ब्रह्मलीन श्रीदेवराहा बाबा ने बताये थे भगवत्प्रेम के ये रहस्य

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ब्रह्मलीन श्रीदेवराहा बाबा ने अपने उपदेशों में जीवन को जीने की कला सिखाई है। धर्म क्या है? यह बताया है। अंत:करण को कैसे शुद्ध करें? यह भी बताया। आइये, उनके उपदेशों के कुछ अंशों से हम जाने कि धर्म क्या है? और जीवन कैसे जिया जाए?
देवरहा बाबा भगवान राम के परम भक्त थे। उनके मुख में सदा राम नाम का वास था, वे भक्तों को राम मंत्र की दीक्षा दिया करते थे। वे हमेशा ही सरयू के किनारे रहा करते थे। उनका मानना था-

एक लकड़ी हृदय को मानो दूसर राम नाम पहिचानो
राम नाम नित उर पे मारो ब्रह्म दिखे संशय न जानो।

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देवरहा बाबा जनसेवा और गौसेवा को सर्वोपरि-धर्म मानते थे और हर दर्शनार्थी लोगों को सेवा, गोमाता की रक्षा करने और भगवान की भक्ति में रत रहने की प्रेरणा देते थे। देवरहा बाबा भक्तों को कष्ट से मुक्ति के लिए कृष्ण मंत्र भी देते थे। उनका कहना था कि
ऊं कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने
प्रणत: क्लेश नाशाय, गोविन्दाय नमो-नम:।

बाबा कहते थे कि जीवन को पवित्र बनाए बिना, ईमानदारी, सात्विकता-सरसता के बिना भगवान की कृपा प्राप्त नहीं होती। अत: सबसे पहले अपने जीवन को शुद्ध-पवित्र बनाने का संकल्प लो। वे प्राय: गंगा या यमुना तट पर बनी घास-फूस की मचान पर रहकर साधना किया करते थे। अनुयायियों को वे सद्मार्ग पर चलते हुए अपना मानव जीवन सफल करने का आशीर्वाद देते थे। वे कहते थे कि इस भारतभूमि की दिव्यता का यह प्रमाण है कि इसमें भगवान श्रीराम और श्रीकृष्ण ने अवतार लिया है। यह देवभूमि है, इसकी सेवा, रक्षा और संवर्धन करना हर भारतवासी का कर्तव्य है।

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उन्होंने अपने अपने उपदेशों में स्पष्ट किया था कि वेद विद्या भारतीय संस्कृति का प्रतीक हैं। वेद विद्या त्रयी विद्या कहलाती है। ऋक्, यजु: और साम ही त्रयीविद्या है। चतुर्थ वेद अथर्व वेद तो त्रयी का ही उपलक्षण है। त्रयी विद्या का सम्बन्ध अग्नित्रय से है। अग्नि, वायु और आदित्य ये तीनों तत्व ही विश्व में व्याप्त हैं। पुरुष ब्रह्म के तीन पैर ऊपर हैं और एक पैर ब्रह्म है। त्रयीविद्या के समान ज्ञान, कर्म और उपासना का त्रिक् वेद विद्या का दूसरा स्वरूप है। जिसके माध्यम से वेद-विद्या की सत्-चित् और आनन्द इन तीन विभूतियों की अभिव्यक्ति हो रही है। विश्व के सम्पूर्ण धर्मों के केंद्र बिंदु त्रिक् में स्थित हैं।

यह त्रिक् ही और अधिक विशिष्ट रूप में गंगा, गायत्री और गौ के रूप में प्रस्फुटित हुआ है, इसलिए गायत्री, गंगा और गौ के तत्व को ठीक-ठीक से समझना ही भारतीय संस्कृति के मूल को समझना है। गौ, गंगा और गायत्री ही भारतीय संस्कृति के मुख्य व मूल प्रतीक हैं। गौ व गंगा की महत्तता व उपयोगिता सभी को मान्य है, जो लोग उन्हें देवता के रूप में स्वीकार नहीं करते हैं। वे भी इनकी लौकिक उपयोगिता स्वीकार करते हैं। मूल रूप में गंगा व गायत्री एक ही हैं। जिनता क्षेत्र गायत्री का है, उतना ही गंगा का भी है।

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इस भाव को स्पष्ट करनके लिए गंगा की तीन धाराएं मानी गई हैं। पाताल गंगा, भागीरथी गंगा और आकारश गंगा। पृथ्वी तत्व से जो शक्ति प्राप्य है, वह पाताल गंगा है, जलीयतत्व से वहीं शक्ति भागीरथी गंगा है और तेज तत्व से वहीं आकाश गंगा है। जिस प्रकार गायत्री त्रिपक्ष है, उसी प्रकार गंगा भी त्रिधारा है। ऋग्वेद में आप को अंतरिक्ष का देवता गया है और चार सूक्तों में इस दिव्य देवता की स्तुति की गई है। अग्नि अथवा तेज तत्व जल में रहने वाला है।

अग्नि का जन्म जल से बताया गया है। जल का मूल तत्व पार्थिव है, जो भेषजमय है और जिससे मनुष्य को जीविका भी प्राप्त होती है। इस प्रकार आप: के तीन रूप हो जाते हैं। ये ही गंगा के तीन रूप है। पतित पावनी गंगा, यमुना और सरयूमैया के जल पवित्र जल का पान करो, यह अक्षय पुण्य का सूत्र है। जहां तक अनन्य विश्वास और श्रद्धा के साथ अपने दैनिक कर्तव्यों के साथ भगवत भजन आवश्य करो। स्थान करने से शरीर शुद्ध होता है, दान करने से धन की शुद्धि होती है और ध्यान करने से मन की शुद्धि होती है।

नित्यप्रति ब्रह्ममुहूर्त में जगकर गंगादि पवित्र नदियों के जल से स्नानादि क्रिया सम्पन्न कर सन्ध्यावंदन, गायत्री जप और भजन-पूजन पाठादि नियम से करो। तुलसी, पीपल, बिल्व, आंवला आदि पवित्र वृक्षों और गंगादि नदियों का नित्य दर्शन पूजन करों। धरती में तुम जैसा बीज बोओगे, उसी के अनुरूप फल की प्राप्ति होगी। अगर बबूल का पेड़ लगाया तो क्या तुम्हे आम के फल की प्राप्ति होगी?

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इसी प्रकार अंत:करण भी धरती के समान है। इसमें अगर दुर्गुणों और दुराचारों का बीज बोओंगे तो जीवन दुख व अशांति से भर जाएगा। तुम्हे सुख और शांति की प्राप्ति नहीं होगी, इसलिए अपने अंत:करण में सदाचार के बीज लगाओ, जिससे तुम पावन हो जाओंगे। फिर अंत:करण में भगवत्प्रेम ज्योति जाग्रत होगी, जिससे मानव जीवन का लक्ष्य प्राप्त हो जाएगा।

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