सृष्टि में जो कुछ होता है, वह सबकुछ ईश्वरीय विधान है, पहले बात करते हैं, सतयुग की, जब नरसिंह अवतार लेकर आपने प्रहलाद को कैसे बचाया था? कैसे एक कुम्हारिन ने भक्त प्रहलाद को ईश्वर का तत्व ज्ञान दिया था। जब कि वह अपने पिता असुरराज को बाल्यकाल से ही ईश्वर मानता था। उसे यही बताया गया था। वह ही क्या, उस समय सारी प्रजा भय व अज्ञानवश असुरराज की ही पूजा करती थी, जो ऐसा नहीं करता था, वह दंड का भागी होता था। तत्वज्ञान होने के बाद प्रहलाद सबकुछ बिसरा कर श्री नारायण की भक्ति में लीन हो गया।
एक प्रसंग रामायण का भी है, जो ईश्वरीय विधान को महिमा मंडित करता है। एक समय बात है कि प्रभु श्री राम के परमभक्त और पवन पुत्र हनुमानजी ने दशरथनंदन श्रीराम से कहा कि प्रभु, यदि मैं लंका न जाता, तो मेरे जीवन में बड़ी कमी रह जाती। विभीषण का घर जब तक मैंने नही देखा था, तब तक मुझे महसूस होता था, कि लंका में भला संत कहां होंगे, लेकिन जब मैं लंका में माता सीता को ढूंढ नहीं सका और विभीषण से भेंट होने पर उन्होंने उपाय बता दिया, तब मैंने सोचा कि अरे, जिन्हें मैं प्रय‘ करके नहीं ढूंढ सका, उन्हें तो इन लंका वाले संत ने ही बता दिया। शायद प्रभु ने मुझे यही दिखाने के लिए भेजा था। हनुमान जी ने प्रभु श्री राम से आगे कहा कि प्रभु, अशोक वाटिका में जिस समय रावण आया और रावण क्रोध में भरकर तलवार लेकर माता को मारने के लिए दौड़ा, तब मुझे लगा कि अब मुझे कूदकर इसकी तलवार छीन कर उसका ही सिर काट लेना चाहिए, लेकिन अगले ही क्षण मैंने देखा कि मन्दोदरी ने रावण का हाथ पकड़ लिया। यह देखकर मैं गदगद् हो गया।
प्रभु, आपने मुझे फिर कैसी शिक्षा दी? यदि मैं कूद पड़ता, तो मुझे भ्रम हो जाता कि यदि मैं न होता तो क्या होता ? लेकिन आप कितने बड़े कौतुकी हैं ? आपने उन्हें बचाया ही नहीं , बल्कि बचाने का काम रावण की उस पत्नी को ही सौंप दिया, तो मैं समझ गया कि आप जिससे जो काम लेना चाहते है, उसी से लेते हैं। सृष्टि में किसी का कोई महत्व नहीं है। रावण की सभा में इसलिए बंधकर गया कि करके तो मैंने देख लिया, अब जरा बंधके देखूं , फिर क्या होता है। जब रावण के सैनिक तलवार लेकर मुझे मारने के लिए चले तो मैंने अपने को बचाने की थोड़ी सी भी कोशिश नहीं की, लेकिन जब विभीषण ने आकर कहा कि दूत को मारना अनीति है, तो मैं समझ गया। देखो, मुझे बचाना है, तो प्रभु ने यह उपाय कर दिया। सीताजी को बचाना है, तो रावण की पत्नी मन्दोदरी को लगा दिया। मुझे बचाना था, तो रावण के भाई को भेज दिया। प्रभु, आश्चर्य की पराकाष्ठा तो तब हुई, जब रावण ने कहा कि बन्दर को मारा तो नहीं जायेगा, पर पूंछ में कपड़ा-तेल लपेट कर घी डालकर आग लगाई जाय, तो मैं गदगद् हो गया कि उस लंका वाली संत त्रिजटा की ही बात सच थी।
लंका को जलाने के लिए मैं कहां से घी, तेल, कपड़ा लाता, कहां आग ढूंढता? वह प्रबन्ध भी आपने रावण से करा लिया। जब आप रावण से भी अपना काम करा लेते हैं, तो मुझसे करा लेने में आश्चर्य की क्या बात है? इसलिए यह याद रखें कि संसार में जो कुछ भी हो रहा है, वह सब इश्वरीय बिधान है। हम आप सब तो केवल निमित्त मात्र हैं। एक अन्य प्रसंग पर भी गौर करें कि आपने किस तरह घ्रुव को अटल भक्ति का परिचायक बनाना था तो कैसा विधान किया। तदन्तर उसे अटल भक्ति प्रदान कर संसार में भक्ति की शक्ति को महिमा मंडित किया।
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