गुरुवार को पीले वस्त्र पहनने चाहिए, व्रत में चने की दाल व बेसन के लड्डू का विशेष महत्व है, ये दोनों वस्तुएं भी पीली होती है। व्रत में चने की दाल व गुड़़ को पूजन सामग्री में हर हाल में शामिल किया जाता है। व्रत में पीले वस्त्र, पीले फूल आदि पूजा में चढ़ाए जाते हैं। पूजन के बाद दिन में एक बार भोजन करना चाहिए। भोजन से पहले किसी ब्राह्मण को भोजन कराने का विधान है। इस दिन स्त्रियों को कपड़े नहीं धोने चाहिए । इसके अलावा तेल व कंघी चोटी नहीं करनी चाहिए।
कथा-
एक राजा था। उसके सात बेटे व सात बहुएं थीं। दो ब्राम्हण वहां प्रतिदिन भिक्षा मांगने के लिए आते थे, वे उन्हें हाथ खाली नहीं है… कहकर लौटा देती थीं, इस पर बृहस्पति देव उनसे बहुत नाराज हुए। परिणाम स्वरूप राजा का धन-धान्य सब लगभग समाप्त सा हो गया, फिर भी छह बहुएं हाथ खाली नहीं है…कहकर ब्राह्मणों को लौटा देती थी, लेकिन छोटी बहू ने ब्राह्मणों से क्षमा याचना की और स्थिति में सुधार लाने का उपाय पूछा। ब्राह्मण बोला- नितनेम से बृहस्पति देव का व्रत रखकर ब्राह्मणों को भोजन कराओ, यदि किसी व्रत करने वाली स्त्री का पति परदेश चला गया हो तो उस स्त्री को दरवाजे के पीछे दो मानव आकृतियां बनानी चाहिए। इससे उसका पति लौट आएगा।
यदि घर में निर्धनता हो तो उन आकृतियों को बॉक्स पर बनाना चाहिए। राजा के सातों पुत्र भी धन कमाने परदेश गए हुए थे। उनका कोई समाचार नहीं आया था। छोटी बहू ने ब्राम्हण के बताए अनुसार बृहस्पतिवार का व्रत किया। जिस राज्य में छोटी रानी का पति गया हुआ था। वहां का राजा मर गया, राजा के कोई पुत्र नहीं था, इसलिए नए राजा का चुनाव करने के निश्चय से हथिनी की सूंड में माला दे दी गई। जिसे वह माला पहनाएगी। वह राजा चुन लिया जाएगा। ऐसा वहां के दरबारियों ने निश्चय किया था। हथिनी ने माला ले चारों तरफ चक्कर लगाया और छोटी बहू के पति के गले में माला पहना दी। वह राजा बन गया। अब उसने परिवार के अन्य सदस्यों की बहुत खोज की लेकिन उनको पता नहीं लगा कि वे सभी जीवित हैं या नहीं। वह सभी जीविका के लिए दूर-दूर गए हुए थे।
जनहित के लिए उसने एक तालाब खोदवाने का निश्चय किया। हजारों मजदूर वहां काम के लिए आए। उसमें परिवार के सभी सदस्य भी थे। उसने सभी को बुलाया, फिर सभी महलों में रहने लगी। छोटी बहू की पूजा के कारण ही वे सभी सुखी हुए। फिर तो सभी विधि- विधान से बृहस्पतिवार का व्रत करने लगे, तब से कोई भी याचक उनके द्वार से खाली हाथ न लौटता था।
– सनातनजन डेस्क