पाप हरने वाली मां गंगा का धाम
भागीरथी, जान्हवी, शिवाया, पंडिता, हुगली, उत्तर वाहिनी, मंदाकिनी, दुर्गाय, त्रिपथगा, आदि अनेकानेक नाम
गंगोत्री धाम भारत की पवित्र नदी गंगा का उद्गम स्थल है, इसलिए यह बहुत ही पवित्र स्थल माना जाता है। एक कथानुसार गंगाजी ने जब प्रथम बार पृथ्वी को छुआ तो वह स्थान गंगा उतरी कहलाया, जो बाद में गंगोत्री नाम से प्रसिद्ध हो गया।भागीरथ ने पहले माता गंगा को कठोर तप करके प्रसन्न किया था, फिर उन्होंने भगवान भोलेनाथ को अपने कठोरतम तप से प्रसन्न किया था। जिसके बाद माता गंगा स्वर्ग से धरती पर अवतरित हो सकी थी। यदि माता सीधे धरती पर उतरती तो धरती उनके वेग को संभाल नहीं पातीं और वह पाताल में चली जाती, इसलिए भागीरथ जी ने भगवान शंकर को प्रसन्न किया था, जिन्होंने अपनी जटाओं में गंगा जी को उतारा था। गंगा को भागीरथी भी कहा जाता है, क्योंकि राजा भगीरथ ने ही इसे पृथ्वी पर अवतरित कराया था।गंगा में एक डुबकी लगा लेने से शरीर के समस्त पाप धुल जाते हैं। इसके जल में इतनी विशेषता है कि एक घंटे में ये कालरा रोग के रोगाणुओं को पूर्णतया नष्ट कर देता है। इतना ही नहीं, इस जल में मानव के समस्त रोगो के रोगाणु को नष्ट करने की क्षमता है। जब सर्दी प्रारंभ होती है, देवी गंगा अपने निवास स्थान मुखबा गांव चली जाती है। वह अक्षय द्वितीया के दिन वापस आती है। उसके दूसरे दिन अक्षय तृतीया, जो प्रायः अप्रैल महीने के दूसरे पखवाड़े में पड़ता है, हिन्दु कैलेण्डर का अति पवित्र दिन होता है। इस समय बर्फ एवं ग्लेशियर का पिघलना शुरू हो जाता है तथा गंगोत्री मंदिर पूजा के लिए खुल जाते हैं। देवी गंगा के गंगोत्री वापस लौटने की यात्रा को पारम्परिक रीति-रिवाजों, संगीत, नृत्य, जुलुस तथा पूजा-पाठ के उत्सव के साथ मनाया जाता है।
इस यात्रा का रिकार्ड इतिहास कम से कम 700 वर्ष पुराना है । मुखबा, मतंग ऋषि के तपस्या स्थान के रूप में जाना जाता है। इस यात्रा के तीन या चार दिनों पहले मुखबा गांव के लोग तैयारियां शुरू कर देते हैं। गंगा की मूर्त्ति को ले जाने वाली पालकी को हरे और लाल रंग के रंगीन कपड़ो से सजाया जाता है। जेवरातों से सुसज्जित कर गंगा की मूर्त्ति को पालकी के सिंहासन पर विराजमान करते हैं। पूरा गांव गंगात्री तक की 25 किलोमीटर की यात्रा में शामिल होते हैं। भक्तगण गंगा से अगले वर्ष पुनः वापस आने की प्रार्थना कर ही जुलुस से विदा लेते हैं। जुलुस के शुरू होने से पहले बर्षा होना – जो प्रायः होती है – मंगलकारी होने का शुभ संकेत हैं। जुलुस में पास के गांव से भी देवी गंगा के साथ अन्य देवी – देवताओं की डोली शामिल होती हैं। उनमें से कुछ अपने क्षेत्र की सीमा तक साथ रहते हैं। सोमेश्वर देवता भी पालकी में सुसज्जित होकर शामिल होते हैं। गंगा औऱ सोमेश्वर देवता का मिलन अधिकाधिक उत्सव का संकेत हैं। लोग दोने देवताओं की प्रतिमा को साथ में लेकर स्थानीय संगीत के धुन में नाचते एवं थिरकते चलते हैं। जब दोनों पालकी की यात्रा शुरू होती है तो इस जुलुस में सोमेश्वर देवता की अगुआनी। नेतृत्व में गढ़वाल स्काउट (आर्मी बेण्ड) पारम्परिक रीति-रिवाजों में भाग लेते हैं तथा पारम्परिक संगीत बजाते हैं। रास्ते में लोग देवी-देवताओ की पूजा करते हैं तथा भक्तगणों को जलपान मुहैया कर उन्हें मदद करते हैं। धराली गांव की सीमा पर, सोमेश्वर देवता की यात्रा समाप्त होती है तथा गंगा अपनी यात्रा जारी रखती हैं। यात्रा के दूसरे दिन यह जुलुस गंगात्री पहुंचता हैं तथा भक्तगण देवी गंगा के आगमन एवं स्वागत की प्रतिक्षा कर रहे होता हैं। विस्तृत रीति-रिवाजों तथा पूजा-पाठ के बाद मंदिर के दरबाजे खोले जाते हैं और गंगा की प्रतिमा को मंदिर में स्थापित किया जाता हैं। इसके साथ ही गंगात्री मंदिर के दरबाजे पुनः लोगों के पूजा-पाठ के लिए खोल दिये जाते हैं। इसी प्रकार जब बर्फ जमना शुरू होने और यात्रा सीजन समाप्त होने पर पारम्परिक रीति-रिवाजों तथा उत्सव के साथ देवी गंगा वापस मुखबा गांव वापस चली जाती हैं। हिंदू धर्म में गंगा नदी को मां का दर्जा दिया गया है और कहा जाता है कि यह बहुत ही पवित्र नदी है।
गंगोत्री धाम: धार्मिक पृष्ठभूमि
गंगोत्री स्थल पर राजा भगीरथ ने घोर तपस्या कर गंगा को पृथ्वी पर उतारा, ताकि वे अपने उन पूर्वजों का तर्पण कर सकें, जो कपिल मुनि के श्राप के कारण मृत्यु को प्राप्त हो गए थे। मां गंगा पृथ्वी पर अवतरित होने से पहले भगवान शिव के केशों में निवास करती थी, जहा से भगवान ने उन्हें धीरे – धीरे पृथ्वी पर मानव कल्याण हेतु छोड़ा ऐसा माना जाता है कि इस स्थल से गंगाजल लेकर रामेश्वरम् धाम के शिव पर अर्पित करने से प्रभु के गले की पीड़ा, जो समुद्रमंथन में प्राप्त विष पीने से हुई थी, को ठंडक प्राप्त होती है। मंदिर प्रत्येक वर्ष अक्षय तृतीया को खुलता है और दीपावली के दिन बंद होकर मुवया ग्राम के मार्कडेय मंदिर में स्थानांतरित हो जाता है।
मंदिर विवरण
अठारहवीं शताब्दी में भारतीय सेना के एक गोरख कमांडर अमर सिंह थापा ने निर्मित कराया था। यह गंग तट पर 20 फीट ऊंचा सफेद ग्रेनाइट का चमकता हुआ सुंदर भव्य मंदिर है। इसके मध्य में एक बड़ा शिखर है, जिसके नीचे गंगा मां की मूर्ति विराजमान है। इस शिव के चारों ओर अनेक छोटे – बड़े शिखर हैं। मंदिर दो तलों में निर्मित है। इसके पुजारी ग्राम मुखवा के ही होते हैं, जहां गंगा मां शरदकाल में वास करती हैं। मंदिर के पीछे एक हरा – भरा पर्वत इसकी शोभा में चार चांद लगा देता है।
आस – पास के दर्शनीय स्थल
- गोमुख : गंगोत्री से 18 किलोमीटर ऊपर एक गोमुख नाम का ग्लेशियर है, जो गाय के मुख के समान है । अत : इसे गोमुख कहा जाता है और इसी से गंगा का उद्गम हुआ माना जाता है। यह स्थान समुद्र तल से 4256 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है गंगोत्री मंदिर 3141 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। यह ग्लेशियर 25 किलोमीटर लंबा और 6-8 मीटर चौड़ा है। इससे निकला गंगाजल सुंदर नीली – हरी आभा देता है, जिसके मध्य में मणियों के समान श्वेत बर्फ के टुकड़े तीर्थ यात्रियों हेतु अद्वितीय दृश्य उत्पन्न करते हैं।
- नंदन वन : गोमुख से 25 किलोमीटर ऊपर जाने पर एक अद्भुत दृश्य दृष्टिगोचर होता है, जहां से शिवालिक पर्वत का शिखर दिखलाई पड़ता है। इसी के और ऊपर चढ़ने पर सुंदर स्थल नंदन वन तपोवन मिलता है, जो कुछ विद्वानों के अनुसार गंगा का वास्तविक उद्गम स्थल है।
- केदार ताल : समुद्र से 4426 मीटर की ऊंचाई पर ताल – तलैया शिखर पर एक सुंदर सरोवर है, जो प्रकृति के अति मनोहर दृश्य का दर्शन कराता है, पर यहां पहुंचना कठिन है।
- भैरों चट्टी : गंगोत्री के मार्ग के मध्य में यह एक सुंदर स्थल है, जहां पर जाह्नवी व भागीरथी नदियां कल – कल बहती दिखलाई पड़ती हैं। यहां भैरव बाबा का सुंदर छोटा मंदिर है और वास्तव में यह गंगोत्री मां के दर्शन का प्रथम द्वार है।
- हरसील : उत्तरकाशी से कुछ दूर सुंदर पर्वत शृंखलाओं से घिरा यह एक प्राकृतिक सुंदर स्थल है, जहां पर्वत की हरियाली मन मोह लेती है। इसके दो किलोमीटर पर सात ताल नामक स्थान पर सात सरोवर हैं, जो दर्शनीय हैं।
- गंगनानी : उत्तरकाशी से कुछ दूर यह वह स्थल है, जहां पर गर्म जल के अनेक झरने हैं। इसमें यात्री स्नान करके अपनी थकावट मिटा लेते हैं और एक नवीन अनुभूति महसूस करते हैं।
यात्रा मार्ग व ठहरने के स्थान
प्राचीन काल में ये स्थान साधारण तीर्थ यात्रियों के पहुंच से बाहर था, क्योंकि ये मार्ग पैदल ही पूर्ण करना होता था और मार्ग भी जटिल तथा कठिन था। वर्तमान में ये स्थान सड़क मार्ग द्वारा सोधे हरिद्वार व ऋषिकेश से जुड़े हैं। यहां से टैक्सी व बसों में यात्रा आराम से की जा सकती है। यात्री अब गंगोत्री मंदिर तक वाहन द्वारा पहुंच जाते हैं। कुछ वर्षों पहले उन्हें भैरों चट्टी पर उतरकर 10 किलोमीटर की यात्रा पैदल ही करनी होती थी। गोमुख जाने हेतु यात्रियों को पैदल या अन्य साधनों का प्रयोग करना पड़ता है। हरिद्वार से गंगोत्री के मध्य पड़ने वाले स्थानों का वर्णन निम्न ……….
हरिद्वार से नरद्रनगर 40 किलोमीटर, | नरद्रनगर चंबा 46 किलोमीटर, | चंबा टिहरी 21 किलोमीटर, | टिहरी धरासू 37 किलोमीटर, |
धरासू उत्तरकाशी 28 किलोमीटर, | उत्तरकाशी मेनरी 10 किलोमीटर, | मेनरी भातवनी 15 किलोमीटर, | भातवनी गंगनानी 40 किलोमीटर , |
हरिद्वार नरद्रनगर 40 किलोमीटर, | चंबा टिहरी 21 किलोमीटर, | टिहरी धरासू 37 किलोमीटर, | धरासू उत्तरकाशी 28 किलोमीटर, |
उत्तरकाशी मेनरी 10 किलोमीटर, | मेनरी भातवनी 15 किलोमीटर, | भातवनी गंगनानी 40 किलोमीटर, | गंगनानी झाला 25 किलोमीटर, |
झाला हरसिल 6 किलोमीटर, | हरसिल भैरोंचट्टी 13 किलोमीटर, | भैरोंचट्टी गंगोत्री मंदिर 10 किलोमीटर, | |
वर्तमान में गंगोत्री में भी ठहरने की उचित व्यवस्था हो गई है, पर इससे पहले यात्री भैरों चट्टी पर ही ठहरते थे और आज भी ठहरते हैं ।
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