गुरुतत्व का वैदिक रहस्य भाग-4, एक वैदिक कालीन प्रसंग

2
4328

विचारशील पुरुष की सदैव जय होती है। अविचार ही दुख की जड़ है और इसी से दैत्यों का नाश हुआ था। सुविचार से ही देवता सुखी होकर पूज्य बने। विचार ही सुख वृक्ष का बीज है। विचार पूर्ण होने पर ही मानव सुशोभित होता है। विचार से ही श्री हरि पूज्य हैं। विचार से ही शंकर सर्वज्ञ व महेश्वर बने।

Advertisment

राम ने लंका विजय व रावण वध विचार की शक्ति से किया। अविचार से ही ब्रह्मा का सिर काटा गया। अविचार से शंकर ने भस्मासुर को वरदान देकर संकट को झेला।

यह भी पढ़ें- जानिए, रुद्राक्ष धारण करने के मंत्र

हे सूत! जो व्यक्ति विचारशील है, वही धीर वीर और महात्मा है। वे वंदनीय हैं, विचार द्बारा अनावश्यक कर्तव्यों का भार उतर जाता है।
अत: विचार बड़ा उपयोगी साधन है।
हे सूत! सुविचार उत्पत्ति का एक मात्र साधन ब्रह्मदेव की कृपा है।
गुरुवर! ब्रह्मदेव की कृपा कैसे हो। हे सूत! भक्तिपूर्वक सेवा से ब्रह्मदेव संतुष्ट होकर कृपा करते हैं। महाराज! ब्रह्मदेव की भक्तिपूर्वक सेवा क्या है?
सूत! ब्रह्मदेव की सर्वान्तर्चा भी चिन्मय, शिव, स्वात्म स्वरूप समझकर उसमें मन को तन्मय करना तथा संसार को ब्रह्मदेव का रूप समझते हुए सबकुछ उनका समझना ही भक्तिपूर्वक सेवा है।
गुरुवर! तन्मय होने के लिए विचार दृढ़ता कैसे आये?
हे, सूत! ब्रह्मदेव का माहात्म्य श्रवण ही विश्वास मे दृढ़ता लाने का एक मात्र उपाय है। अत: अब तुम विचार करो। विचार से ही लक्ष्य प्राप्त हो सकेगा एवं जन्म-मरण के भंवर से मुक्त होकर परम शांति लाभ कर सकेगा।

यह भी पढ़ें- इस मंत्र का जप करके लगाएं तिलक, पूजन में तिलक लगाना जरूरी

कुछ क्षण विराम लेने के बाद व्यास जी पुन: बोलेे- हे सूत! विचार द्बारा जीव अपने सच्चे स्वरूप को पहचान लेता है। जीव सदैव आनंद व चैतन्य रूप है, परन्तु अविचार के कारण, ईश्वर अंश आनंद रूप होने पर भी अपने को भूलकर स्वरूप स्थिति से च्युत हो, कर्म बंधनों में बंधकर दुख झेल रहा है। इस विषय पर हे सूत! मैं तुम्हें एक दृष्टान्त सुनाता हूं।

यह भी पढ़ें- कन्या व वर के विवाह की अड़चनों को दूर करने वाले प्रभावशाली मंत्र

एक गडरिया बकरियों को चराता हुआ सघन जंगल में पहुंच गया। वहां उसे एक तत्काल प्रसूत सिंह का बच्चा प्राप्त हुआ। नवजात सिंह शिशु को गडरिया उठा लाया और बकरियों के साथ उसका पालन करने लगा। बकरियों के साथ पोषण होने से सिंह शिशु का स्वभाव में बकरी जैसा ही हो गया। वह अपने को बकरा ही समझता था और उन्हीं की भांति मे-मे बोलता था।
गडरिया उसे रस्सी से बांधता और कान पकड़कर डंडे से मारता था। वह बेचारा अपने मूल रूप को न जानने के कारण सभी कुछ सहन करता था। उसके अंत:करण में बकरा होने का पूर्ण अभ्यास हो चुका था। तरुण होने पर भी वह सिंह हीन-हीन होकर गडरिये के अधीन रहता था।
एक दिन वह सिंह शिशु बकरियों के साथ चरता हुआ सघन वन में पहुंच गया। वहां एक शेर था, उसने देखा कि वह नव तरूण सिंह बकरियों के साथ चर रहा है। उसने विचार किया- ओह! यह शेर परम बलशाली होकर भी अपने को विस्मृत कर चुका है।

यह भी पढ़ें- एकादशी के दिन भूल से ये न करें, यह जरूर करें

हे! भगवान! गडरिया के डंडे खाने में ही सुखी है। बकरियों के साथ हीन-हीन बना हुआ दुख पा रहा है। ओह! माया की शक्ति देखो, अपनी माया से जीव को कैसे भ्रमित करती है? अज्ञान का बल कितना विशाल है? जिस पर यह अपना अधिपत्य कर लेता है, उसे कैसा अद्भुत नृत्य कराता है। यह सिंह बेचारा माया के जाल में फंसा हुआ है। इसका उद्धार करना चाहिए।
इस प्रकार विचार करर वनवासी सिह ने बकरियों के साथ वाले तरुण सिंह को बुलाया और कहा- अरे- बड़े आश्चर्य की बात है, जो तुम इन बकरियों के साथ चरते हो। यह बकरियां तो तुम्हारा भोजन हैं।

यह भी पढ़ें – गुरुतत्व का वैदिक रहस्य – एक वैदिक कालीन प्रसंग

वाह! तुम तो सिंह हो, जंगल के राजा हो। वह सिंह शिशु बोला- वनराज आप क्या कह रहे हैं, मैं सिंह नहीं बकरा हूं। भला मैं कैसे सिंह बन सकता हूं।
इतना कहकर शिशु सिंह गिड़गिड़ाने लगा। उसका अंत:करण बकरे की भावना से भावित हो चुका था। फिर वह सिंह बात कैसे स्वीकार कर लेता।

यह भी पढ़ें – गुरुतत्व का वैदिक रहस्य भाग दो- एक वैदिक कालीन प्रसंग 

वनराज ने पुन: समझाया- अच्छा देखों हमारा और तुम्हारा रूप स्वरूप एक जैसा ही है, कहकर एक स्वच्छ डाल के तालाब में वनराज सिंह ने अपने प्रतिबिम्ब से शिशु सिंह के प्रतिबिम्ब का मिलान किया और दिखाया।
वह सिंह शिशु बोला- इस प्रकार रूप मिलाने से क्या मैं सिंह हो जाऊंगा? मैं तो बकरा हूं और बकरा ही रहूंगा। उसके अत:करण में अपने बकरे होने का पूर्ण निश्चय हो चुका था।
वनवासी सिंह ने कहा- अच्छा तुम मेरी भांति बोली बोलते हुए गर्जना तो कर सकते हो?
शिशु सिंह बोला- हां, प्रयास कर आपकी गर्जना कर सकता हूं। आप बोलकर दिखाइये।

यह भी पढ़ें – गुरुतत्व का वैदिक रहस्य भाग-3,एक वैदिक कालीन प्रसंग

वनवासी सिंह ने जोर से गर्जना की, उसकी गर्जना से सारा वन विकम्पित हो गया। शिशु सिंह में निजी संस्कार तो थे ही, वह बोला- इसमें कौन सी बड़ी बात है? और तब उसने भी बड़ी जोर से दहाड़ मारी।
वनवासी सिंह बोला- ठीक हे, अगर तुम बकरा हो तो बकरा रहो, पर एसी ही दहाड़ बकरियों और गडरिये को भी सुनाना जरूर । सिंह शिशु ने ये बात स्वीकार कर ली।
सायंकाल वह गडरिया जब बकरियों का झुंड एकत्रित कर रहा था, उसी समय कबरा रूपी सिंह ने बीच गोल में ही बड़ी जोर से गर्जना की। उसकी गर्जना से जंगल गूंज उठा। सभी बकरियां भयभीत होकर भाग खड़ी हुईं। गडरिया भी भय से व्याकुल होकर भागा, उसने विचार किया कि सिंह अब तरुण हो गया है। हम सको फाड़ खायेंगा।

यह भी पढ़ें – सम्मोहन: वर पक्ष को राजी करने, पति-पत्नी के सम्बन्ध मधुर बनाने और सुख- प्रसन्नता प्राप्त करने के अदभुत मंत्र

अत:अब इसे पकड़कर झुंड में रखना ठीक नहीं है।
उसी दिन से वह सिंह शिशु गडरिये की रस्सी के बंधन से विमुक्त हो गया। उसका दंड भय सर्वदा के लिए समाप्त हो गया और वह स्वतंत्र होकर अरण्य का स्व साम्राज्य भोगने लगा। इस दृष्टान्त का तात्पर्य यह है कि संसारी जीव ही शेर के बच्चे हैं, क्योंकि ये परमात्मा का अंश हैं और विषय रूपी बकरियों के संगत करने से ये जीव विषयाकार वृत्ति बनाकर तदानुसार बन बैठा है। यमराज रूपी गडरिया इसे कर्म रूपी रस्सी से बांधकर चौरासी लाख योनियों के खूटे से बांधता है और नरक की यातनाओं रूपी डंडे की मार से दुखी होता है। मै-मेरा रूपी मैं-मैं करता रहता हे और अपने सच्चिदानन्दमय रूप को पहचानने वाला महापुरुष रूपी वनराज सिंह जब मिल जाता है और तब उसे ब्रह्मविज्ञान रूपी सिंह गर्जना सुनाकर शिक्षा देता है। जब उसके स्वरूप का ज्ञान करा देता है। तब वह जीव अपने ज्ञान गर्जन से विषय रूपी बकरियों को भयभीत करके भगा देता है और यमराज रूपी गडरिये से बच जाता है। ज्ञानाग्नि से कर्म रज्जु भी जल कर भस्म हो जाती है और वह जीव चौरासी लाख योनियों के खूंटे से न बंध कर निर्मुक्त अवस्था को प्राप्त हुआ आत्मस्थिति पाकर स्वरूप स्राम्राज्य में आनंद भोगता है। इतना सुनकर सूत जी गदगद हो गए व आनंद के समुद्र में गोते लगाने लगे।

आनंद सिन्धोस्तव वारिविन्दो।
पुर:किमास्ते विधिलोक सौख्यम्।।
पदारबिन्देषु रतिं प्रयच्क्ष।
श्रुत्वा बर्लेगा हरि रालिलिंग।।

नोट- उपरोक्त लिखित श्लोक की फोटो नीचे है, सही उच्चारण में सहायक होगी, हिंदी व संस्कृत के वर्तनी भेद कारण थोड़ी भिन्नता है। सही उच्चारण के लिए निम्न फोटो को देखे- 

श्री व्यास जी के द्बारा विचार का महत्व श्रवण करके सूत जी बोले- गुरुवर, अब मैं समझ गया हूं कि मोक्ष का एक मात्र साधन विचार ही है। प्रभो, मुझे विचारों का सूक्ष्म तत्व समझने की जिज्ञासा उत्पन्न हो गई है। गुरुदेव विचार कहां से उत्पन्न होते हैं? और कहां स्थिति पाते हैं? विचार कैसे किया जाता है? विचार की गति क्या है? विचार निष्ठा किसे होती है, इत्यादि सूक्ष्म विवेचन व मूल तत्व की धारणा बिना गुरु कृपा के सम्भव नहीं है।

लेखक विष्णुकांत शास्त्री
विख्यात वैदिक ज्योतिषाचार्य और उपचार विधान विशेषज्ञ
38 अमानीगंज, अमीनाबाद लखनऊ
मोबाइल नम्बर- 99192०6484 व 9839186484
आभार
1- ब्रह्म विज्ञान संहिता
2- ब्रह्मलीन स्वामी
स्वयं भू तीर्थ जी महाराज
सनातन धर्म, जिसका न कोई आदि है और न ही अंत है, ऐसे मे वैदिक ज्ञान के अतुल्य भंडार को जन-जन पहुंचाने के लिए धन बल व जन बल की आवश्यकता होती है, चूंकि हम किसी प्रकार के कॉरपोरेट व सरकार के दबाव या सहयोग से मुक्त हैं, ऐसे में आवश्यक है कि आप सब के छोटे-छोटे सहयोग के जरिये हम इस साहसी व पुनीत कार्य को मूर्त रूप दे सकें। सनातन जन डॉट कॉम में आर्थिक सहयोग करके सनातन धर्म के प्रसार में सहयोग करें।

2 COMMENTS

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here