भगवती कात्यायनीपीठ वृन्दावन: मंगल करने वाली देवी

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गवती भवानी का छठां स्वरूप कात्यायनी के नाम से विख्यात है। वह शक्ति का स्वरूप हैं। पूर्वकाल में कत नाम के एक ऋषि हुआ करते थे। उनके कात्य नाम के पुत्र हुए थे। इन्हीं कात्य के गोत्र में महर्षि कात्यायन हुए थे। महर्षि कात्य ने वर्षो तक भगवती की कठोत तपस्या की थी। वह भगवती के उनके घर में उत्पन्न होने की कामना करते थे। कुछ समय पश्चात जब दानवराज महिषासुर का अत्याचार धरती पर बढ़ गया और देवता उसके भय से प्रताड़ित हो गए तो भगवान ब्रह्मा, विष्णु व महेश के अंश से महिषासुर के विनाश के लिए एक देवी प्रकट हुई तो महर्षि कात्यायन ने सर्व प्रथम इनकी पूजा की। इसी कारण यह कात्यायनी देवी कहलाईं।
एक अन्य कथा बतायी जाती है, जिसके अनुसार, ये महर्षि कात्यायन के यहां पुत्री के रूप में उत्पन्न हुई थीं। अश्विनी कृष्ण चतुर्दशी को जन्म लेकर शुक्ल सप्तमी, अष्टमी और नवमी यानी तीन दिन कात्यायन ऋषि की पूजा ग्रहण की और दशमी के दिन इन्होंने महिषासुर का वध किया था। मां भगवती का कात्यायनी स्वरूप भक्त को अमोघ फल प्रदान करता है।
भगवान श्री कृष्ण को पति रूप में पाने की कामना से व्रज की गापियों ने इन्हीं देवी की पूजा कालिन्दी यमुना तट पर की थी। ये व्रजमंडल की अधिष्ठात्री देवी के रूप में प्रतिष्ठित हैं। इनका स्वरूप भव्य है। इनका वर्ण स्वर्ण के समतुल्य चमकीला और भास्वर है। चार भुजाएं हैं। भगवती के दाहिने तरफ के ऊपर वाले हाथ में अभय मुद्रा है और नीचे वाले हाथ में वर मुद्रा है। बायीं तरफ के ऊपर वाले हाथ में तलवार और नीचे वाले हाथ में कमल सुशोभित है। इनका वाहन भी सिह है। नवरात्रि के छठे दिन कात्यायनी के स्वरूप की पूजा की जाती है। साधक के मन में आज्ञा चक्र स्थित होता है। योग साधना में इस आज्ञा चक्र का विश्ोष महत्व है। इस चक्र में साधक भगवती कात्यायनी को अपना सर्वस्व अर्पण कर देता है। पूर्ण आत्मदान करने वाले साधक को भगवती के दर्शन प्राप्त होते है। भगवती का यह स्वरूप अर्थ, धर्म, काम व मोक्ष प्रदान करने वाला है। इनकी उपासना से साधक परमपद का अधिकारी हो जाता है। नवरात्र के छठवें दिन माता भगवती के कात्यायनी रूवरूप की आराधना की जाती है।
इन्द्रादि देवता भगवती कात्यायनी की स्तुति करते हुए कहते हैं-
देवि प्रपन्नर्तिहरे प्रसीद
प्रसीद मातर्जगतोखिलस्य।
प्रसीद विश्वेश्वरि पाहि विश्वं
त्वमीश्वरी देवि चराचरस्य।।
(श्रीदुर्गासप्तशती)
शरणागत की पीड़ा दूर करने वाली देवी! हम पर प्रसन्न होओ। सम्पूर्ण जगत की माता! प्रसन्न होओ! विश्वेश्वरि! विश्व की रक्षा करो। देवि! तुम्हीं चराचर जगत की अधीश्वरी हो।
अनन्तकाल से भारतवर्ष पवित्र स्थानों, तीर्थों, सिद्घपीठों, मंदिरों एवं देवालयों से सुसज्जित और सुशोभित होता रहा है। जिस पावन तथा पवित्र भूमि में गंगा, यमुना, सरस्वती आदि नदियों एवं राम-कृष्ण आदि आराध्य देवों ने अवतार ग्रहण किया और अधर्म का नाश कर धर्म की रक्षा की, ऐसे सुंदर पवित्रतम स्थानों को तीर्थ एवं सिद्घपीठ के नाम से पुकारा गया। जिनमें भगवान नन्दनन्दन अशरणशरण करूणावरूणालय, व्रजेन्द्रनन्दन श्रीकृष्णचन्द्र की पावन पुण्यमय क्रीडाभूमि श्रीधाम वृंदावन में कलिन्दगिरिनन्दिनी सकलकल्मषहारिणी श्रीयमुना के सन्निकट राधाबागस्थित अति प्राचीन सिद्घपीठ के रूप में श्री श्रीमाँ कात्यायनी देवी विद्यमान हैं।

कात्यायनी के एक ध्यानस्वरूप में बताया गया है कि वे देवी हाथ में उज्जवल चन्द्रहास नामक तलवार लिये रहती हैं तथा श्रेष्ठï सिंह पर आरूढ़ रहती हैं। ये दानवों का विनाश करने वाली तथा सब प्रकार के मंगलों को प्रदान करने वाली हैं-
चन्द्रहासोज्ज्वलकरा शार्दूलवरवाहना।
कात्यायनी शुभं दद्याद्देवी दानवघातिनी।।
(तत्वनिधि, शक्तिनिधि, 56)
भगवान श्रीकृष्ण की क्रीड़ाभूमि श्रीधाम वृंदावन में भगवती सती देवी के केश गिरे थे। ब्रह्मïवैवर्तपुराण एवं आद्यास्तोत्र आदि कई स्थानों पर उल्लेख है- ‘व्रजे कात्यायनी परा’ अर्थात वृंदावनस्थित पीठ में पराशक्ति महामाया माता श्रीकात्यायनी के नाम से प्रसिद्घ हैं। वृन्दावन स्थित कात्यायनीपीठ भारतवर्ष के शक्तिपीठों में एक अत्यन्त प्राचीन सिद्घपीठ है। देवर्षि श्रीवेदव्यासजी ने श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्ध के बाईसवें अध्याय में उल्लेख किया है कि व्रज-गापिकाओं ने भगवान श्रीकृष्ण को पाने के लिए देवी कात्यायनी का पूजन-व्रत किया तथा इस मंत्र का जप किया था-
कात्यायनि महामाये महायोगिन्यधीश्वरि।
नन्दगोपसुतं देवि पतिं मे कुरु ते नम:।।
कात्यायनी! महामाये! महायोगिनी! सबको एकमात्र स्वामिनी! आप नन्दनन्दन श्रीकृष्ण को हमारा पति बना दीजिए। देवि! हम आपके चरणों में नमस्कार करती हैं।
श्री दुर्गासप्तशती में देवी के अवतरित होने का उल्लेख इस प्रकार मिलता है-
‘नन्दगोपगृहे जाता यशोदागर्भसम्भवा।’
मैं नन्दगोपाल के घर में यशोदा के गर्भ से अवतार लूंगी।
देवी दुर्गा के नौ रूपों में छठा रूप देवी कात्यायनी का ही है-‘षष्ठïं कात्यायनीति च।’ श्रीमद्भागवत में भगवती कात्यानी के पूजन द्वारा भगवान श्रीकृष्ण को प्राप्त करने के साधन का सुन्दर वर्णन प्राप्त होता है। यह व्रत पूरे मार्गशीर्ष (अगहन) मास में होता है। भगवान श्रीकृष्ण को पाने की लालसा में व्रजाङ्गïनाओं ने अपने ह्दय की लालसा पूर्ण करने-हेतु यमुनानदी के किनारे से घिरे हुए ‘राधाबाग’ नामक स्थान पर माता श्रीकात्यायनीदेवी का पूजन किया था।
कामरूपमठ के तत्कालीन स्वामी जी महाराज के संन्यासाश्रम में दीक्षित शिष्यद्वारा सर्वशक्तिशालिनी माँ के आदेशानुसार 1 फरवरी 1923 माघी पूर्णिमा के दिन वैदिक-याज्ञिक ब्राह्मïाणोंद्वारा इस मंदिर की प्रतिष्ठïा का कार्य पूर्ण कराया गया। माँ कात्यायनी के साथ-साथ पञ्जानन शिव, विष्णु, सूर्य तथा सिद्घिदाता श्रीगणेशजी महाराज की मूर्तियों की भी इस मंदिर में प्रतिष्ठïा की गयी।
राधाबाग मंदिर के अन्तर्गत गुरुमंदिर, शंकराचार्यमंदिर, शिव मंदिर तथा सरस्वतीमंदिर भी दर्शनीय हैं। यहां की आध्यात्मिकता तथा अलौकिकता का मुख्य कारण है- साक्षात सर्वशक्तिस्वरूपिणी, जन्म-मरण-कष्टïहारिणी, अह्लदमयी, करुणामयी माँ कात्यायनी और सिद्घिदाता श्रीगणेशजी एवं अद्र्घनारीश्वर (गौरीशंकर महादेव) का विद्यमान होना।
श्रीशंकराचार्य मंदिर में जहां विप्र-वटुओं द्वारा वेदध्वनि से सम्पूर्ण वेद-विद्यालय एवं सम्पूर्ण कात्यायनीपीठ का प्राङ्गïण पवित्रतम हो जाता है, वहीं कात्यायनीपीठ में स्थित औषधालय द्वारा विभिन्न असाध्य रोगियों की सेवा-पूजा होती है। माँ कात्यायनी की कृपा शक्ति का फल है कि कर्ईबार दर्शन करने के बाद भी उनके दर्शन की लालसा और जाग्रत होती चली जाती है, यह एक विलक्षण बाता है।

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