एक बार लोक पितामह तत्वज्ञ ब्रह्मा जी चिंताक्रन्त होते हुए विचारने लगे कि पुत्रवत मेरी सृष्टि को मेरा अनादि वेद विज्ञान किस प्रकार प्राप्त हो? तथा मेरे अद्भुत अपूर्व ज्ञान वेदों का रहस्य मानव जाति किस प्रकार प्राप्त कर ज्ञान सुधा का पान कर सके, इत्यादि चिंताओं से युक्त होने पर ब्रह्म जी ने अपनी आदिम संतान का ध्यान किया। उसी क्षण ब्रह्म वृत्तिवत्, शान्त स्वरूप साकार वेद स्वरूप सनकादिक मुर्ना चतुर्थ ब्रह्मा जी के समक्ष उपस्थित हुए एवं करबद्ध होकर बोले प्रभु आपका प्रसन्न वदन मलिन क्यों? क्या सर्व शक्तिमान को भी अभाव की अनुभूति है?
कमल योनि ब्रह्म के नमन पट खुल गए। वे बोले वत्स! मेरे सुखद निर्मल आदि ज्ञान का वितरण त्रय ताप सन्तप्त जीवों में करो। तुम सबमें चारों वेदों का ज्ञान स्वयं प्रादुर्भावित हुआ है। तुम सब स्वयं वेद स्वरूप हो। अत: वेदों के महान गूढ़ रहस्यों का प्रचार करो। इस ज्ञान से संपूर्ण सृष्टि के जीव जगत को ओतप्रोत कर दो। ब्रह्मा जी के इस गंभीर घोष को चारों सनकादिक मुनियों ने ध्यान से सुना। विनय पूर्वक ब्रह्मा जी की आज्ञा शिरोधार्य कर विनम्रता पूर्वक बोले! तात आपके पवित्र स्व दिव्य आदेश का पालन होगा। ऐसा कहकर वे बृह्मा जी की चरण रज को शिरोधार्य कर नीचे के लोकों में उतर आए।
उत्तम मध्यमादि अधिकारी भेद से सन्कादिक मुनि कुमारों ने अनेक अज्ञानियों भव सिन्धु में गोते खाने वाले असंख्य जीवों को ज्ञान बोध की नौका से भवपार लगाया। अज्ञान के अंधकार में भटकने वाले अनगिनतों को ददीप्यमान ज्ञान दीप दिखाया। इस प्रकार सनकादिक मुनि कुमारों ने वेदों के ज्ञान को श्रुतियों के माध्यम से संपूर्ण सृष्टि में अलौकिक करके पितामह ब्रह्म देव की आज्ञा का पूर्ण पालन किया।
एक दिन एकांत में सनकादिकों ने विचार किया कि क्या इस प्रकार संपूर्ण जीवन जगत को वेद ज्ञान के अमृत से शांति प्रदान करने वाले मुझमें, परमशान्ति है? इस संसार का उद्धार कराने वाले मुझे क्या मेरा उद्धार हो चुका है? समस्त त्रयताप तपित मानवों के ताप निवारण करने वाले मुझमें क्या ताप शेष नहीं है? कर्तव्य नि:शेष करने वाले मुझमें क्या कर्तव्यता नहीं है?
इस प्रकार मुनिकुमार अपने हृदय को टटोलने लगे। सूक्ष्म विचार कर वे जान गए कि हमारी अशान्ति पूर्ववत है। वेद का रहस्य कथन करने वाले भी उस अद्भुत रहस्य से अनभिज्ञ हैं। अब तक का वेद ज्ञान परोक्ष है। बिना अपरोक्ष ज्ञान के अपूर्णता है। उन्हें अपने साधू वेश की आडम्बरता का आभास होने पर अपने उद्धार की चिंता व्याप्त हुई। वेद के ज्ञान से लोक परलोक में गमन करना, सांसारिक ऐश्वर्यों को उत्पन्न कर देना संकल्प सिद्ध होने मात्र को ही, यज्ञ सिद्ध मान बैठना कितनी मूढ़ता है। सिद्धियों का ज्ञान ही वस्तुत: अज्ञान है। क्योंकि यह ज्ञान आत्म स्थिति में बाधक है और मैं अज्ञानी होकर भी ज्ञान का दंभ भरता रहा? इतना परोपकार करने का यह प्रत्युपकार? ज्ञान दान का यह फल?
ये सभी तत्व मुझे प्रत्यक्ष हैं, फिर यह अशान्ति क्यों? ब्रह्म वेत्ता स्वयं ब्रह्म क्यों नहीं हुआ?
विचारों में गंभीर गोते लगाने पर निश्चय हुआ कि जो ज्ञान बिना गुरु के प्राप्त हुआ ऐसे स्वस्फुरित ज्ञान को भी गुरु की आवश्यकता है। स्वयं सिद्ध ज्ञान भी ज्ञान के पूर्ण फल तत्व साक्षात्कार को नहीं देता यही कारण है कि हम लोग सकल वेद वेदांग पारंगत होकर भी आत्मस्थिति को प्राप्त नहीं हो सके अत: गुरु अन्वेषण की आवश्यकता है। तदोपरान्त उत्तराशा में पर्वतों को पद दलित करते हुए घोर अशान्ति से प्रेरित हो ‘सत्यं शिवं सुन्दरमÓ के साक्षात स्वरूप गुुरु की शरणागति को कैलाश पर्वत की ओर चल पड़े। वहां एक वट वृक्ष के नीचे स्फटिक शिला पर चारों मुनि कुमार आसीन होकर गुरु प्राप्ति के उपाय उपक्रम हेतु तप में संलग्र हो गए।
लेखक विष्णुकांत शास्त्री
विख्यात वैदिक ज्योतिषाचार्य और उपचार विधान विशेषज्ञ
38 अमानीगंज, अमीनाबाद लखनऊ
मोबाइल नम्बर- 99192०6484 व 9839186484
आभार
1- ब्रह्म विज्ञान संहिता
2- ब्रह्मलीन स्वामी
स्वयं भू तीर्थ जी महाराज
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