ज़ुबां पत्थरों की
हां! पत्थर भी बोलते हैं ,
पुरातन गाथाओं के राज खोलते हैं , वसुंधरा के साथ ही जन्मा पत्थर ,
दावानल के लावे से जन्मा कठोर पत्थर,
बेजुबा होते हुए भी सब कह जाता हूं ,
सब सह जाता हूं ,
मेरे खंडित टुकड़ों से ही अग्नि का आविर्भाव हुआ,
भवनों, इमारतों, पुलों, सड़कों का निर्माण हुआ,
जाने कितने हथौड़ों की चोट सहता जाता हूं,
फिर भी हंसते हुए एक सुंदर मूरत बन जाता हूं,
मैं पत्थर भी मनोवांछित फल देता,
जब मंदिर में सज जाता हूं ,
सभी धार्मिक सामाजिक स्थलों में सहयोग कराता हूं,
फिर भी ना जाने क्यों?
लोग धर्म जातीयता प्रांत के नाम पर मुझे ही चोट पहुंचाते हैं,
मुझे फेक मुझ पर ही ना जाने कितने आंसू बहाते हैं,
न जाने मुझ में ऐसा क्या है…..
कि लोग उपमानो में भी मुझे ले आते हैं ,
बेरहम और पत्थर दिल की संज्ञा दे जाते हैं,
पत्थर हूं पर लोगों को मैं भी लुभाता हूं,
नौ रत्नों के रूप में कभी मुकुट, हार, नथनी ,अंगूठी में जड़ मानव की शोभा बढ़ाता हूं,
मैं फौलादी खंडित होता,
मिट्टी से ही जन्मा,
मिट्टी में ही समा जाता हूं।
हां !मैं पत्थर हूं कुछ कहना चाहता हूं।
डाॅ• ऋतु नागर
स्वरचित ©