hampee-vijayanagar-kishkindha: tungabhadra ke tat par mahaadev ka ati praacheen mandirहम्पी-विजयनगर-किष्किंधा: महिमामयी नदी तुंगभद्रा के तट पर स्थित महादेव शिवशंकर का अति प्राचीन मंदिर है, जो पंपापति या विरूपाक्ष के नाम से सुप्रसिद्ध है। स्थानीय लोग इन्हें हम्पीश्वर कहते हैं। यह विजयनगर की प्राचीन राजधानी का नाम है। इसका घेरा चौबीस मील में है। इसे भारत के बारह धर्म – क्षेत्रों में से एक होने का गौरव प्राप्त है।
बाद में महादेव की कृपा से उसी भूमि पर महान् विजयनगर साम्राज्य की स्थापना हुई और हम्पी को राजधानी बनाया गया। तेरहवीं सदी में हरिहर और बुक्का नामक दो बहादुर भाइयों के द्वारा स्थापित विजयनगर का विस्तार चौदहवीं सदी में प्रतापी सम्राट कृष्णदेव राय के द्वारा किया गया। सम्राट वहां के पंपापति महादेव का परमभक्त था और उसने प्राचीन मंदिर के साथ रंग – मंडप का निर्माण कराया था। साथ ही अपनी वैभवपूर्ण राजधानी में हजारा राममंदिर तथा नरसिम्हा की विशाल प्रतिमा स्थापित की। कृष्णदेव राय ने ही यहां के दूसरे सुविख्यात मंदिर विट्ठलदेव का निर्माण आरंभ कराया था। हम्पी आंध्र प्रदेश राज्य की सीमा के पास मध्य कर्नाटक के पूर्वी हिस्से में तुंगभद्रा नदी के तट पर स्थित है। यह बैंगलोर से 376 किलोमीटर और बेलगाम से 266 किलोमीटर दूर स्थित है।
आस – पास के स्थल
विट्ठल मंदिर : विट्ठल मंदिर में विष्णु भगवान की प्रतिमा सुशोभित है। पंद्रहवीं सदी में निर्मित मंदिर अब ‘ यूनेस्को ‘ द्वारा विश्व सांस्कृतिक धरोहर घोषित किया जा चुका है। चौकोर आसन पर निर्मित मुख्य मंदिर चारों ओर पत्थर के ऊंचे प्राचीर से घिरा है। इसके मंडप में छप्पन सुंदर स्तंभ हैं, जिनसे अलग प्रकार की ध्वनि निकलती है। निकट में हेमकूट पहाड़ी पर गणेशमूर्ति तथा जैनमंदिर है। गणेशमूर्ति 12 हाथ ऊंची है। एक ही पत्थर की गणेशजी की इतनी बड़ी अन्य मूर्ति कहीं नहीं है। हम्पी क्षेत्र को ही ‘ रामायण ‘ में वर्णित किष्किंधा क्षेत्र माना जाता है। करीब दो किलोमीटर पर पंपासरोवर है, उसके पास अंजनी पहाड़ी को ही श्रीहनुमान का जन्म स्थान माना जाता है। ऐसी मान्यता है कि रावण द्वारा सीताहरण की घटना के दौरान देवी सीता के गहने इसी स्थान पर मिले थे। यहां सीताकुंड और सुग्रीव की गुफा दर्शनीय है। यहां भगवान नरसिंह का भी एक भव्य मंदिर है।
तीर्थ हम्पी – विजयनगर में दशहरा का उत्सव बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है, जो नवरात्रों में नौ दिनों तक चलता है।हम्पीश्वर या विरूपाक्ष मंदिर : पूर्व के गोपुर से मंदिर में जाने पर दो बड़े – बड़े आंगन मिलते हैं। पहले आंगन के चारों ओर मकान बने हैं, जिनमें यात्री ठहरते हैं। आंगन में से तुंगभद्रा से निकाली गई नहर बहती है। आंगन के पश्चिम की ओर गणेशजी और देवी का मंदिर है। इस आंगन से आगे छोटे गोपुर से भीतर जाने पर बड़ा आंगन मिलता है। इसके चारों ओर बरामदे तथा भवन बने हैं। इन मंडपों एवं भवनों में विभिन्न देवताओं की मूर्तियां हैं। आंगन के मध्य में एक बड़ा सा सभामंडप है और उससे लगा हुआ विरूपाक्ष मंदिर है। मंदिर पर स्वर्ण – कलश चढ़ा है। यहां दो द्वार पार करने पर विरूपाक्ष शिवलिंग के दर्शन होते हैं। पूजा के समय शिवलिंग पर स्वर्ण की शृंगार – मूर्ति स्थापित की जाती है। विरूपाक्ष के निजमंदिर के उत्तर वाले मंडप में भुवनेश्वरी देवी की मूर्ति है और उससे पश्चिम में पार्वतीजी की प्रतिमा है। उनके समीप ही गणेशजी तथा नवग्रह हैं। मंदिर के पिछले भाग से एक द्वार बाहर जाने का है। बाहर जाने पर एक सरोवर मिलता है, जिसके चारों ओर पक्के घाट हैं। वहां एक शिव मंदिर है। विरुपाक्ष मंदिर के उत्तर भाग में हेमकूट नामक एक पहाड़ी है, उस पर कई देवमंदिर हैं। मंदिर के अग्निकोण में पास हो ऊंची भूमि पर एक मंडप में लगभग बारह हाथ ऊंची गणेशजी की मूर्ति है। एक ही पत्थर की गणेशजी की इतनी बड़ी मूर्ति अन्यत्र कदाचित ही मिले। पूरे हम्पी क्षेत्र में स्थान – स्थान पर पहाड़ियां हैं और उनमें अधिकांश इसी प्रकार की बड़ी चट्टानों का ढेर मात्र हैं। उन चट्टानों के भीतर अनेक गुफाएं हैं। इन हजारों मन को चट्टानों को इतने व्यवस्थित ढंग से रखना आश्चर्य की ही बात है। कहा जाता है कि श्रीहनुमानजी तथा वानरों ने भगवान श्रीराम के निवास – वित्राम आदि के लिए इस प्रकार चट्टानें रखकर गुफाएं बनाई थीं। बड़े गणेशजी से थोड़ी दूर दक्षिण – पश्चिम में एक छोटे गणेशजी को भग्न मूर्ति है। यह स्मरण रखने की बात है कि यह हम्पी नगर पूर्ववर्ती समय में दक्षिण के वैभवशाली राज्य विजयनगर की राजधानी था। दक्षिण के मुस्लिम राज्यों के सम्मिलित आक्रमण से यह राज्य नष्ट हुआ। आक्रमणकारियों ने उसी समय और पीछे भी यहां के मंदिरों तथा मूर्तियों को नष्ट – भ्रष्ट किया। छोटे गणेश से दक्षिण – पूर्व लगभग पचास मीटर दूर श्रीकृष्ण मंदिर है। यहां से एक मार्ग विजयनगर राजभवन को जाता है। यह मंदिर बहुत बड़े घेरे में है, किंतु इसमें अब कोई मूर्ति नहीं है। इसके विशाल प्राकार, गोपुर आदि की कला यात्रियों को मुग्ध कर लेती है। इस मंदिर के सामने मैदान है, जिसे किले का मैदान कहते हैं। यहां से दक्षिण – पश्चिम खेतों के किनारे थोड़ी दूर जाने पर, एक घेरे के भीतर नृसिंह मंदिर मिलता है। इसमें भगवान नृसिंह की विशाल मूर्ति है। नृसिंह भगवान के मस्तक पर शेषनाग के फण का छत्र लगा है। शेष के फण तक मूर्ति लगभग पंद्रह हाथ ऊंची है। यह मूर्ति अपने सिंहासन तथा शेषनाग सहित एक ही पत्थर से बनी है।
तीर्थ हम्पी के अन्य स्थल
- माल्यवान पर्वत ( स्फटिक शिला ) : विरूपाक्ष मंदिर से सात किलोमीटर पूर्वोत्तर में माल्यवान पर्वत है। इसके एक भाग का नाम प्रवर्षणगिरि है। इसी पर स्फटिक शिला मंदिर है। हासपेट से यहां तक सीधी सड़क आती है। बस द्वारा सीधे स्फटिक शिला आ सकते हैं। श्रीराम – लक्ष्मण ने वर्षा के चार मास यहां व्यतीत किए थे।सड़क के पास ही पहाड़ी पर जाने का मार्ग है। वहां गोपुर से भीतर जाने पर एक परकोटे के भीतर, सुविस्तृत आंगन के मध्य में सभामंडप दिखाई देता है। सभामंडप से लगा श्रीराम मंदिर है। मंदिर में श्रीराम – लक्ष्मण तथा सीताजी की बड़ी – बड़ी मूर्तियां हैं। सप्तर्षियों की भी मूर्तियां हैं। यह मंदिर एक शिला में गुफा बनाकर बनाया गया है और शिला के ऊपर शिखर बना दिया गया है। शिखर के नीचे शिला का भाग स्पष्ट दिखाई देता है। मंदिर के दक्षिण – पश्चिम कोण पर ‘ रामकचहरी ‘ नामक एक सुंदर मंडप है। पास में एक जल का कुंड है। कहते हैं, इसे श्रीराम ने बाण मारकर प्रकट किया था।
- किष्किंधा : विट्ठलस्वामी मंदिर से लगभग डेढ़ किलोमीटर पूर्व आकर मार्ग उत्तर की ओर मुड़ता है। स्फटिक शिला से सीधे आने वाला मार्ग यहां विट्ठलस्वामी मंदिर जाने वाले मार्ग से मिलता है। इस मार्ग से कुछ ही दूरी पर सामने तुंगभद्रा नदी है। तुंगभद्रा की धारा यहां तीव्र है। नदी को पार करने के लिए यहां नौकाएं नहीं होती। नाविक लोग चमड़े से मढ़ा एक गोल टोकरा रखते हैं। छोटे टोकरे में पांच आदमी बैठ सकते हैं और बड़े टोकरे में लगभग बीस आदमी बैठ जाते हैं। इस टोकरे से ही नदी पार करनी पड़ती है। तुंगभद्रा के पार लगभग एक किलोमीटर अनरगुडा ग्राम है। इसी को प्राचीन किष्किंधा कहा जाता है। इस गांव के दक्षिण – पूर्व में तुंगभद्रा के तट पर कुछ मंदिर हैं। उनमें बालि की कचहरी, लक्ष्मी – नृसिंह मंदिर पर तथा चिंतामणि – गुफा – मंदिर मुख्य हैं। कुछ आगे सप्तताल वध नामक स्थान है। यहां एक शिला पर भगवान राम के बाण रखने के चिह है। इस स्थान के सामने तुंगभद्रा के पार बालि – वध का स्थान कहा जाता है। वहां सफेद शिलाएं हैं, जिन्हें बालि की हड्डियां कहते हैं। तुंगभद्रा के उसी पार तारा , अंगद और सुग्रीव नामक तीन पर्वत शिखर हैं। सप्तताल वेध से पश्चिम में एक गुफा है। कहते हैं कि भगवान श्रीराम ने वहां बालि – वध के पश्चात् विश्राम किया था। गुफा के पीछे हनुमान पहाड़ी है।
- ऋष्यमूक पर्वत : विरूपाक्ष मंदिर के सामने जो सड़क है, उससे सीधे चले जाएं, तो वह मार्ग आगे कुछ ऊंचा – नीचा अवश्य मिलता है, किंतु ऋष्यमूक पर्वत के पास तक ले जाता है। यहां तुंगभद्रा नदी धनुषाकार बहती है, अत : वहां नदी में चक्रतीर्थ माना जाता है। यहां नदी की गहराई अधिक है। चक्रतीर्थ के पास पहाड़ी के नीचे श्रीराममंदिर है। इस मंदिर में श्रीराम , लक्ष्मण तथा सीताजी की बड़ी – बड़ी मूर्तियां हैं। श्रीराममंदिर के पास की पहाडी को मातंग पर्वत कहते हैं। यह ऋष्यमूक का हो भाग हैं। इस पर एक मंदिर है। कहा जाता है कि इसी शिखर पर मातंग ऋषि का आश्रम था। इसके पास ही चित्रकूट और नालेंद्र नाम के शिखर हैं। यहीं तुंगभद्रा के उस पार दुंदुभि पर्वत दिखाई देता है। चक्रतीर्थ से आगे जाने पर गंधमादन के नीचे एक मंडप दिखाई देता है। उसकी एक भित्ति में भगवान विष्णु की मूर्ति खुदी है। उसके पास से गंधमादन शिखर पर जाने का मार्ग है। कुछ ऊपर एक गुफा में श्रीरंगजी ( भगवान विष्णु ) की शेषशायी मूर्ति है।
- सीताकुंडः चक्रतीर्थ से आगे स्थित इस स्थल के बारे में कहा जाता है कि लंका से लौटकर सीताजी ने यहाँ स्नान किया था। कुंड के पश्चिम तट पर गुफा के पास एक शिला पर सीताजी की साड़ी का चिह्न है। गुफा में श्रीराम लक्ष्मण और जानकी की मूर्तियां हैं। उसके तट पर माता सीता के चरण – चिह हैं।
- किष्किंधाः विदुलस्वामी मंदिर से एक मील पूर्व आकर मार्ग उत्तर की ओर मुड़ता है। यहां तुंगभद्रा की धारा तीव्र है। चमड़े से मढ़ी गोल टोकरेनुमा नाव में नदी पार करने का अद्भुत आनंद है।
- पंपासर : आनंदी ग्राम से तीन – चार किलोमीटर दूर है। यहां शबरी गुफा भी है। इन सभी स्थलों का वर्णन विभिन्न रामायणों में मिलता है।
यात्रा मार्ग
हम्पी के लिए बीजापुर, हुबली तथा गुंताकुल से रेल लाइन जाती है। हासपेट से अच्छी सड़क है।