भगवान शिव का एक नाम ‘रुद्र’ है । दु:ख का नाश करने और संहार के समय क्रूर रूप धारण करके शत्रु को रुलाने से शिव को ‘रुद्र’ कहते हैं। वेदों में शिव के अनेक नामों में रुद्र नाम ही विशेष है । उन्हें ‘रुद्र: परमेश्वर:, जगत्स्रष्टा रुद्र:’ आदि कहकर परमात्मा माना गया है । यजुर्वेद का रुद्राध्याय भगवान रुद्र को समर्पित है । उपनिषद् रुद्र को विश्व का अधिपति और महेश्वर बताते हैं-
‘इन ब्रह्माण्ड में स्थित भुवनों पर ब्रह्मारूप से शासन करता हुआ और उत्पन्न होने वाले प्रत्येक शरीर के मध्य में चेतनरूप से विराजमान तथा प्रलय के समय क्रोध में भरकर संहार करता हुआ एक रुद्र ही अपनी शक्ति उमा के साथ स्थित है, इससे पृथक् दूसरा कुछ भी नहीं ।’ (श्वेताश्वतरोपनिषद् 4/98)
शिवपुराण का आधे से अधिक भाग रुद्रसंहिता, शतरुद्रसंहिता और कोटिरुद्रसंहिता आदि नामों से भगवान रुद्र की ही महिमा का गान करता है ।
रुद्रसंहिता में कहा गया है कि इस लोक में शिव की जैसी इच्छा होती है, वैसा ही होता है । समस्त विश्व उन्हीं की इच्छा के अधीन है और उन्हीं की वाणी रूपी तन्त्री से बंधा हुआ है ।
शिवपुराण में भगवान शिव के परात्पर निर्गुण स्वरूप को सदाशिव, सगुण स्वरूप को महेश्वर, विश्व का सृजन करने वाले स्वरूप को ब्रह्मा, पालन करने वाले स्वरूप को विष्णु और संहार करने वाले स्वरूप को रुद्र कहा गया है। रुद्र का दूसरा अर्थ यह भी है कि जो सम्पूर्ण दुखों से मुक्त करा दें। जो इसे सिद्ध करता है, वह श्लोक है- रुजं दु:खं द्रावयतीति रुद्र:।
यह चराचर, जंगम व स्थावर जगत जो भी ब्रह्मांड में देखने में आता है, वह शिव रूप है।
अन्तस्तमो बहि: सत्त्वस्त्रिजगत्पालको हरि:। अन्त: सत्त्वस्तमोबाह्यस्त्रिजगल्लयकृद्धर:।।
अन्तर्बहीरजश्चैव त्रिजगत्सृष्टिकृद्बिधि:। एवं गुणास्त्रिदेवेषु गुणभिन्न: शिव: स्मृत:।।
भावार्थ- तीनों लोकों के पालन करने वाले भगवान हरि भीतर से तमोगुणी है और बाहर से सतोगुणी हैं। तीनों लोकों का संहार करने वाले भगवान हर भीतर से सतोगुणी है, पर बाहर से तमोगुणी हैं। भगवान ब्रह्मा जो तीनों लोकों को उत्पन्न करते है, भीतर व बाहर उभय रूप में रजोगुणी हैं। भगवान विष्णु सृष्टि का पालन करते हैं, इसलिए देखने में तो सृष्टि सुख रूप प्रतीत होती है, लेकिन भीतर से यानी वास्तव में दुख रूप होने से विष्णु भगवान का कार्य बाहर से सतोगुणी होने पर भी तमोगुणी ही है, इसलिए भगवान विष्णु के वस्त्राभूषण सुंदर और सात्विक होने पर भी स्वरूप श्यामवर्ण है।
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भगवान शिव सृष्टि का संहार करते हैं। वे देखने में तो दुखरूप हैं, लेकिन वास्तव में संसार को मिटाकर परमात्मा में एकीभाव करना उनका सुखस्वरूप है, इसलिए भगवान शिव शंकर का बाहरी श्रृंगार तमोगुणी होने पर भी स्वरूप सतोगुणी है। वे शीघ्र प्रसन्न होते हैं, जिसके कारण वह आशुतोष कहलाते हैं। शीघ्र प्रसन्न होना उनका सतोगुण स्वभाव ही है। भगवान ब्रह्मदेव सदा ही सृष्टि की रचना करते हैं, इसलिए वे रक्तवर्ण है, क्योंकि क्रियात्मक स्वरूप को शास्त्रों में रक्तवर्ण ही बताया गया है। अत: शिव जी की उपासना के अंतर्गत भगवान विष्णु व ब्रह्मा की उपासना स्वत: आ जाती है। त्रिदेवों में परस्पर कार्यभेद नहीं है, जो दिखता है, वह लीला मात्र ही जानना चाहिए। ऐसे जगहितकारी भूतभावन शिव की महिमा अनंत है। भगवान सदा शिव के जिस संहारक स्वरूप को रुद्र कहा गया है, उनकी उपाधियां अनंत हैं। उनकी गणना त्रिकाल में भी नहीं की जा सकती है। एकादश रुद्रों की कथा न केवल महाभारत व पुराणादि में वर्णित है, हालांकि उनका उल्लेख ऋग्वेदादि में भी मिलता है।
भगवान रुद्र तो एक ही हैं किन्तु जगत के कल्याण के लिए वे अनेक नाम व रूपों में अवतरित होते हैं । मुख्य रूप से ग्यारह रुद्र हैं । इन्हें ‘एकादश रुद्र’ भी कहते हैं । शिवपुराण (शतरुद्रसंहिता 18।27) में कहा गया है-
एकादशैते रुद्रास्तु सुरभीतनया: स्मृता: ।
देवकार्यार्थमुत्पन्नाश्शिवरूपास्सुखास्पदम् ।।
अर्थात्-ये एकादश रुद्र सुरभी के पुत्र कहलाते हैं । ये सुख के निवासस्थान हैं तथा देवताओं के कार्य की सिद्धि के लिए शिवरूप से उत्पन्न हुए हैं ।
ग्यारह रुद्र के अवतार क्यों ?
एक समय की बात है कि इन्द्र आदि देवता दैत्यों से पराजित हो गए और भयभीत होकर अपनी अमरावतीपुरी को छोड़कर अपने पिता महर्षि कश्यप के आश्रम में आ गए थे। देवताओं ने कश्यपजी को अपना कष्ट कह सुनाया। शिवभक्त महर्षि कश्यप देवताओं को कष्ट दूर करने का आश्वासन दिया और काशीपुरी आ गए। वहां शिवलिंग की स्थापना करके तप करने लगे ।
बहुत समय बीत जाने पर परम दयालु भगवान शिव प्रकट हो गए और उनसे वर मांगने के लिए कहा । महार्षि कश्यपजी ने कहा कि दैत्यों ने देवताओं और यक्षों को पराजित कर दिया है इसलिए आप मेरे पुत्र रूप में प्रकट होकर देवताओं के कष्टों को दूर कीजिए।
भगवान शंकर ‘तथास्तु’ कहकर अन्तर्ध्यान हो गए । आश्रम वापस आकर उन्होंने देवताओं को भगवान शंकर के अवतार लेने की बात सुनाई, तो सभी देवता प्रसन्न हो गए । भगवान शिव ने अपना वचन सत्य सिद्ध करने के लिए कश्यप ऋषि की पत्नी सुरभी के गर्भ से ग्यारह रुद्रों के रूप में अवतार लिया । भगवान के इन रुद्रावतारों से सारा जगत शिवमय हो गया । ये एकादश रुद्र बहुत ही बली और पराक्रमी थे । इन्होंने युद्ध में दैत्यों को हराकर इन्द्र को पुन: स्वर्ग का राज्य दिला दिया । सभी देवता निर्भय होकर अपना-अपना राजकार्य संभालने लगे। अब भी भगवान शिव के स्वरूप ये सभी एकादश रुद्र देवताओं की रक्षा के लिए स्वर्ग में विराजमान हैं और ईशानपुरी में निवास करते हैं । उनके अनुचर करोड़ों रुद्र कहे गये हैं, जो तीनों लोकों में चारों ओर स्थित हैं ।
एकादश रुद्र के नाम
विभिन्न पुराणों व ग्रन्थों में एकादश रुद्रों के नाम में अंतर मिलता है ।
जैसे-शिवपुराण में इनके नाम हैं-
कपाली, पिंगल, भीम, विरुपाक्ष, विलोहित, शास्ता, अजपाद, अहिर्बुध्न्य, शम्भु, चण्ड और भव ।
शैवागम के अनुसार एकादश रुद्रों के नाम हैं-
शम्भु, पिनाकी, गिरीश, स्थाणु, भर्ग, सदाशिव, शिव, हर, शर्व, कपाली और भव ।
श्रीमद्भागवत में एकादश रुद्रों के नाम इस तरह हैं-
मन्यु, मनु, महिनस, महान्, शिव, ऋतध्वज, उग्ररेता, भव, काल, वामदेव और धृतव्रत ।
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