दुर्जन का साथ आत्मघाती होता है, क्योंकि उसका विष सर्प से भी भयंकर होता है। आचार्य चाणक्य ने चाणक्य नीति में साफ किया है कि दुर्जन व्यक्ति कितना भी शालीनता का आवरण ओढ कर आए, तब भी उस पर कदापि विश्वास न करें। वह किसी व्यक्ति व समाज के हित में नहीं है। आज के दौर में यह बात सार्थक सिद्ध होती है, संसद से लेकर सड़क तक चुनिंदा दुर्जन नारी सम्मान व समाज-धर्म के प्रति अपना विष उगलते रहते हैं। फिर मीठी बोली की आड़ में अपना चरित्र छुपाने का कुचक्र रचते हैं।
दुर्जन: प्रियवादी च नैतद्बिश्वासकारणम्। मधु तिष्ठति जिह्वाग्रे हृदये तु हलाहलम्।।
दुर्जन: परिहर्त्तव्यो विद्ययालंकृतोअपि सन्। मणिना भूषित: सर्प: किसमौ न भयंकर:।।
सर्प: क्रूर: खल: क्रूर: सर्पात् कूरतर: खल:। मन्त्रौषधिवश: सर्प खल: केन निवार्यते।।
अर्थात- दुष्ट व्यक्ति मीठी बातें करने पर विश्वास योग्य नहीं होता है, क्योंकि उसकी जीभ पर शहद के ऐसा मिठास होता है, लेकिन हृदय में हलाहल विष भरा रहता है। दुष्ट व्यक्ति विद्या से भूषित होने पर भी त्यागने योग्य है, जिस सर्प के मस्तक पर मणि होती है, वह क्या भयंकर नहीं होता है? सांप निठुर होता है और दुष्ट भी निठुर होता है, तथापि दुष्ट पुरुष सांप की अधिक निठुर होता है, क्योंकि सांप तो मंत्र और औषधि के वश में आ सकता है, लेकिन दुष्ट का निवारण कैसे किया जाए?