सत्ता में नैतिकता व पारदर्शिता का दंभ तो हर राजनैतिक दल भरता है, बड़े-बड़े महारथियों के नाम गिनाए जाते हैं, समाज सुधार की बातें की जाती है, नए भारत के निर्माण का सपना जनता दिखाया जाता है, गरीबों के उत्थान के वायदे किए जाते हैं, उद्योगों के कायाकल्प के लिए हर दिन नए-नए अनुबंद किए जाते हैं, रोजगार के लिए बड़ी-बड़ी बातें की जाती हैं, लेकिन हकीकत का आईना राजनैतिक दलों को कम ही रास आता है। यहां एक राजनैतिक दल की बात नहीं कर रहे हैं, बल्कि उन सभी राजनैतिक दलों को शामिल कर रहे हैं, जो राजनीति का लक्ष्य सत्ता हासिल करना समझते हैं। उसके लिए नए-नए पैतरे आजमाते हैं, नैतिकता को त्याग कर नए-नए गठबंधन बनाते हैं, उनका इस बात से कोई वास्ता नहीं होता है, वे सैद्धांतिक रूप से आपस में कितने सहमत है।
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इसकी तुलना अगर हम मुगल व ब्रिटिश कालीन भारत से करें तो गलत नहीं होगा, उस जमाने के राजा महाराजा भी अपनी सत्ता बचाने के लिए यह सब तो किया करते थे, जो आज के राजनेता कर रहे हैं। सत्ता हासिल करने के लिए उन्हें वह सबकुछ मंजूर है, जो उन्हें सत्ता की पगदंडी पर सरपट दौड़ा सके। सत्ता पाने के लिए सिद्धांतों से समझौता का बदरंग चेहरा इस बार हाल में ही महाराष्ट्र की सियासत में देखने को मिला है। यहां किस कदर सत्ता हासिल करने के लिए भाजपा से लेकर शिवसेना और एनसीपी से लेकर कांग्रेस ने अपने-अपने सिद्धांतों को तिलांजलि दी।
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महाराष्ट्र में विधानसभा के चुनाव के नतीजे घोषित होने के करीब एक महीने बाद राज्य को आखिरकार उसका मुखिया मिल गया है। हां, यह वही मुखिया है, जिसको महाराष्ट्र की जनता ने चुना था, हां, फर्क है तो बस इतना है कि जनता ने भाजपा और शिवसेना गठबंधन को स्पष्ट बहुमत दिया था, लेकिन सत्ता की लोलुपता में शिवसेना ने भाजपा का साथ छोड़ दिया और नई राह तलाशने की कोशिशों में जुट गई और यहां भाजपा ने चुप्पी साध ली, या यूं कहें तो गलत न होगा कि भाजपा सत्ता पाने के लिए नयी बिसात बिछाने में जुट गई।
इस घटनाक्रम के बाद एक ओर तो शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस का भरोसा जीतने में जुटी थी और बाला साहेब को दिया हुआ वादा पूरा करने में। शिवसेना चाहती थी कि एक शिवसैनिक ही प्रदेश का मुखिया बने, परन्तु एनसीपी और कांग्रेस ने कहा कि हम शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे के नाम पर अपनी सहमति जता सकते हैं। किसी और के नाम पर नहीं। ऐसे में बैठकों का दौर शुरु हुआ और तय भी हो गया कि कांग्रेस और एनसीपी सरकार बनाने में शिवसेना की मदद करेगी। कॉमन मिनिमम प्रोग्राम के तहत तीनों दलों के बीच एक फॉर्मूला भी तय हो गया और आपसी सहमति भी बन गई कि उद्धव ठाकरे ही मुख्यमंत्री बनेंगे, परन्तु भारतीय राजनीति में सबसे बड़ा उलटफेर हो गया और देवेंद्र फडणवीस ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ले ली और उपमुख्यमंत्री शरद पवार के भतीजे अजीत पवार बन गए। जिसके बाद कांग्रेस ने इसे जनादेश के साथ विश्वासघात बताया।
जनादेश के साथ विश्वासघात की बात अब जनता को पल्ले नहीं पड़ रही है, क्योंकि जनता ने तो भाजपा-शिवसेना गठबंधन और एनसीपी-कांग्रेस गठबंधन को मत दिए थे। इन परिस्थितियों में अगर उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्री बन जाते तो क्या यह जनादेश का अपमान नहीं होता है? इतना ही नहीं कांग्रेस के खिलाफ चुनावों में बड़ी-बड़ी बातें करने वाली क्या शिवसेना पूर्णतया अपने जनता को दिए अपने वादे भूल पाती ? और क्या कांग्रेस वीर सावरकर को भारत र‘ दिए जाने की बात स्वीकार लेती ? यह सभी सवाल बेहद अहम हैं, लेकिन अभी जो सवाल सबसे ज्यादा जरूरी है वह ये हैं कि क्या एनसीपी टूट गई ?
अजीत पवार उपमुख्यमंत्री बन गए लेकिन क्या इस बारे में शरद पवार को कोई जानकारी नहीं थी। यह कहना थोड़ा अजीब लग रहा है। क्योंकि शीतकालीन सत्र की शुरुआत के पहले दिन ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बातों-बातों में एनसीपी की तारीफ कर दी और फिर बाद में शरद पवार ने संसद भवन में ही प्रधानमंत्री मोदी से मुलाकात की थी। हालांकि इस मुलाकात को किसानों की समस्याओं पर आधारित बताई गई थी। फिर क्या था कांग्रेस ने भी सवाल खड़ा कर दिया कि अगर किसानों के ही मुद्दे पर था तो हमें भी साथ ले चलते। यह सब को महाराष्ट्र का राजनैतिक घटनाक्रम रहा, जो सबको दिख भी रहा था और समझ भी रहे थे, इन सब में जो भारतीय राजनीति का दुर्भाग्यपूणã और बदरंग चेहरा सामने आया है।
वह कम चौकाने वाला नहीं रहा। किस तरह से शिवसेना ने कांग्रेस व एनसीपी से सत्ता पाने के लिए नाता जोड़ने का प्रयास किया, यह वहीं कांग्रेस है, जिस पर शिवसेना हिंदू विरोधी होने का आरोप लगाती रही है, दोनों दलों की सिद्धांतों में बुनियादी सोच का फर्क यहीं है। एनसीपी भी कांग्रेस से अलग नहीं है। वह भी हिंदूओं के प्रति कमोवेश मिलती जुलती सोच ही रखती है, जो कि शिवसेना से मेल नहीं खाती है और शायद कभी खायेगी भी नहीं।
हैरत में डालने वाला पहलू यह है कि इसके बावजूद उनमें गठबंधन होने वाला था। यह निश्चित तौर पर भारतीय राजनीति का बदरंग चेहरा ही उजागर कर रहा है। शिवसेना, कांग्रेस व एनसीपी के सैद्धांतिक रूप से खोखले होने की ओर इंगित कर रहा है। वह भी सत्ता के खातिर। कमोवेश भाजपा भी सिद्धांतों को तिलांजलि देने में पीछे नहीं है, पहले जम्मू-कश्मीर में भाजपा ने अपने सिद्धांतों को तिलांजलि दी थी। अब महाराष्ट्र में सरकार के गठन में मिनी पवार के साथ सरकार बना दी है।
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