऐल श्रीपाल ने बनवाया था। मुस्लिम काल में मूर्ति नगर के मंदिर के गर्भगृह में स्थापित कर दी गई थी। नगर के मंदिर में श्वेतांबर – दिगंबर दोनों संप्रदायों को पूजा का अधिकार है। उसके लिए समय निर्धारित है। नीचे भोंथरे में भगवान पार्श्वनाथ की कृष्ण वर्ण की अर्द्धपद्मासन 3 फुट 8 इंच ऊंची सप्तकण मंडित प्रतिमा विराजमान है। यह अंतरिक्ष में अधर में ठहरी हुई है। केवल बाईं ओर थोड़ी – सी भूमि से स्पर्श करती है। मंदिर के निकट ही दिगंबर जैनों की तीन धर्मशालाएं हैं।
मुक्तागिरि : अमरावती से बस द्वारा परतवाड़ा या रिक्शे से ही क्षेत्र तक पहुंच सकते हैं।
यह क्षेत्र प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर है। ऊपर पर्वत पर बड़ी ऊंचाई से जलप्रपात गिरता है। कहते हैं कि यह वही स्थान है, जहां से मेढ़ा मुनि के पास जा गिरा था। मुनि ने उसे णमोकार मंत्र सुनाया। मेढ़ा निर्मल परिणामों से मरकर स्वर्ग में देव बना। जहां मुनि ध्यान में लीन थे, उस स्थान पर 1000 वर्ष प्राचीन ऐलनरेश श्रीपाल द्वारा निर्मित गुहामंदिर बना हुआ है। प्रपात के नाले के दोनों ओर 53 जिनालय बने हुए हैं। श्री पार्श्वनाथ जैनमंदिर ( क्रमांक 26 ) यहां का बड़ा मंदिर कहलाता है। इसमें भगवान पार्श्वनाथ की सवा चार फुट ऊंची कृष्णवर्ण पद्मासन प्रतिमा मूलनायक है। तलहटी में आदिनाथ और महावीर नामक दो मंदिर हैं। मंदिरों के दोनों ओर धर्मशालाएं हैं।