दक्षिण भारत में तमिलनाडु में पातालगंगा कृष्णा नदी के तट पर पवित्र श्ौल पर्वत है। जिसे दक्षिण भारत का कैलाश भी कहा जाता है। श्री श्ौल पर्वत के शिखर के दर्शन मात्र से मनुष्य के सभी कष्ट मिट जाते हैं। इस श्री श्ौलप पर भगवान मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग है। मंदिर के निकट एक जगदम्बा जी का भी स्थान है।
श्री पार्वती जी यां भ्रमराम्बा या भ्रमराम्बिका कहलाती हैं। जगतपिता ब्रह्मा जी ने सृष्टिकार्य की सिद्धि के लिए इसका पूजन किया था। शिवपुराण में इस पावन धाम को लेकर कथा भी है। कथा के मुताबिक श्री गण्ोश के प्रथम विवाह हो जाने से कार्तिकेय जी नाराज होकर माता-पिता के रोकने पर भी क्रौंचपर्वत चले गए। देवगणों ने भी कुमार कार्तिकेय से लौटने के लिए आग्रह किया, लेकिन कुमार कार्तिकेय ने सभी प्रार्थनाओं से अस्वीकार कर दिया। माता पार्वती और भगवान भोलेनाथ पुत्र वियोग में दुख का अनुभव करने लगे। फिर दोनों क्रौंचपर्वत पर गए। माता-पिता का आगमन हुआ जानकर स्नेहहीन हुए कुमार और दूर चले गए। अंत में पुत्र के दर्शन की लालसा से जगदीश्वर भगवान शिव ज्योति रूप धारण कर उसी पर्वत पर अधिष्ठित हो गए। उस दिन से ही वहां प्रादुर्भूत शिवलिंग मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग के नाम से जगत में विख्यात हुआ है। मल्लिकार्जुन का अर्थ है पार्वती और अर्जुन। अर्जुन शब्द शिव का वाचक है।
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इस प्रकार इस ज्योतिर्लिंग में शिव और पार्वती दोनों ज्योतियां प्रतिष्ठित हैं। एक अन्य कथा भी प्रचलित है। जिसके अनुसार इस पर्वत के पास चंद्रगुप्त नामक राजा की राजधानी थी। एक बार उसकी कन्या किसी विश्ोष विपत्ति से बचने के लिए अपने पिता के महल से भागकर इस पर्वत पर आ गई। वह यहां ग्वालों के साथ कंद-मूल और दूध से अपना जीवन निर्वहन करने लगी। उस राजकुमारी के पास एक श्यामा गाय थी। जिसका दूध प्रतिदिन कोई दुह लेता था। एक दिन उसने चोर को दूध दुहते देख लिया। जब वह क्रोध में भरकर उसे मारने के लिए दौड़ी तो गौ के निकट पहुंचकर उसे शिवलिंग के अलावा कुछ अन्य न मिला। तब राजकुमारी ने उस स्थान पर भव्य मंदिर का निर्माण कराया। तब से भगवान मल्लिकार्जुन वहीं प्रतिष्ठित हैं। उस लिंग का जो दर्शन करता है। वह समस्त पापों से मुक्त हो जाता है। अपने परम अभिष्ट को सदा-सर्वदा के लिए प्राप्त कर लेता है।
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